ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार
34-42 ज्ञान की महिमा तथा अर्जुन को कर्म करने की प्रेरणा
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥4.39॥
श्रद्धावान्–श्रद्धायुक्त व्यक्ति; लभते–प्राप्त करता है; ज्ञानम्–दिव्य ज्ञान; तत् परः–उसमें समर्पित; संयत–नियंत्रित; इन्द्रियः–इन्द्रियाँ; ज्ञानम्–दिव्य ज्ञान; लब्धवा–प्राप्त करके; पराम्–दिव्य; शान्तिम्–शान्ति; अचिरेण–अविलम्ब; अधिगच्छति–प्राप्त करता है।
वे जिनकी श्रद्धा अगाध है और जिन्होंने अपने मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण कर लिया है अर्थात जो जितेन्द्रिय, साधनपरायण और श्रद्धावान मनुष्य हैं वे दिव्य ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। इस दिव्य ज्ञान के द्वारा वे शीघ्र ही कभी न समाप्त होने वाली भगवत्प्राप्तिरूप परम शांति को प्राप्त कर लेते हैं॥4.39॥
( इस श्लोक में श्रद्धावान् पुरुष को ज्ञान प्राप्त होने की बात आयीहै। अपने में श्रद्धा कम होने पर भी मनुष्य भूल से अपने को अधिक श्रद्धा वाला मान सकता है इसलिये भगवान ने श्रद्धा की पहचान के लिये दो विशेषण दिये हैं संयतेन्द्रियः और तत्परः। जिसकी इन्द्रियाँ पूर्णतया वश में हैं वह संयतेन्द्रियः है और जो अपने साधन में तत्परतापूर्वक लगा हुआ है वह तत्परः है। साधन में तत्परता की कसौटी है इन्द्रियों का संयत होना। अगर इन्द्रियाँ संयत नहीं हैं और विषय भोगों की तरफ जाती हैं तो साधनपरायणता में कमी समझनी चाहिये। परमात्मा में , महापुरुषों में , धर्म में और शास्त्रों में प्रत्यक्ष की तरह आदरपूर्वक विश्वास होना श्रद्धा कहलाती है। जब तक परमात्मतत्त्व का अनुभव न हो तब तक परमात्मा में प्रत्यक्ष से भी बढ़कर विश्वास होना चाहिये। वास्तव में परमात्मा से देश काल आदि की दूरी नहीं है केवल मानी हुई दूरी है। दूरी मानने के कारण ही परमात्मा सर्वत्र विद्यमान रहते हुए भी अनुभव में नहीं आ रहे हैं। इसलिये परमात्मा अपने में हैं ऐसा मान लेने का नाम ही श्रद्धा है। कैसा ही व्यक्ति क्यों न हो अगर वह एकमात्र परमात्मा को प्राप्त करना चाहता है और परमात्मा अपने में हैं ऐसी श्रद्धावाला है तो उसे अवश्य परमात्मतत्त्व का ज्ञान हो जाता है। संसार प्रतिक्षण ही जा रहा है एक क्षण भी टिकता नहीं। उसकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं। केवल परमात्मा की सत्ता से ही वह सत्तावान् दीख रहा है। इस तरह संसार की स्वतन्त्र सत्ता को न मानकर एक परमात्मा की सत्ता को ही मानना श्रद्धा है। ऐसी श्रद्धा होने पर तत्काल ज्ञान हो जाता है। जब तक इन्द्रियाँ संयत न हों और साधन में तत्परता न हो तब तक श्रद्धा में कमी समझनी चाहिये। यदि इन्द्रियाँ विषयों की तरफ जाती हैं तो साधन में तत्परता नहीं आती। साधन में तत्परता न होने से दूसरे की परायणता , दूसरे का आदर होता है। जब तक साधनपरायणता नहीं होती तब तक श्रद्धा भी पूरी नहीं होती। श्रद्धा पूरी न होने के कारण ही तत्त्व के अनुभव में देरी लगती है नहीं तो नित्यप्राप्त तत्त्व के अनुभव में देरी का कारण है ही नहीं। इसी अध्याय के 34वें श्लोक में भगवान ने गुरु के पास जाकर विधिपूर्वक ज्ञान प्राप्त करने की प्रणाली का वर्णन करते हुए तीन साधन बताये- प्रणिपात ( प्रणाम ) , परिप्रश्न और सेवा। यहाँ भगवान ने ज्ञान प्राप्त करने का एक साधन बताया है श्रद्धा। 