ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार
34-42 ज्ञान की महिमा तथा अर्जुन को कर्म करने की प्रेरणा
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥4.38
न–नहीं; हि–निश्चय ही, निःसंदेह ; ज्ञानेन–दिव्य ज्ञान के साथ; सदृशम्- समान; पवित्रम्–शुद्ध; इह–इस संसार में; विद्यते- विद्यमान है; तत्–उस; स्वयम्–अपने आप; योग–योग के अभ्यास में; संसिद्धः–जो पूर्णता प्राप्त कर लेता है; कालेन –यथासमय; आत्मनि–अपने अन्तर में; विन्दति–पाता है।
इस संसार में निश्चित रूप से दिव्यज्ञान के समान शुद्ध और पवित्र करने वाला कुछ भी नहीं है। जो मनुष्य दीर्घकालीन योग के अभ्यास द्वारा अन्तः करण ( मन ) को शुद्ध कर लेता है वह उचित समय पर अपने अंतरहृदय ( आत्मा ) में अपने आप ही इस ज्ञान का आस्वादन करता है और पूर्णता प्राप्त कर लेता है ॥4.38॥
( इह पद मनुष्य लोक का वाचक है क्योंकि सबकी सब पवित्रता इस मनुष्य लोक में ही प्राप्त की जाती है। पवित्रता प्राप्त करने का अधिकार और अवसर मनुष्य शरीर में ही है। ऐसा अधिकार किसी अन्य शरीर में नहीं है। अलग-अलग लोकों के अधिकार भी मनुष्यलोक से ही मिलते हैं। संसार की स्वतन्त्र सत्ता को मानने से तथा उससे सुख लेने की इच्छा से ही सम्पूर्ण दोष और पाप उत्पन्न होते हैं । तत्त्वज्ञान होने पर जब संसार की स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं रहती तब सम्पूर्ण पापों का सर्वथा नाश हो जाता है और महान् पवित्रता आ जाती है। इसलिये संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला दूसरा कोई साधन है ही नहीं। संसार में यज्ञ , दान , तप , पूजा , व्रत उपवास , जप , ध्यान , प्राणायाम आदि जितने साधन हैं तथा गङ्गा , यमुना , गोदावरी आदि जितने तीर्थ हैं वे सभी मनुष्य के पापों का नाश करके उसे पवित्र करनेवाले हैं परन्तु उन सबमें भी तत्त्वज्ञान के समान पवित्र करने वाला कोई भी साधन , तीर्थ आदि नहीं है क्योंकि वे सब तत्त्वज्ञान के साधन हैं और तत्त्वज्ञान उन सबका साध्य है। परमात्मा पवित्रों को भी पवित्र करने वाले हैं -पवित्राणां पवित्रम् (विष्णुसहस्र0 10)। उन्हीं परम पवित्र परमात्मा का अनुभव कराने वाला होने से तत्त्वज्ञान भी अत्यन्त पवित्र है। जिसका कर्मयोग सिद्ध हो गया है अर्थात् कर्मयोग का अनुष्ठान साङ्गोपाङ्ग पूर्ण हो गया है उस महापुरुष को यहाँ योगसंसिद्धः कहा गया है । छठे अध्यायके चौथे श्लोक में उसी को योगारूढः कहा गया है। योगारूढ़ होना कर्मयोग की अन्तिम अवस्था है। योगारूढ़ होते ही तत्त्वबोध हो जाता है। तत्त्वबोध हो जाने पर संसार से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। कर्मयोग की मुख्य बात है अपना कुछ भी न मानकर सम्पूर्ण कर्म संसार के हित के लिये करना अपने लिये कुछ भी न करना। ऐसा करने पर सामग्री और क्रियाशक्ति दोनों का प्रवाह संसार की सेवा में हो जाता है। संसार की सेवा में प्रवाह होने पर मैं सेवक हूँ ऐसा (अहम का ) भाव भी नहीं रहता अर्थात् सेवक नहीं रहता केवल सेवा रह