ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार
01-15 योग परंपरा, भगवान के जन्म कर्म की दिव्यता, भक्त लक्षणभगवत्स्वरूप
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥4.6
अजः–अजन्मा; अपि–तथापि; सन्–होते हुए; अव्यय–आत्मा–अविनाशी प्रकृति का; भूतानाम्–सभी जीवों का; ईश्वरः–भगवान; अपि–यद्यपि; सन्–होने पर; प्रकृतिम्–दिव्य प्रकृति; स्वाम्–अपने; अधिष्ठाय–स्थित; सम्भवामि–मैं अवतार लेता हूँ या प्रकट होता हूँ ; आत्ममायया–अपनी योगमाया शक्ति से।
यद्यपि मैं अजन्मा और समस्त जीवों का स्वामी हूँ तथापि अविनाशीस्वरूप होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन कर के अपनी दिव्यशक्ति योगमाया से प्रकट होता हूँ या अवतार लेता हूँ ॥4.6॥
( प्रकृति और योगमाया ये दो बातें भगवान की शक्ति की हैं और एक बात भगवान के प्रकट होने की है। भगवान बताते हैं कि साधारण मनुष्यों की तरह न तो मेरा जन्म है और न मेरा मरण ही है। मनुष्य जन्म लेते हैं और मर जाते हैं परन्तु मैं अजन्मा होते हुए भी प्रकट हो जाता हूँ और अविनाशी होते हुए भी अन्तर्धान हो जाता हूँ। प्रकट होना और अन्तर्धान होना दोनों ही मेरी अलौकिक लीलाएँ हैं। सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट (अव्यक्त) थे और मरने के बाद भी अप्रकट (अव्यक्त) हो जाने वाले हैं केवल बीच में ही प्रकट (व्यक्त) हैं । परन्तु भगवान सूर्य के समान सदा ही प्रकट रहते हैं। जैसे सूर्य उदय होने से पहले भी ज्यों का त्यों रहता है और अस्त होने के बाद भी ज्यों का त्यों रहता है अर्थात् सूर्य तो सदा ही रहता है किन्तु स्थान विशेष के लोगों की दृष्टि में उसका उदय और अस्त होना दिखता है। ऐसे ही भगवान का प्रकट होना और अन्तर्धान होना लोगों की दृष्टि में है । वास्तव में भगवान सदा ही प्रकट रहते हैं। दूसरे प्राणी जैसे कर्मों के परतन्त्र होकर जन्म लेते हैं भगवान का जन्म वैसे नहीं होता। कर्मों की परतन्त्रता से जन्म होने पर दो बातें होती हैं आयु और सुख-दुःख का भोग। भगवान में ये दोनों ही नहीं होते। दूसरे लोग जन्मते हैं तो शरीर पहले बालक होता है फिर बड़ा होकर युवा हो जाता है फिर वृद्ध हो जाता है और फिर मर जाता है। परन्तु भगवान में ये परिवर्तन नहीं होते। वे अवतार लेकर बाललीला करते हैं और किशोर अवस्था (पंद्रह वर्ष की अवस्था) तक बढ़ने की लीला करते हैं। किशोर अवस्था तक पहुँचने के बाद फिर वे नित्य किशोर ही रहते हैं। सैकड़ों वर्ष बीतने पर भी भगवान वैसे ही सुन्दरस्वरूप रहते हैं। इसीलिये भगवान के जितने चित्र बनाये जाते हैं उसमें उनकी दाढ़ी मूछें नहीं होतीं। इस प्रकार दूसरे प्राणियों की तरह न तो भगवान का जन्म होता है न परिवर्तन होता है और न मृत्यु ही होती है। प्राणिमात्र के एकमात्र ईश्वर (महान् शासक) रहते हुए ही भगवान अवतार के समय छोटे से बालक बन जाते हैं परन्तु बालक