34वें श्लोक में उपदेक्ष्यन्ति पद से गुरु के द्वारा केवल ज्ञान का उपदेश देने की बात आयी है । उपदेश से ज्ञान प्राप्त हो जायगा ऐसी बात वहाँ नहीं आयी परन्तु इस श्लोक में लभते पद से ज्ञान प्राप्त होनेकी बात आयी है। तात्पर्य यह है कि 34वें श्लोक में कहे साधनों से ज्ञान प्राप्त हो जायगा ऐसा निश्चित नहीं है परन्तु इस श्लोक में कहे साधन से निश्चित रूप से ज्ञान प्राप्त हो जाता है। कारण यह है कि 34वें श्लोक में कहे साधन बहिरङ्ग होने से, कपट भावसे तथा साधारण भाव से भी किये जा सकते हैं परन्तु इस श्लोक में कहा साधन अन्तरङ्ग होने से , कपटभाव से तथा साधारण भाव से नहीं किया जा सकता । इसलिये ज्ञान की प्राप्ति में श्रद्धा मुख्य है। ऐसा एक तत्त्व या बोध है जिसका अनुभव मेरे को हो सकता है और अभी हो सकता है यही वास्तव में श्रद्धा है। तत्त्व भी विद्यमान है , मैं भी विद्यमान हूँ और तत्त्व का अनुभव करना भी चाहता हूँ फिर देरी किस बात की । बड़े आश्चर्य की बात है कि जो नित्य-निरन्तर विद्यमान रहता है वह तो प्रिय नहीं लगता और जो निरन्तर ही बदल रहा है , जा रहा है वह संसार प्रिय लगता है । इसमें कारण यही है कि जिस संसार की एक क्षण भी स्थिति नहीं है जो निरन्तर ही अभाव में जा रहा है उसे हम स्थायी मान लेते हैं। स्थायी मानने के कारण ही उससे स्थायी सुख लेना चाहते हैं जो सर्वथा असम्भव है। सुख लेने के लिये हम संसार में अपनापन कर लेते हैं जो किसी भी काल में अपना नहीं है। अपनी वस्तु वही है जो हमसे कभी अलग नहीं होती और जिससे हम कभी अलग नहीं होते। यदि संसार अपना होता तो प्रत्येक परिस्थिति हमारे साथ रहती परन्तु न तो परिस्थिति हमारे साथ रहती है और न हम ही परिस्थिति के साथ रहते हैं। इसलिये वह अपनी है ही नहीं। जिन अन्तःकरण और इन्द्रियों से हम संसार को देखते हैं उन्हें भी हम भूल से अपनी मान लेते हैं परन्तु इन पर भी हमारा कोई अधिकार नहीं चलता। अन्तःकरण और इन्द्रियों सहित सम्पूर्ण संसार प्रलय की ओर जा रहा है। उसकी स्थिति है ही नहीं। संसार की प्रतीतिमात्र होती है इसलिये इसकी प्राप्ति कभी हो ही नहीं सकती। संसार अपने स्वरूप तक पहुँच ही नहीं सकता पर स्वरूप सब जगह सत्तारूप से विद्यमान रहता है। संसार का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है पर अपना अस्तित्व नित्य-निरन्तर रहता है। स्वरूप का अर्थात् अपने होनेपन का प्रत्यक्ष अनुभव होता है। स्वरूप अपरिवर्तनशील है। यदि वह परिवर्तनशील होता तो संसार के परिवर्तन को कौन देखता ? हमें जैसे संसार के निरन्तर परिवर्तन और अभाव का अनुभव होता है ऐसे अपने परिवर्तन और अभाव का अनुभव कभी नहीं होता। ऐसा होने पर भी परिवर्तनशील शरीर के साथ अपने को मिलाकर उसके परिवर्तन को भूल से अपना परिवर्तन मान लेते हैं। शरीर के साथ सम्बन्ध मानकर शरीर की अवस्था को अपनी अवस्था मान लेते हैं। विचार करें कि यदि शरीर की अवस्था के साथ हम एक होते तो अवस्था के चले जाने पर हम भी चले गये होते। इससे सिद्ध होता है कि जाने वाली अवस्था दूसरी है और हम दूसरे हैं। इस प्रकार के अपने नित्यसिद्ध स्वरूप का अनुभव होना ज्ञान है। दूसरी बात इस 39वें श्लोक में लभते पद आया है जिसका तात्पर्य है जिस वस्तु का निर्माण नहीं होता ऐसी नित्यसिद्ध वस्तु की प्राप्ति। जिस वस्तु का निर्माण होता है अर्थात् जो वस्तु पहले नहीं होती बल्कि बनायी जाती है उस वस्तु की प्राप्ति को लभते नहीं कह सकते। कारण कि जो वस्तु पहले नहीं थी तथा बादमें भी नहीं रहेगी ऐसी वस्तुकी प्रतीति तो होती है पर प्राप्ति नहीं होती। प्रतीत होनेवाली वस्तुको प्राप्त मान लेना अपने विवेकका सर्वथा अनादर है।जो संसारकी उत्पत्तिके पहले भी रहता है संसारकी (उत्पन्न होकर होनेवाली) स्थितिमें भी रहता है और संसारके नष्ट होनेके बाद भी रहता है वह तत्त्व है नामसे कहा जाता है और है की प्राप्तिको ही लभते कहते हैं। परन्तु जो वस्तु उत्पन्न होनेसे पहले भी नहीं थी और नष्ट होनेके बाद भी नहीं रहेगी तथा बीचमें भी निरन्तर नाशकी ओर जा रही है वह वस्तु नहीं नामसे कही जाती है। नहीं की प्रतीति होती है प्राप्ति नहीं। जो है वह तो है ही और जो नहीं है वह है ही नहीं। नहीं को नहीं रूप से मानते हुए और है को है रूप से मान लेना श्रद्धा है जिससे नित्यसिद्ध ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानम्।ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति नवें अध्याय के तीसरे श्लोक में भगवान ने निषेधमुख से कहा है कि श्रद्धारहित पुरुष मेरे को प्राप्त न होकर जन्म-मरण रूप संसारचक्र में घूमते रहते हैं। उसी बात को यहाँ विधि मुख से कहते हैं कि श्रद्धावान् पुरुष परमशान्ति को प्राप्त हो जाता है अर्थात् मेरे को प्राप्त होकर जन्म-मरण रूप संसारचक्र से छूट जाता है। परमशान्ति का तत्काल अनुभव न होने का कारण है जो वस्तु अपने आप में है उसको अपने आप में न ढूँढ़कर बाहर दूसरी जगह ढूँढ़ना। परमशान्ति प्राणिमात्र में स्वतःसिद्ध है परन्तु मनुष्य परमशान्तिस्वरूप परमात्मा से तो विमुख हो जाता है और सांसारिक वस्तुओं में शान्ति ढूँढ़ता है। इसलिये अनेक जन्मों तक शान्ति की खोज में भटकते रहने पर भी उसे शान्ति नहीं मिलती। उत्पत्ति शील और विनाशशील वस्तुओं में शान्ति मिल ही कैसे सकती है ? तत्त्वज्ञान का अनुभव होने पर जब दुःखरूप संसार से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है तब स्वतःसिद्ध परम शान्ति का तत्काल अनुभव हो जाता है – स्वामी रामसुखदास जी )