जाती है। इस प्रकार जब सेवक सेवा बनकर सेव्य में लीन हो जाता है तब प्रकृति के कार्य , शरीर तथा संसार से सर्वथा वियोग (सम्बन्ध-विच्छेद) हो जाता है। वियोग होने पर संसार की स्वतन्त्र सत्ता नहीं रह जाती केवल क्रिया रह जाती है। इसी को योग की संसिद्धि अर्थात् सम्यक् सिद्धि कहते हैं। कर्म और फल की आसक्ति से ही योग का अनुभव नहीं होता। वास्तव में कर्मों और पदार्थों से सम्बन्ध-विच्छेद स्वतःसिद्ध है। कारण कि कर्म और पदार्थ तो अनित्य (आदि-अन्त वाले) हैं और अपना स्वरूप नित्य है। अनित्य कर्मों से नित्य स्वरूप को क्या मिल सकता है ? इसलिये स्वरूप को कर्मों के द्वारा कुछ नहीं पाना है यह कर्मविज्ञान है। कर्मविज्ञान का अनुभव होने पर कर्मफल से भी सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है अर्थात् कर्मजन्य सुख लेने की आसक्ति सर्वथा मिट जाती है जिसके मिटते ही परमात्मा के साथ अपने स्वाभाविक नित्य-सम्बन्ध का अनुभव हो जाता है जो योगविज्ञान है। योग विज्ञान का अनुभव होना ही योग की संसिद्धि है। जिस तत्त्वज्ञान से सम्पूर्ण कर्म भस्म हो जाते हैं और जिसके समान पवित्र करने वाला संसार में दूसरा कोई साधन नहीं है उसी तत्त्वज्ञानको कर्मयोगी योगसंसिद्ध होने पर दूसरे किसी साधन के बिना स्वयं अपने आप में ही तत्काल प्राप्त कर लेता है। 34वें श्लोक में भगवान ने बताया था कि प्रचलित प्रणाली के अनुसार कर्मों का त्याग करके गुरु के पास जाने पर वे तत्त्वज्ञान का उपदेश देंगे किंतु गुरु तो उपदेश दे देंगे पर उससे तत्त्वज्ञान हो ही जायगा ऐसा निश्चित नहीं है। फिर भी भगवान् यहाँ बताते हैं कि कर्मयोग की प्रणाली से कर्म करने वाले मनुष्य को योगसंसिद्धि मिल जाने पर तत्त्वज्ञान हो ही जाता है। भगवान ने यह बताया है कि कर्मयोग से अवश्य ही तत्त्वज्ञान अथवा परमात्म तत्त्व का अनुभव हो जाता है । तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के लिये कर्मयोगी को किसी गुरु की , ग्रन्थ की या दूसरे किसी साधन की अपेक्षा नहीं है। कर्मयोग की विधि से कर्तव्य-कर्म करते हुए ही उसे अपने आप तत्त्वज्ञान प्राप्त हो जायगा। तत्त्वज्ञान को प्राप्त करने के लिये कर्मयोगी को किसी दूसरी जगह जाने की जरूरत नहीं है। कर्मयोग सिद्ध होने पर उसे अपने आप में ही स्वतः सिद्ध तत्त्वज्ञान का अनुभव हो जाता है।परमात्मा सब जगह परिपूर्ण होने से अपने में भी हैं। जहाँ साधक ‘ मैं हूँ रूप से ‘अपने आप को मानता है वहीं परमात्मा विराजमान हैं परन्तु परमात्मा से विमुख होकर संसार से अपना सम्बन्ध मान लेने के कारण अपने आप में स्थित परमात्मा का अनुभव नहीं होता। कर्मयोग का ठीक-ठीक अनुष्ठान करने से जब संसार से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है अर्थात् संसार से तादात्म्य , ममता और कामना मिट जाती है तब उसे अपने आप में ही तत्त्व का सुखपूर्वक अनुभव हो जाता है । परमात्म तत्त्व का ज्ञान करण निरपेक्ष है। इसलिये उसका अनुभव अपने आप से ही हो सकता है इन्द्रियों , मन , बुद्धि आदि