ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार
01-15 योग परंपरा, भगवान के जन्म कर्म की दिव्यता, भक्त लक्षणभगवत्स्वरूप
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्॥4.15॥
एवम्–इस प्रकार; ज्ञात्वा–जानकर; कृतम्–सम्पादन करना, पालन करना; कर्म–कर्म; पूर्वेः- प्राचीन काल का; अपि – वास्तव में; मुमक्षुभिः–मोक्ष का इच्छुक; कुरु–करना चाहिए; कर्म–कर्त्तव्य; एव–निश्चय ही; तस्मात्–अतः; त्वम्–तुम; पूर्वेः–प्राचीनकाल की मुक्त आत्माओं का; पूर्वतरम्–प्राचीन काल में; कृतम्–सम्पन्न किए।
इस प्रकार इस सत्य को जानकर प्राचीन काल में मुक्ति ( मोक्ष ) की अभिलाषा करने वाली आत्माओं ( मुमुक्षुओं ) ने भी कर्म किए इसलिए तुम्हें भी उन मनीषियों ( पूर्व काल की मुक्त आत्माओं ) के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए अपने कर्तव्य ( कर्म ) का पालन करना चाहिए॥4.15॥
( अर्जुन मुमुक्षु थे अर्थात् अपना कल्याण चाहते थे परन्तु युद्धरूप से प्राप्त अपने कर्तव्यकर्म को करने में उन्हें अपना कल्याण नहीं दिखता बल्कि वे उसको घोर कर्म समझकर उसका त्याग करना चाहते हैं इसलिये भगवान् अर्जुन को पूर्वकाल के मुमुक्षु पुरुषों का उदाहरण देते हैं कि उन्होंने भी अपने-अपने कर्तव्य-कर्मों का पालन करके कल्याण की प्राप्ति की है इसलिये तुम्हें भी उनकी तरह अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिये। तीसरे अध्याय के 20वें श्लोक में जनक आदि का उदाहरण देकर तथा इसी चौथे अध्याय के पहले – दूसरे श्लोकों में विवस्वान् , मनु , इक्ष्वाकु आदि का उदाहरण देकर भगवान् ने जो बातें कही थी वही बात इस श्लोक में भी कह रहे हैं। शास्त्रों में ऐसी प्रसिद्धि है कि मुमुक्षा जाग्रत् होने पर कर्मों का स्वरूप से त्याग कर देना चाहिये क्योंकि मुमुक्षा के बाद मनुष्य कर्म का अधिकारी नहीं होता बल्कि ज्ञान का अधिकारी हो जाता है परन्तु यहाँ भगवान् कहते हैं कि मुमुक्षुओं ने भी कर्मयोग का तत्त्व जानकर कर्म किये हैं। इसलिये मुमुक्षा जाग्रत् होने पर भी अपने कर्तव्य-कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिये बल्कि निष्कामभावपूर्वक कर्तव्य-कर्म करते रहना चाहिये। कर्मयोग का तत्त्व है कर्म करते हुए योग में स्थित रहना और योग में स्थित रहते हुए कर्म करना। कर्म संसार के लिये और योग अपने लिये होता है। कर्मों को करना और न करना दोनों अवस्थाएँ हैं। अतः प्रवृत्ति (कर्म करना) और निवृत्ति (कर्म न करना) दोनों ही प्रवृत्ति (कर्म करना) है। प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों से ऊँचा उठ जाना योग है जो पूर्ण निवृत्ति है। पूर्ण निवृत्ति कोई अवस्था नहीं है। 14वें श्लोक में भगवन ने कहा कि कर्मफल में मेरी इच्छा नहीं है इसलिये मुझे कर्म नहीं बाँधते। जो मनुष्य कर्म करने की इस विद्या (कर्मयोग) को जानकर फल कि इच्छा का त्याग करके कर्म करता है वह भी कर्मों से नहीं बँधता कारण कि फल की इच्छा से ही मनुष्य बँधता है। अगर मनुष्य अपने सुख भोग के लिये अथवा धन , मान – बड़ाई , स्वर्ग आदि की प्राप्ति के लिये कर्म करता है तो वे कर्म उसे बाँध देते हैं परन्तु यदि उसका लक्ष्य उत्पत्तिविनाशशील संसार नहीं है बल्कि वह संसार से सम्बन्ध – विच्छेद करने के लिये निःस्वार्थ सेवा-भाव से केवल दूसरों के हित के लिये कर्म करता है तो वे कर्म उसे बाँधते नहीं कारण कि दूसरों के लिये कर्म करने से कर्मों का प्रवाह संसार की तरफ हो जाता है जिससे कर्मों का सम्बन्ध (राग) मिट जाता है और फल की इच्छा न रहने से नया सम्बन्ध पैदा नहीं होता। भगवान् अर्जुन को आज्ञा दे रहे हैं कि तू मुमुक्षु है इसलिये जैसे पहले अन्य मुमुक्षुओं ने लोकहितार्थ अर्थात संसार के हित के लिए कर्म किये हैं , ऐसे ही तू भी संसार के हित के लिये कर्म कर। शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि कर्म की सब सामग्री अपने से भिन्न तथा संसार से अभिन्न है। वह संसार की है और संसार की सेवा के लिये ही मिली है। उसे अपनी मानकर अपने लिये कर्म करने से कर्मों का सम्बन्ध अपने साथ हो जाता है। जब सम्पूर्ण कर्म केवल दूसरों के हित के लिये किये जाते हैं तब कर्मों का सम्बन्ध हमारे साथ नहीं रहता। कर्मो से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होने पर योग अर्थात् परमात्मा के साथ हमारे नित्यसिद्ध सम्बन्ध का अनुभव हो जाता है जो कि पहले से ही है – स्वामी रामसुखदास जी )