Bhagavat Gita in hindi chapter 4

 

 

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ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार

01-15 योग परंपरा, भगवान के जन्म कर्म की दिव्यता, भक्त लक्षणभगवत्स्वरूप

 

 

Bhagavat Gita in hindi chapter 4

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌ ।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥4.8

 

परित्रणायरक्षा के लिए; साधूनाम्भक्तों का; विनाशायसंहार के लिए; और; दुष्कृताम्दुष्टों के; धर्मशाश्वत धर्म; संस्थापन अर्थायपुनः मर्यादा स्थापित करने के लिए; सम्भवामिप्रकट होता हूँ; युगे युगेप्रत्येक युग में।

 

साधु पुरुषों अर्थात भक्तों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों या दुष्टों का विनाश करने के लिए और धर्म की मर्यादा की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं प्रत्येक युग में प्रकट हुआ करता हूँ॥4.8

 

( साधु मनुष्यों के द्वारा ही अधर्म का नाश और धर्म का प्रचार होता है , इसलिये उनकी रक्षा करने के लिये भगवान् अवतार लेते हैं।दूसरों का हित करना ही जिनका स्वभाव है और जो भगवान् के नाम , रूप , गुण , प्रभाव , लीला आदि का श्रद्धा और प्रेमपूर्वक स्मरण , कीर्तन आदि करते हैं और लोगों में भी इसका प्रचार करते हैं ऐसे भगवान् के आश्रित भक्तों के लिये यहाँ साधूनाम् पद आया है। जिसका एकमात्र परमात्मप्राप्ति का उद्देश्य है वह साधु है और जिसका नाशवान् संसार का उद्देश्य है वह असाधु है।असत् और परिवर्तनशील वस्तु में सद्भाव करने और उसे महत्त्व देने से कामनाएँ पैदा होती है। ज्यों-ज्यों कामनाएँ नष्ट होती हैं त्यों-त्यों साधुता आती है और ज्यों-ज्यों कामनाएँ बढ़ती हैं त्यों-त्यों साधुता लुप्त होती है। कारण कि असाधुता का मूल हेतु कामना ही है। साधुता से अपना उद्धार और लोगों का स्वतः उपकार होता है। साधु पुरुष के भावों और क्रियाओं में पशु , पक्षी , वृक्ष , पर्वत , मनुष्य , देवता , पितर , ऋषि  , मुनि आदि सब का हित भरा रहता है । यदि लोग उसके मन के भावों को जान जायँ तो वे उसके चरणों के दास बन जायँ। इसके विपरीत यदि लोग दुष्ट पुरुष के मन के भावों को जान जायँ तो दिन में कई बार लोगों से उसकी पिटाई हो। यहाँ शङ्का हो सकती है कि यदि भगवान् साधु पुरुषों की रक्षा किया करते हैं तो फिर संसार में साधु पुरुष दुःख पाते हुए क्यों देखे जाते हैं ? इसका समाधान यह है कि साधु पुरुषों की रक्षा का तात्पर्य उनके भावों की रक्षा है । शरीर , धन-सम्पत्ति , मान-बड़ाई आदि की रक्षा नहीं । कारण कि वे इन सांसारिक पदार्थों  को महत्त्व नहीं देते। भगवान् भी इन वस्तुओंको महत्त्व नहीं देते क्योंकि सांसारिक पदार्थों को महत्त्व देने से ही असाधुता पैदा होती है। भक्तों में सांसारिक पदार्थों का महत्त्व उद्देश्य होता ही नहीं तभी तो वे भक्त हैं। भक्त लोग प्रतिकूलता (दुःखदायी परिस्थिति) में विशेष प्रसन्न होते हैं क्योंकि प्रतिकूलता से जितना आध्यात्मिक लाभ होता है उतना किसी दूसरे साधन से नहीं होता। वास्तव में भक्ति भी प्रतिकूलता में ही बढ़ती है। सांसारिक राग , आसक्ति से ही पतन होता है और प्रतिकूलता से वह राग टूटता है। इसलिये भगवान् का