करणों से नहीं। साधक किसी भी उपाय से तत्त्व को जानने का प्रयत्न क्यों न करे पर अन्त में वह अपने आप से ही तत्त्व को जानेगा। श्रवण-मनन आदि साधन तत्त्वज्ञान प्राप्त करने में असम्भावना और विपरीत भावना आदि ज्ञान की बाधाओं को दूर करने वाले परम्परागत साधन माने जा सकते हैं पर वास्तविक बोध अपने आप से ही होता है कारण कि मन , बुद्धि आदि सब जड हैं। जड के द्वारा उस चिन्मय तत्त्व को कैसे जाना जा सकता है ? जो जड से सर्वथा अतीत है । वास्तव में तत्त्व का अनुभव जड के सम्बन्ध-विच्छेद से होता है जड के द्वारा नहीं। जैसे आँखों से संसार को तो देखा जा सकता है पर आँखों से आँखों को नहीं देखा जा सकता परन्तु यह कहा जा सकता है कि जिससे देखते हैं वही आँख है। इसी प्रकार जो सबको जाननेवाला है उसे किसके द्वारा जाना जा सकता है परन्तु जिससे सम्पूर्ण वस्तुओं का ज्ञान होता है वही परमात्मतत्त्व है। भगवान ने ज्ञान की जो प्रशंसा की है उससे ज्ञानयोग की विशेष महिमा झलकती है परन्तु वास्तव में उसे ज्ञानयोग की ही महिमा मान लेना उचित प्रतीत नहीं होता। गहरा विचार करें तो इसमें अर्जुन के प्रति भगवान का एक गूढ़ अभिप्राय प्रतीत होता है कि जो तत्त्वज्ञान इतना महान् और पवित्र है तथा जिस ज्ञान को प्राप्त करने के लिये मैं तुझे तत्त्वदर्शी महापुरुष के पास जाने की आज्ञा दे रहा हूँ उस ज्ञान को तू स्वयं कर्मयोग के द्वारा अवश्य ही प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार ज्ञानयोग की प्रशंसा के ये श्लोक वास्तव में कर्मयोग की ही विशेषता महिमा बताने के लिये हैं। भगवान का अभिप्राय यह नहीं था कि अर्जुन ज्ञानियों के पास जाकर ज्ञान प्राप्त करे। भगवान का अभिप्राय यह था कि जो ज्ञान इतनी दुर्लभता से ज्ञानियों के पास रहकर , उनकी सेवा करके और विनयपूर्वक प्रश्नोत्तर करके तथा उसके अनुसार श्रवण -मनन और निदिध्यासन करके प्राप्त करेगा वही ज्ञान तुझे कर्मयोग की विधि से प्राप्त कर्तव्य ( युद्ध ) का पालन करने से ही प्राप्त हो जायगा। जिस तत्त्वज्ञान के लिये मैंने तत्त्वदर्शी महापुरुषों के पास जाने की प्रेरणा की है वह तत्त्वज्ञान प्राप्त हो ही जायगा यह निश्चित नहीं है क्योंकि जिस पुरुष के पास जाओगे वह तत्त्वदर्शी ही है इसका क्या पता और उस महापुरुष के प्रति श्रद्धा की कमी भी रह सकती है। दूसरी बात इस प्रक्रिया में पहले सम्पूर्ण प्राणियों को अपने में देखेगा और उसके बाद सम्पूर्ण प्राणियों को एक परमात्मतत्त्व में देखेगा। इस प्रकार ज्ञान प्राप्त करने की इस प्रक्रिया में संशय तथा विलम्ब की सम्भावना है परन्तु कर्मयोग के द्वारा अन्य पुरुष की अपेक्षा के बिना अवश्य ही और तत्काल उस तत्त्वज्ञान का अनुभव हो जाता है। इसलिये मैं तेरे लिये कर्मयोग को ही ठीक समझता हूँ अतः तुझे प्रचलित प्रणाली के ज्ञान का उपदेश मैं नहीं दूँगा। भगवान् तो महापुरुषों के भी महापुरुष हैं। अतः वे अर्जुन को किसी दूसरे महापुरुष के पास जाकर ज्ञान सीखने के लिये कैसे कह सकते हैं ? – स्वामी रामसुखदास जी )