ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार
24-33 फलसहित विभिन्न यज्ञों का वर्णन
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥4.26॥
श्रोत्र–आदीनि–श्रवणादि क्रियाएँ; इन्द्रियाणि–इन्द्रियाँ; अन्ये–अन्य; संयम–नियंत्रण रखना; अग्निषु–यज्ञ की अग्नि में; जुह्वति–अर्पित करना; शब्द आदीन्–ध्वनि ; विषयान्–इन्द्रिय तृप्ति के विषय; अन्ये–दूसरे; इन्द्रिय–इन्द्रियों की; अग्निषु–अग्नि में; जुह्वति–अर्पित करते हैं।
कुछ योगीजन श्रवणादि क्रियाओं और अन्य इन्द्रियों को संयमरूपी यज्ञ की अग्नि में स्वाहा ( अर्पित ) कर देते हैं जबकि कुछ अन्य शब्दादि ध्वनि क्रियाओं और इन्द्रिय तृप्ति के अन्य विषयों को इन्द्रियों के अग्निरूपी यज्ञ में भेंट चढ़ा देते हैं॥4.26॥
( यहाँ संयमरूप अग्नियों में इन्द्रियों की आहुति देने को यज्ञ कहा गया है। तात्पर्य यह है कि एकान्त काल में श्रोत्र , त्वचा , नेत्र , रसना और घ्राण अर्थात कान , त्वचा , आँखें , जीभ , नासिका ये पाँचों इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों ( क्रमशः शब्द , स्पर्श , रूप , रस और गन्ध ) की ओर बिलकुल प्रवृत्त न हों। इन्द्रियाँ संयमरूप ही बन जायँ। पूरा संयम तभी समझना चाहिये जब इन्द्रियों , मन , बुद्धि तथा अहम् इन सबमें से राग और आसक्ति का सर्वथा अभाव हो जाय । शब्द , स्पर्श , रूप , रस और गन्ध ये पाँच विषय हैं। विषयों का इन्द्रियरूप अग्नियों में हवन करने से वह यज्ञ हो जाता है अर्थात व्यवहार काल में विषयों का इन्द्रियों से संयोग होते रहने पर भी इन्द्रियों में कोई विकार उत्पन्न न हो । इन्द्रियाँ रागद्वेष से रहित हो जाएँ । इन्द्रियों में राग-द्वेष उत्पन्न करने की शक्ति विषयों में रहे ही नहीं। दोनों प्रकार के यज्ञों में राग-आसक्ति का सर्वथा अभाव होने पर ही सिद्धि ( परमात्म प्राप्ति ) होती है। राग और आसक्ति को मिटाने के लिये ही दो प्रकार की प्रक्रिया का यज्ञरूप से वर्णन किया गया है । पहली प्रक्रिया में साधक एकान्त काल में इन्द्रियों का संयम करता है। विवेक , विचार , जप , ध्यान आदि से इन्द्रियों का संयम होने लगता है। पूरा संयम होने पर जब राग का अभाव हो जाता है तब एकान्त काल और व्यवहार काल दोनों में उसकी समान स्थिति रहती है। दूसरी प्रक्रिया में साधक व्यवहार काल में राग-द्वेष रहित तथा इन्द्रियों से व्यवहार करते हुए मन , बुद्धि और अहं से भी राग-द्वेष का अभाव कर देता है। राग का अभाव होने पर व्यवहारकाल और एकान्तकाल दोनों में उसकी समान स्थिति रहती है – स्वामी रामसुखदास जी )