बन जाने पर भी उनके ईश्वरभाव (शासकत्व) में कोई कमी नहीं आती जैसे भगवान श्रीकृष्ण ने छठी के दिन ही पूतना राक्षसी को मार दिया। पूतना का शरीर ढाई योजन का और महान भयंकर था। यदि उनमें ईश्वर भाव न होता तो छठी के दिन पूतना को कैसे मार देते । भगवान ने तीन महीने की अवस्था में शकटासुर को , एक वर्ष की अवस्था में तृणावर्त को और पाँच वर्ष की अवस्था में अघासुरको मार दिया। इस तरह भगवान ने बाल्यावस्था में ही अनेक राक्षसों को मार दिया। सात वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने गोवर्धन पर्वत को एक अँगुली पर उठा लिया। सम्पूर्ण प्राणियों के ईश्वर होते हुए भी भगवान अवतार के समय छोटे से छोटे बन जाते हैं और छोटे से छोटा काम भी कर देते हैं। वास्तव में यही भगवान की भगवत्ता है। भगवान अर्जुन के घोड़े हाँकते हैं और उनकी आज्ञाका पालन करते हैं फिर भी भगवान का अर्जुन पर और दूसरे प्राणियों पर ईश्वर भाव वैसा का वैसा ही है। सारथि होने पर भी वे अर्जुन को गीता का महान उपदेश देते हैं। भगवान श्रीराम पिता दशरथ की आज्ञा को टालते नहीं और चौदह वर्ष के लिये वन में चले जाते हैं फिर भी भगवान का दशरथ पर और दूसरे प्राणियों पर ईश्वर भाव वैसा का वैसा ही है। जो सत्त्व , रज और तम इन तीनों गुणों से अलग है वह भगवान की शुद्ध प्रकृति है। यह शुद्ध प्रकृति भगवान का स्वकीय सच्चिदानन्दघन स्वरूप है। इसी को संधिनीशक्ति , संवित्शक्ति और आह्लादिनी शक्ति कहते हैं । इसी को चिन्मयशक्ति , कृपाशक्ति आदि नामों से कहते हैं। श्रीराधाजी , श्रीसीताजी आदि भी यही हैं। भगवान को प्राप्त कराने वाली भक्ति और ब्रह्मविद्या भी यही हैं। प्रकृति भगवान की शक्ति है। जैसे अग्नि में दो शक्तियाँ रहती हैं प्रकाशिका और दाहिका। प्रकाशिका शक्ति अन्धकार को दूर कर के प्रकाश कर देती है तथा भय भी मिटाती है। दाहिका शक्ति जला देती है तथा वस्तु को पकाती एवं ठण्डक भी दूर करती है। ये दोनों शक्तियाँ अग्निसे भिन्न भी नहीं हैं और अभिन्न भी नहीं हैं। भिन्न इसलिये नहीं हैं कि वे अग्निरूप ही हैं अर्थात् उन्हें अग्नि से अलग नहीं किया जा सकता और अभिन्न इसलिये नहीं हैं कि अग्नि के रहते हुए भी मन्त्र औषध आदि से अग्नि की दाहिका शक्ति कुण्ठित की जा सकती है। ऐसे ही भगवान में जो शक्ति रहती है उसे भगवान से भिन्न और अभिन्न दोनों ही नहीं कह सकते। जैसे दियासलाई में अग्नि की सत्ता तो सदा रहती है पर उसकी प्रकाशिका और दाहिका शक्ति छिपी हुई रहती है ऐसे ही भगवान सम्पूर्ण देश , काल , वस्तु , व्यक्ति आदि में सदा रहते हैं पर उनकी शक्ति छिपी हुई रहती है। उस शक्ति को अधिष्ठित करके अर्थात अपने वश में करके उसके द्वारा भगवान प्रकट होते हैं। जैसे जब तक अग्नि अपनी प्रकाशिका और दाहिकाशक्ति को लेकर प्रकट नहीं होती तब तक सदा रहते हुए भी अग्नि नहीं दिखती। ऐसे ही जब तक भगवान अपनी