भक्तों के लिये प्रतिकूलता भेजना भी वास्तव में भक्तों की रक्षा करना है। दुष्ट मनुष्य अधर्म का प्रचार और धर्म का नाश करते हैं इसलिये उनका विनाश करने के लिये भगवान् अवतार लेते हैं। जो मनुष्य कामना के अत्यधिक बढ़ने के कारण झूठ , कपट, छल , बेईमानी आदि दुर्गुण-दुराचारों में लगे हुए हैं ; जो निरपराध सद्गुण सदाचारी साधुओं पर अत्याचार किया करते हैं ; जो दूसरों का अहित करने में ही लगे रहते हैं जो प्रवृत्ति और निवृत्ति को नहीं जानते ; भगवान् और वेदशास्त्रों का विरोध करना ही जिनका स्वभाव हो गया है ऐसे आसुरी सम्पत्ति में अधिक रचे-पचे रहकर वैसा ही बुरा आचरण करने वाले मनुष्यों के लिये यहाँ दुष्कृताम् पद आया है। भगवान् अवतार लेकर ऐसे ही दुष्ट मनुष्यों का विनाश करते हैं। शङ्का – भगवान् तो सब प्राणियों में सम हैं और उनका कोई वैरी नहीं है (समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्यः गीता 9। 29) फिर वे दुष्टों का विनाश क्यों करते हैं ? समाधान – सम्पूर्ण प्राणियों के परम सुहृद् होने से भगवान् का कोई वैरी नहीं है परन्तु जो मनुष्य भक्तों का अपराध करता है वह भगवान् का वैरी होता है । (सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ। निज अपराध रिसाहिं न काऊ।।जो अपराधु भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई।।(मानस 2। 218। 2 3) भगवान् का एक नाम भक्त-भक्तिमान् (श्रीमद्भा0 10। 86। 59) है। अतः भक्तों को कष्ट देने वाले दुष्टों का विनाश भगवान् स्वयं करते हैं। पाप का विनाश भक्त करते हैं और पापी का विनाश भगवान् करते हैं। साधुओं का परित्राण करने में भगवान् की जितनी कृपा है उतनी ही कृपा दुष्टों का विनाश करनेमें भी है । विनाश करके भगवान् उन्हें शुद्ध और पवित्र बनाते हैं। सन्त-महात्मा धर्म की स्थापना तो करते हैं पर दुष्टों के विनाश का कार्य वे नहीं करते। दुष्टों का विनाश करने का कार्य भगवान् अपने हाथ में रखते हैं – जैसे साधारण मलहम-पट्टी करने का काम तो कंपाउंडर करता है पर बड़ा ऑपरेशन करने का काम सिविल सर्जन खुद करता है दूसरा नहीं। माता और पिता दोनों समान रूपसे बालक का हित चाहते हैं। बालक पढ़ाई नहीं करता , उद्दण्डता करता है तो उसको माता भी समझाती है और पिता भी समझाते हैं। बालक अपनी उद्दण्डता न छो़ड़े तो पिता उसे मारते-पीटते हैं परन्तु बालक जब घबरा जाता है तब माता पिता को मारने-पीटने से रोकती है। यद्यपि माता पतिव्रता है , पति का अनुसरण करना उसका धर्म है तथापि इसका यह अर्थ यह नहीं कि पति बालक को मारे तो वह भी साथ में मारने लग जाय। यदि वह ऐसा करे तो बालक बेचारा कहाँ जायगा ? बालक की रक्षा करने में उसका पातिव्रतधर्म नष्ट नहीं होता। कारण कि वास्तव में पिता भी बालक को मारना-पीटना नहीं चाहते बल्कि उसके दुर्गुण-दुराचारों को दूर करना चाहते हैं। इसी तरह भगवान् पिता के समान हैं और उनके भक्त माता के समान। भगवान् और सन्त-महात्मा मनुष्यों को समझाते हैं। फिर भी मनुष्य अपनी दुष्टता न छोड़े तो उनका विनाश करने के लिये भगवान् को अवतार लेकर खुद आना पड़ता है। अगर वे अपनी दुष्टता छोड़ दें तो उन्हें मारने की आवश्यकता ही न रहे।