ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार
19-23 कर्म में अकर्मता-भाव, नैराश्य-सुख, यज्ञ की व्याख्या
त्यक्त्वा कर्मफलासर्फ नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः ॥4.20॥
त्यक्त्वा–त्याग कर; कर्मफल आसड्.गम्–कमर्फल की आसक्ति; नित्य–सदा; तृप्तः–संतुष्ट; निराश्रयः–किसी पर निर्भर न होना; कर्मणि–कर्म में; अभिप्रवृत्तः–संलग्न रहकर; अपि–वास्तव में; न–नहीं; एव–निश्चय ही; किञ्चित्–कुछ; करोति–करता है; स:-वह मनुष्य।
जो मनुष्य समस्त कर्मों और उनके फलों में आसक्ति को सर्वथा त्याग कर किसी पर निर्भर नहीं होते अर्थात समस्त बाह्य या सांसारिक आश्रयों से रहित हो गए हैं और परमात्मा में नित्य तृप्त है। ऐसे ज्ञानीजन सदा संतुष्ट रहते हैं और कर्मों में संलग्न रहने पर भी वे वास्तव में कोई कर्म नहीं करते अर्थात कुछ भी नहीं करते ॥4.20॥
( जब कर्म करते समय कर्ता का यह भाव रहता है कि शरीर आदि कर्मसामग्री मेरी है , मैं कर्म करता हूँ , कर्म मेरा है और मेरे लिये है तथा इसका मेरे को अमुक फल मिलेगा तब वह कर्मफल का कारण बन जाता है। कर्मयोग से सिद्ध महापुरुष को प्राकृत पदार्थों से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद का अनुभव हो जाता है इसलिये कर्म करने की सामग्री में , कर्म में तथा कर्मफल में किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति न रहने के कारण वह कर्मफल का कारण नहीं बनता। सेना विजय की इच्छा से युद्ध करती है। विजय होने पर विजय सेना की नहीं बल्कि राजा की मानी जाती है क्योंकि राजा ने ही सेना के जीवन निर्वाह का प्रबन्ध किया है । उसे युद्ध करने की सामग्री दी है और उसे युद्ध करने की प्रेरणा की है और सेना भी राजा के लिये ही युद्ध करती है। इसी प्रकार शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि कर्मसामग्री के साथ सम्बन्ध जोड़ने से ही जीव उनके द्वारा किये गये कर्मों के फल का भागी होता है। कर्मसामग्री के साथ किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध न होने के कारण महापुरुष का कर्मफल के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता। वास्तव में कर्मफल के साथ स्वरूप का सम्बन्ध है ही नहीं। कारण कि स्वरूप चेतन , अविनाशी और निर्विकार है परन्तु कर्म और कर्मफल दोनों जड तथा विकारी हैं और उनका आरम्भ तथा अन्त होता है। सदा स्वरूप के साथ न तो कोई कर्म रहता है तथा न कोई फल ही रहता है। इस तरह यद्यपि कर्म और फल से स्वरूप का कोई सम्बन्ध नहीं है फिर भी जीव ने भूल से उनके साथ अपना सम्बन्ध मान लिया है। यह माना हुआ सम्बन्ध ही बन्धन का कारण है। अगर यह माना हुआ सम्बन्ध मिट जाय तो कर्म और फल से उसकी स्वतः सिद्ध निर्लिप्तता का बोध हो जाता है। देश , काल , वस्तु , व्यक्ति , परिस्थिति आदि का किञ्चिन्मात्र भी आश्रय न लेना ही निराश्रय अर्थात् आश्रय से रहित होना है। कितना ही बड़ा धनी राजा-महाराजा क्यों न हो उसको देश, काल आदि का आश्रय लेना ही पड़ता है परन्तु कर्मयोग से सिद्ध महापुरुष देश ,काल आदि का कोई आश्रय नहीं मानता। आश्रय मिले या न मिले इसकी उसे किञ्चिन्मात्र भी परवाह नहीं होती। इसलिये वह निराश्रय होता है। जीव आत्मा या परमात्मा का सनातन अंश होने से सत् स्वरूप ( सत्य स्वरूप ) है। सत् का कभी अभाव नहीं होता। परन्तु जब वह असत के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है तब उसे अपने में अभाव अर्थात् कमी का अनुभव होने लगता है। उस कमी की पूर्ति करने के लिये वह सांसारिक वस्तुओं की कामना करने लगता है। इच्छित वस्तुओं के मिलने से एक तृप्ति होती है परन्तु वह तृप्ति ठहरती नहीं वह क्षणिक होती है। कारण कि संसार की प्रत्येक वस्तु , व्यक्ति , परिस्थिति आदि प्रतिक्षण अभाव की ओर जा रही है अतः उनके आश्रित रहने वाली तृप्ति स्थायी कैसे रह सकती है? सत् वास्तु की तृप्ति असत् वस्तु से हो ही कैसे सकती है ? अतः जीव जब तक उत्पत्ति-विनाशशील क्रियाओं और पदार्थों से अपना सम्बन्ध मानता है तथा उनके आश्रित रहता है तब तक उसे स्वतःसिद्ध नित्य तृप्तिका अनुभव नहीं होता। कर्मयोग से सिद्ध महापुरुष निराश्रय अर्थात् संसार के आश्रय से सर्वथा रहित होता है इसलिये उसे स्वतःसिद्ध नित्यतृप्ति का अनुभव हो जाता है। कर्मयोग से सिद्ध महापुरुष के द्वारा होने वाले सब कर्म साङ्गोपाङ्ग रीति से होते हैं क्योंकि कर्मफल में उसकी किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति नहीं होती। उसके सम्पूर्ण कर्म केवल संसार के हित के लिये होते हैं। जिसकी कर्मफल में आसक्ति होती है वह साङ्गोपाङ्ग रीति से कर्म नहीं कर सकता क्योंकि फल के साथ सम्बन्ध होने से कर्म करते हुए बीच-बीच में फल का चिन्तन होने से उसकी शक्ति व्यर्थ खर्च हो जाती है जिससे उसकी शक्ति पूरी तरह कर्म करने में नहीं लगती। साङ्गोपाङ्ग रीति से सब कर्म करते हुए भी वह वास्तव में किञ्चिन्मात्र भी कोई कर्म नहीं करता क्योंकि सर्वथा निर्लिप्त होने के कारण कर्म का स्पर्श ही नहीं होता। उसके सब कर्म अकर्म हो जाते हैं। जब वह कुछ भी नहीं करता तब वह कर्मफल से बँध ही कैसे सकता है ? इसीलिये भगवान ने कहा है कि कर्मफल का त्याग करने वाले कर्मयोगी को कर्मों का फल कहीं भी नहीं मिलता । प्रकृति निरन्तर क्रियाशील है। अतः जब तक प्रकृति के गुणों (क्रिया और पदार्थ) से सम्बन्ध है तब तक कर्म न करते हुए भी मनुष्य का कर्मों के साथ सम्बन्ध हो जाता है। प्रकृति के गुणों से सम्बन्ध न रहने पर मनुष्य कर्म करते हुए भी कुछ नहीं करता। कर्मयोग से सिद्ध महापुरुष का प्रकृतिजन्य गुणों से कोई सम्बन्ध नहीं रहता इसलिये वह लोकहितार्थ सब कर्म करते हुए भी वास्तव में कुछ नहीं करता – स्वामी रामसुखदास जी )