शक्ति को लेकर प्रकट नहीं होते तब तक भगवान हर समय रहते हुए भी नहीं दिखते । राधाजी, सीताजी, रुक्मिणीजी आदि सब भगवान की निजी दिव्य शक्तियाँ हैं। भगवान सामान्य रूप से सब जगह रहते हुए भी कोई काम नहीं करते। जब करते हैं तब अपनी दिव्य शक्ति को लेकर ही करते हैं। उस दिव्य शक्ति के द्वारा भगवान विचित्र-विचित्र लीलाएँ करते हैं। उनकी लीलाएँ इतनी विचित्र और अलौकिक होती हैं कि उनको सुनकर ,गाकर और याद करके भी जीव पवित्र होकर अपना उद्धार कर लेते हैं। निर्गुण उपासना में वही शक्ति ब्रह्मविद्या हो जाती है और सगुण उपासना में वही शक्ति भक्ति हो जाती है। जीव भगवान का ही अंश है। जब वह दूसरों में मानी हुई ममता हटाकर एकमात्र भगवान की स्वतःसिद्ध वास्तविक आत्मीयता को जाग्रत कर लेता है तब भगवान की शक्ति उसमें भक्ति रूप से प्रकट हो जाती है। वह भक्ति इतनी विलक्षण है कि निराकार भगवान को भी साकार रूप से प्रकट कर देती है । भगवान को भी खींच लेती है। वह भक्ति भी भगवान ही देते हैं। भगवान की भक्ति रूप शक्ति के दो रूप हैं विरह और मिलन। भगवान विरह भी भेजते हैं और मिलन भी। जब भगवान विरह भेजते हैं तब भक्त भगवान के बिना व्याकुल हो जाता है। व्याकुलता की अग्नि में संसार की आसक्ति जल जाती है और भगवान प्रकट हो जाते हैं। ज्ञानमार्ग में भगवान की शक्ति पहले उत्कट जिज्ञासा के रूप में आती है (जिससे तत्त्व को जाने बिना साधक से रहा नहीं जाता) और फिर ब्रह्मविद्यारूप से जीव के अज्ञान का नाश करके उसके वास्तविक स्वरूप को प्रकाशित कर देती है परन्तु भगवान की वह दिव्य शक्ति जिसे भगवान विरहरूप से भेजते हैं उससे भी बहुत विलक्षण है। भगवान कहाँ हैं, क्या करूँ , कहाँ जाऊँ इस प्रकार भक्त व्याकुल हो जाता है तो यह व्याकुलता सब पापों का नाश करके भगवान को साकार रूप से प्रकट कर देती है। व्याकुलता से जितना जल्दी काम बनता है उतना विवेक विचारपूर्वक किये गये साधन से नहीं। भगवान अपनी प्रकृति के द्वारा अवतार लेते हैं और तरह-तरह की अलौकिक लीलाएँ करते हैं। जैसे अग्नि स्वयं कुछ नहीं करती उसकी प्रकाशिका शक्ति प्रकाश कर देती है , दाहिकाशक्ति जला देती है ऐसे ही भगवान स्वयं कुछ नहीं करते उनकी दिव्य शक्ति ही सब काम कर देती है। शास्त्रों में आता है कि सीताजी कहती हैं रावण को मारना आदि सब काम मैंने किया है रामजी ने कुछ नहीं किया। जैसे मनुष्य और उसकी शक्ति (ताकत) है ऐसे ही भगवान और उनकी शक्ति है। उस शक्ति को भगवान से अलग भी नहीं कह सकते और एक भी नहीं कह सकते। मनुष्य में जो शक्ति है उसे वह अपने से अलग करके नहीं दिखा सकता इसलिये वह उससे अलग नहीं है। मनुष्य रहता है पर उसकी शक्ति घटती-बढ़ती रहती है इसलिये वह मनुष्य से एक भी नहीं है। यदि उसकी मनुष्य से एकता होती तो वह उसके स्वरूप के साथ बराबर रहती घटती-बढ़ती नहीं। अतः भगवान और उनकी शक्ति को भिन्न अथवा