निर्गुण ब्रह्म प्रकृति , माया , अज्ञान आदि का विरोधी नहीं है बल्कि उनको सत्ता-स्फूर्ति देने वाला तथा उनका पोषक है। तात्पर्य यह कि प्रकृति , माया आदि में जो कुछ सामर्थ्य है वह सब उस निर्गुण ब्रह्म की ही है। इसी तरह सगुण भगवान् भी किसी जीव के साथ द्वेष वैर या विरोध नहीं रखते बल्कि समान रीति से सबको सामर्थ्य देते हैं उनका पोषण करते हैं। इतना ही नहीं भगवान् की रची हुई पृथ्वी भी रहने के लिये सबको बराबर स्थान देती है। उसका यह पक्षपात नहीं है कि महात्मा को तो विशेष स्थान दे पर दुष्ट को स्थान न दे। ऐसे ही अन्न सबकी भूख बराबर मिटाता है , जल सबकी प्यास समान रूप से मिटाता है , वायु सबको प्राणवायु एक सी देती है , सूर्य सबको प्रकाश एक सा देता है आदि। यदि पृथ्वी , अन्न , जल आदि दुष्टों को स्थान , अन्न ,जल आदि देना बंद कर दें तो दुष्ट जी ही नहीं सकते। इस प्रकार जब भगवान् के विधान के अनुसार चलने वाले पृथ्वी , अन्न , जल , वायु , सूर्य आदि में भी इतनी उदारता और समता है तब इस विधान के विधायक (भगवान् ) में कितनी विलक्षण उदारता – समता होगी । वे तो उदारता के भण्डार ही हैं। यदि विधायक (भगवान्) और उनके विधान की ओर थोड़ा सा भी दृष्टिपात किया जाय तो मनुष्य गद्गद हो जाय और भगवान के चरणों में उसका प्रेम हो जाय। भगवान का दुष्ट पुरुषों से विरोध नहीं है बल्कि उनके दुष्कर्मों से विरोध है। कारण कि वे दुष्कर्म संसार  का तथा उन दुष्टोंका भी अहित करने वाले हैं। भगवान् सर्व-सुहृद् हैं अतः वे संसार का तथा उन दुष्टों का भी हित करने के लिये ही दुष्टों का विनाश करते हैं। उनके द्वारा जो दुष्ट मारे जाते हैं उनको भगवान् अपने ही धाम में भेज देते हैं , यह उनकी कितनी विलक्षण उदारता है। यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि अगर हम पापकर्म ही करते रहें तो क्या हमें भी मारने के लिये भगवान को आना पड़ेगा ; अगर ऐसी बात है तो भगवान् के द्वारा मरने से हमारा कल्याण हो ही जायगा फिर जिनमें संयम करना पड़ता है , ऐसे श्रमसाध्य सद्गुण-सदाचार का पालन क्यों करें ? इसका उत्तर यह है कि वास्तव में भगवान् उन्हीं पापियों को मारने के लिये आते हैं जो भगवान् के सिवाय दूसरे किसी से मर ही नहीं सकते। दूसरी बात शुभकर्मों में जितना लगेंगे उतना तो पुण्य हो ही जायगा पर अशुभकर्मों में लगे रहने से यदि बीच में ही मर जायँगे अथवा कोई दूसरा मार देगा तो मुश्किल हो जायगी । भगवान् के हाथों मरकर मुक्ति पाने की लालसा कैसे पूरी होगी ? इसलिये अशुभ कर्म करने ही नहीं चाहिये।निष्कामभाव का उपदेश ,आदेश और प्रचार ही धर्म की स्थापना है। कारण कि निष्कामभाव की कमी से और असत् वस्तु को सत्ता देकर उसे महत्त्व देने से ही अधर्म बढ़ता है जिससे मनुष्य दुष्ट स्वभाव वाले हो जाते हैं। इसलिये भगवान् अवतार लेकर आचरण के द्वारा निष्कामभाव का प्रचार करते हैं। निष्कामभाव के प्रचार से धर्म की स्थापना स्वतः हो जाती है। धर्म का आश्रय भगवान् हैं , इसलिये शाश्वत धर्म की संस्थापना करने के लिये भगवान् अवतार लेते हैं। संस्थापना करने का अर्थ है सम्यक् स्थापना करना। तात्पर्य है कि धर्म का कभी नाश नहीं होता केवल ह्रास होता है। धर्म का ह्रास होने पर भगवान् पुनः उसकी अच्छी तरह स्थापना करते हैं । आवश्यकता पड़ने पर भगवान् प्रत्येक युग में