Bhagavat Gita in hindi chapter 4

 

 

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ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार

34-42 ज्ञान की महिमा तथा अर्जुन को कर्म करने की प्रेरणा

 

 

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 4

 

योगसन्नयस्तकर्माणं ज्ञानसञ्न्निसंशयम्‌ ।

आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ॥4.41

 

योगसंन्यस्तकर्माणमवे जो कर्म काण्डों का त्याग कर देते हैं और अपने मन, शरीर और आत्मा को भगवान के प्रति समर्पित कर देते हैं; ज्ञानज्ञान से; सञिछन्नदूर कर देते हैं; संशयम्सन्देह को; आत्मवन्तम्आत्मज्ञान में स्थित होकर; कभी नहीं; कर्माणिकर्म; निबध्नन्तिबाँधते हैं; धनन्जयधन और वैभव का स्वामी, अर्जुन।

 

हे धनंजय! वे जो समस्त कर्म काण्डों का त्याग कर देते हैं अर्थात जिन्होंने योग की अग्नि में कर्मों को विनष्ट कर दिया है तथा अपने मन, शरीर और आत्मा को भगवान के प्रति समर्पित कर देते हैं और ज्ञान तथा विवेक द्वारा जिनके समस्त संशय दूर या नष्ट हो चुके हैं वे वास्तव में आत्मज्ञान में स्थित हो जाते हैं अर्थात ऐसे वश में किए हुए अन्तःकरण वाले पुरुष को कर्म नहीं बाँधते॥4.41

 

( शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि जो वस्तुएँ हमें मिली हैं और हमारी दिखती हैं वे सब दूसरों की सेवा के लिये ही हैं । अपना अधिकार जमाने के लिये नहीं। इस दृष्टि से जब उन वस्तुओं को दूसरों की सेवा में (उनका ही मानकर) लगा दिया जाता है तब कर्मों और वस्तुओं का प्रवाह संसार की ओर ही हो जाता है और अपने में स्वतःसिद्ध समता का अनुभव हो जाता है। इस प्रकार योग (समता) के द्वारा जिसने कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया है वह पुरुष योगसंन्यस्तकर्मा है। जब कर्मयोगी कर्म में अकर्म तथा अकर्म में कर्म देखता है अर्थात् कर्म करते हुए अथवा न करते हुए दोनों अवस्थाओं में नित्य-निरन्तर असङ्ग रहता है तब वही वास्तव में योगसंन्यस्तकर्मा होता है। मनुष्य के भीतर प्रायः ये संशय रहते हैं कि कर्म करते हुए ही कर्मों से अपना सम्बन्ध-विच्छेद कैसे होगा । अपने लिये कुछ न करें तो अपना कल्याण कैसे होगा आदि परन्तु जब वह कर्मों के तत्त्व को अच्छी तरह जान लेता है तब उसके समस्त संशय मिट जाते हैं। उसे इस बात का स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि कर्मों और उनके फलों का आदि और अन्त होता है पर स्वरूप सदा ज्यों का त्यों रहता है। इसलिये कर्ममात्र का सम्बन्ध पर (संसार) के साथ है , स्व (स्वरूप ) के साथ बिलकुल नहीं। इस दृष्टि से अपने लिये कर्म करने से कर्मों के साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है और निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरों के लिये कर्म करने से कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। इससे सिद्ध होता है कि अपना कल्याण दूसरों के लिये कर्म करने से ही होता है अपने लिये कर्म करने से नहीं। कर्मयोगी का उद्देश्य स्वरूपबोध को प्राप्त करने का होता है इसलिये वह सदा स्वरूप के परायण रहता है। उसके सम्पूर्ण कर्म संसार के लिये ही होते हैं। सेवा तो स्वरूप से ही दूसरों के लिये होती है । खाना-पीना , सोना-बैठना आदि जीवन निर्वाह की सम्पूर्ण क्रियाएँ भी दूसरों के लिये ही होती हैं क्योंकि क्रियामात्र का सम्बन्ध संसार के साथ है स्वरूप के साथ नहीं। अपने लिये कोई भी कर्म न करने से कर्मयोगी का सम्पूर्ण कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है अर्थात् वह सदा के लिये संसारबन्धन से सर्वथा मुक्त हो जाता है । कर्म स्वरूप से बन्धनकारक हैं ही नहीं। कर्मों में फल की इच्छा , ममता , आसक्ति और कर्तृत्वाभिमान ( कर्तापन का अभिमान ) ही बाँधने वाला है। इस प्रकार भगवान ने बताया कि ज्ञान के द्वारा संशय का नाश होता है और समता के द्वारा कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद होता है। अब आगे के श्लोक में भगवान् ज्ञान के द्वारा अपने संशयका नाश करके समता में स्थित होने के लिये अर्जुन को आज्ञा देते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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