अभिन्न कुछ भी नहीं कह सकते। दार्शनिकों ने भिन्न भी नहीं कहा और अभिन्न भी नहीं कहा। वह शक्ति अनिर्वचनीय है। भगवान श्रीकृष्ण के उपासक उस शक्ति को श्रीजी (राधाजी) के नाम से कहते हैं। जैसे पुरुष और स्त्री दो होते हैं ऐसे श्रीकृष्ण और श्रीजी दो नहीं हैं। ज्ञान में तो द्वैत का अद्वैत होता है अर्थात दो होकर भी एक हो जाता है और भक्ति में अद्वैत का द्वैत होता है अर्थात एक होकर भी दो हो जाता है। जीव और ब्रह्म एक हो जाएं तो ज्ञान होता है और एक ही ब्रह्म दो रूप हो जाय तो भक्ति होती है। एक ही अद्वैत तत्त्व प्रेम की लीला करने के लिये, प्रेम का आस्वादन करने के लिये , सम्पूर्ण जीवों को प्रेम का आनन्द देने के लिये श्रीकृष्ण और श्रीजी इन दो रूपों से प्रकट होता है। दो रूप होने पर भी दोनों में बड़ा कौन है और कौन छोटा , कौन प्रेमी है और कौन प्रेमास्पद इसका पता ही नहीं चलता। दोनों ही एक दूसरे से बढ़कर विलक्षण दिखते हैं। दोनों एक दूसरे के प्रति आकृष्ट होते हैं। श्रीजी को देखकर भगवान प्रसन्न होते हैं और भगवान को देखकर श्रीजी। दोनों की परस्पर प्रेमलीला से रस की वृद्धि होती है। इसी को रास कहते हैं। भगवान की शक्तियाँ अनन्त हैं , अपार हैं। उनकी दिव्य शक्तियों में ऐश्वर्यशक्ति भी है और माधुर्यशक्ति भी। ऐश्वर्यशक्ति से भगवान ऐसे विचित्र और महान कार्य करते हैं जिनको दूसरा कोई कर ही नहीं सकता। ऐश्वर्यशक्ति के कारण उनमें जो महत्ता , विलक्षणता , अलौकिकता दिखती है वह उनके सिवाय और किसी में देखने-सुनने में नहीं आती। माधुर्यशक्ति में भगवान अपने ऐश्वर्य को भूल जाते हैं। भगवान को भी मोहित करने वाली माधुर्यशक्ति में एक मधुरता , मिठास होती है जिसके कारण भगवान बड़े मधुर और प्रिय लगते हैं। जब भगवान ग्वालबालों के साथ खेलते हैं तब माधुर्यशक्ति प्रकट रहती है। अगर उस समय ऐश्वर्यशक्ति प्रकट हो जाय तो सारा खेल बिगड़ जाय , ग्वालबाल डर जायँ और भगवान के साथ खेल भी न सकें। ऐसे ही भगवान् कहीं मित्ररूप से , कहीं पुत्ररूप से और कहीं पतिरूप से प्रकट हो जाते हैं तो उस समय उनकी ऐश्वर्यशक्ति छिपी रहती है और माधुर्यशक्ति प्रकट रहती है। तात्पर्य है कि भगवान भक्तों के भावों के अनुसार उनको आनन्द देने के लिये ही अपनी ऐश्वर्यशक्ति को छिपाकर माधुर्यशक्ति प्रकट कर देते हैं। जिस समय माधुर्यशक्ति प्रकट रहती है उस समय ऐश्वर्यशक्ति प्रकट नहीं होती और जिस समय ऐश्वर्यशक्ति प्रकट रहती है उस समय माधुर्यशक्ति प्रकट नहीं होती। ऐश्वर्यशक्ति केवल तभी प्रकट होती है जब माधुर्यभाव में कोई शङ्का पैदा हो जाय। जैसे माधुर्यशक्ति के प्रकट रहने पर भगवान श्रीकृष्ण बछड़ों को ढूँढ़ते हैं परन्तु बछड़े कहाँ गये यह शङ्का पैदा होते ही ऐश्वर्यशक्ति प्रकट हो जाती है और भगवान तत्काल जान जाते हैं कि बछड़ों को ब्रह्माजी ले गये हैं। भगवान में एक सौन्दर्यशक्ति भी