ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार
34-42 ज्ञान की महिमा तथा अर्जुन को कर्म करने की प्रेरणा
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥ 4.36 ॥4
अपि–भी; चेत्–यदि; असि–तुम हो; पापेभ्यः–पापी; सर्वेभ्यः–समस्त; पापकृततमः–महापापी; सर्वम्–ऐसे समस्त कर्म; ज्ञानप्लवेन-दिव्यज्ञान की नौका द्वारा; एव–निश्चय ही; वृजिनम्–पाप के समुद्र से; सन्तरिष्यसि–तुम पार कर जाओगे।
यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला ( महापापी ) भी है, तो भी तू दिव्य ज्ञान रूप नौका द्वारा निःसंदेह सम्पूर्ण संसार रुपी पाप–समुद्र को भली भाँति पार कर जायेगा अर्थात जिन्हें समस्त पापों का महापापी समझा जाता है, वे भी दिव्यज्ञान की नौका में बैठकर संसार रूपी सागर को पार करने में समर्थ हो सकते हैं।॥4.36॥
( पाप करने वालों की तीन श्रेणियाँ होती हैं (1) पापकृत् अर्थात् पाप करनेवाला (2) पापकृत्तर अर्थात् दो पापियों में एक से अधिक पाप करनेवाला और (3) पापकृत्तम अर्थात् सम्पूर्ण पापियों में सबसे अधिक पाप करनेवाला। यहाँ पापकृत्तमः पद का प्रयोग करके भगवान् कहते हैं कि अगर तू सम्पूर्ण पापियों में भी अत्यन्त पाप करने वाला है तो भी तत्त्वज्ञान से तू सम्पूर्ण पापों से तर सकता है। भगवान का यह कथन बहुत आश्वासन देनेवाला है। तात्पर्य यह है कि जो पापों का त्याग करके साधन में लगा हुआ है उसका तो कहना ही क्या है पर जिसने पहले बहुत पाप किये हों उसको भी जिज्ञासा जाग्रत् होने के बाद अपने उद्धार के विषय में कभी निराश नहीं होना चाहिये। कारण कि पापी से पापी मनुष्य भी यदि चाहे तो इसी जन्म में अभी अपना कल्याण कर सकता है। पुराने पाप उतने बाधक नहीं होते जितने वर्तमान के पाप बाधक होते हैं। अगर मनुष्य वर्तमान में पाप करना छोड़ दे और निश्चय कर ले कि अब मैं कभी पाप नहीं करूँगा और केवल तत्त्वज्ञान को प्राप्त करूँगा तो उसके पापों का नाश होते देरी नहीं लगती। यदि कहीं सौ वर्षों से घना अँधेरा छाया हो और वहाँ दीपक जला दिया जाय तो उस अँधेरे को दूर करके प्रकाश करने में दीपक को सौ वर्ष नहीं लगते बल्कि दीपक जलाते ही तत्काल अँधेरा मिट जाता है। इसी तरह तत्त्वज्ञान होते ही पहले किये गये सम्पूर्ण पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं। प्रायः ऐसे पापी मनुष्य परमात्मा में नहीं लगते परन्तु वे परमात्मा में लग नहीं सकते ऐसी बात नहीं है। किसी महापुरुष के सङ्गसे अथवा किसी घटना , परिस्थिति , वातावरण आदि के प्रभाव से यदि उनका ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाय कि अब परमात्म तत्त्व का ज्ञान प्राप्त करना ही है तो वे भी सम्पूर्ण पापसमुद्र से भली-भाँति तर जाते हैं। भगवान् ऐसी ही बात अनन्यभाव से अपना भजन करने वाले के लिये कही है कि महान दुराचारी मनुष्य भी अगर यह निश्चय कर ले कि अब मैं भगवान का भजन ही करूँगा तो उसका भी बहुत जल्दी कल्याण हो जाता है। प्रकृति के कार्य शरीर और संसार के सम्बन्ध से ही सम्पूर्ण पाप होते हैं। तत्त्वज्ञान होने पर जब इनसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है तब पाप कैसे रह सकते हैं? परमात्मा के स्वतःसिद्ध ज्ञान के साथ एक होना ही ज्ञानप्लव अर्थात् ज्ञानरूप नौका का प्राप्त होना है। मनुष्य कितना ही पापी क्यों न रहा हो ज्ञानरूप नौका से वह सम्पूर्ण पापसमुद्र से अच्छी तरह तर जाता है। यह ज्ञानरूप नौका कभी टूटती – फूटती नहीं , इसमें कभी छिद्र नहीं होता और यह कभी डूबती भी नहीं। यह मनुष्य को पापसमुद्र से पार करा देती है। ज्ञानयज्ञ से ही यह ज्ञानरूप नौका प्राप्त होती है। यह ज्ञानयज्ञ आरम्भ से ही विवेक को लेकर चलता है और तत्त्वज्ञान में इसकी पूर्णता हो जाती है। पूर्णता होने पर लेशमात्र भी पाप नहीं रहता – स्वामी रामसुखदास जी )