अवतार लेते हैं। एक युग में भी जितनी बार जरूरत पड़ती है उतनी बार भगवान् अवतार लेते हैं। कारक पुरुष और सन्त-महात्माओं के रूप में भी भगवान् का अवतार हुआ करता है। भगवान् और कारक पुरुष का अवतार तो नैमित्तिक है पर सन्त-महात्माओं का अवतार नित्य माना गया है। यहाँ शङ्का होती है कि भगवान् तो सर्वसमर्थ हैं फिर संतों की रक्षा करना , दुष्टों का विनाश करना और धर्म की स्थापना करना , ये काम क्या वे अवतार लिये बिना नहीं कर सकते । इसका समाधान यह है कि भगवान् अवतार लिये बिना ये काम नहीं कर सकते ऐसी बात नहीं है। यद्यपि भगवान् अवतार लिये बिना अनायास ही यह सब कुछ कर सकते हैं और करते भी रहते हैं तथापि जीवों पर विशेष कृपा करके उनका कुछ और हित करने के लिये भगवान् स्वयं अवतीर्ण होते हैं । अवतार काल में भगवान् के दर्शन , स्पर्श , वार्तालाप आदि से भविष्य में उनकी दिव्य लीलाओं के श्रवण , चिन्तन और ध्यान से तथा उनके उपदेशों के अनुसार आचरण करने से लोगों का सहज ही उद्धार हो जाता है। इस प्रकार लोगों का सदा उद्धार होता ही रहे ऐसी एक रीति भगवान् अवतार लेकर ही चलाते हैं। भगवान् के कई ऐसे प्रेमी भक्त होते हैं जो भगवान् के साथ खेलना चाहते हैं, उनके साथ रहना चाहते हैं। उनकी इच्छा पूरी करने के लिये भी भगवान् अवतार लेते हैं और उनके सामने आकर उनके समान बनकर खेलते हैं। जिस युग में जितना कार्य आवश्यक होता है भगवान् उसी के अनुसार अवतार लेकर उस कार्य को पूरा करते हैं। इसलिये भगवान् के अवतारों में तो भेद होता है पर स्वयं भगवान् में कोई भेद नहीं होता। भगवान् सभी अवतारों में पूर्ण हैं और पूर्ण ही रहते हैं। भगवान् के लिये न तो कोई कर्तव्य है और न उन्हें कुछ पाना ही शेष है (गीता 3। 22) फिर भी वे समय-समय पर अवतार लेकर केवल संसार का हित करने के लिये सब कर्म करते हैं। इसलिये मनुष्य को भी केवल दूसरों के हित के लिये ही कर्तव्य-कर्म करने चाहिये। चौथे श्लोक में  आये अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने मनुष्यों के जन्म और अपने जन्म (अवतार) में तीन बड़े अन्तर बताये हैं (1) जानने में अन्तर – मनुष्यों के और भगवान के बहुत से जन्म हो चुके हैं। उन सब जन्मों को मनुष्य तो नहीं जानते पर भगवान् जानते हैं । (2) जन्म में अन्तर – मनुष्य प्रकृति के परवश होकर अपने किये हुए पाप-पुण्यों का फल भोगने के लिये और फलभोगपूर्वक परमात्मा की प्राप्ति करने के लिये जन्म लेता है पर भगवान् अपनी प्रकृति को अधीन करके स्वाधीनतापूर्वक अपनी योगमाया से स्वयं प्रकट होते हैं । (3) कार्य में अन्तर – साधारणतः मनुष्य अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिये कार्य करते हैं जो कि मनुष्य-जन्म का ध्येय नहीं है पर भगवान् केवल मात्र जीवों के कल्याण के लिये कार्य करते हैं । चौथे श्लोक में आये अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में भगवान ने अपने जन्म  की दिव्यताका वर्णन आरम्भ किया था। अब अपनी ओर से निष्कामकर्म (कर्मयोग) का तत्त्व बताने के उद्देश्य से , अपने जन्म की दिव्यता के साथ-साथ अपने कर्म की दिव्यता को जानने का भी माहात्म्य बताते हैं- स्वामी रामसुखदास जी )

 

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