होती है जिससे हर एक प्राणी उनमें आकृष्ट हो जाता है। भगवान श्रीकृष्ण के सौन्दर्य को देखकर मथुरापुरवासिनी स्त्रियाँ आपस में कहती हैं। इन भगवान श्रीकृष्ण का रूप सम्पूर्ण सौन्दर्य का सार है । सृष्टिमात्र में किसी का भी रूप इनके रूप के समान नहीं है। इनका रूप किसी के सँवारने-सजाने अथवा गहने-कपड़ों से नहीं बल्कि स्वयंसिद्ध है। इस रूप को देखते-देखते तृप्ति भी नहीं होती क्योंकि यह नित्य नवीन ही रहता है। समग्र यश , सौन्दर्य और ऐश्वर्य इस रूप के आश्रित है। इस रूप के दर्शन बहुत ही दुर्लभ हैं। गोपियों ने पता नहीं कौन सा तप किया था जो अपने नेत्रों के दोनों से सदा इनकी रूपमाधुरी का पान किया करती हैं । शुकदेवजी कहते हैं कि हे परीक्षित, मञ्चों पर जितने लोग बैठे थे वे मथुराके नागरिक और राष्ट्र के जनसमुदाय पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी को देखकर इतने प्रसन्न हुए कि उनके नेत्र और मुखकमल खिल उठे , उत्कण्ठा से भर गये। वे नेत्रों द्वारा उनकी मुखमाधुरी का पान करते-करते तृप्त ही नहीं होते थे मानो वे उन्हें नेत्रों से पी रहे हों, जिह्वासे चाट रहे हों , नासिका से सूँघ रहे हों और भुजाओं से पकड़कर हृदय से सटा रहे हों। भगवान् श्रीराम के सौन्दर्य को देखकर विदेह राजा जनक भी विदेह अर्थात देह की सुधबुध से रहित हो जाते हैं । वन में रहने वाले कोल भील भी भगवान के विग्रह को देखकर मुग्ध हो जाते हैं । प्रेमियों की तो बात ही क्या वैरभाव रखने वाले राक्षस खरदूषण भी भगवान के विग्रह की सुन्दरता को देखकर चकित हो जाते हैं और कहते हैं कि भगवान के दिव्य सौन्दर्य की ओर प्रेमी विरक्त ज्ञानी मूर्ख वैरी असुर और राक्षस तक सबका मन आकृष्ट हो जाता है। जो मनुष्य भगवान से विमुख रहते हैं उनके सामने भगवान अपनी योगमाया में छिपे रहते हैं और साधारण मनुष्य जैसे ही दिखते हैं। मनुष्य ज्यों-ज्यों भगवान के सम्मुख होता जाता है त्यों-त्यों भगवान उसके सामने प्रकट होते जाते हैं। इसी योगमाया का आश्रय लेकर भगवान विचित्र-विचित्र लीलाएँ करते हैं । भगवद् विमुख मूढ़ पुरुष के आगे दो परदे रहते हैं – एक तो अपनी मूढ़ता का और दूसरा भगवान की योगमाया का। अपनी मूढ़ता रहने के कारण भगवान का प्रभाव साक्षात सामने प्रकट होने पर भी वह उसे समझ नहीं सकता जैसे द्रौपदी का चीरहरण करने के लिये दुःशासन अपना पूरा बल लगाता है , उसकी भुजाएँ थक जाती हैं पर साड़ी का अन्त नहीं आता । इस प्रकार भगवान ने सभा के भीतर अपना ऐश्वर्य साक्षात प्रकट कर दिया परन्तु अपनी मूढ़ता के कारण दुःशासन , दुर्योधन , कर्ण आदि पर इस बात का कोई असर ही नहीं पड़ा कि द्रौपदी के द्वारा भगवान को पुकारने मात्र से कितनी विलक्षणता प्रकट हो गयी । एक स्त्री का चीरहरण भी नहीं कर सके तो और क्या कर सकते हैं , इस तरफ उनकी दृष्टि ही नहीं गयी। भगवान का प्रभाव सामने देखते हुए भी वे उसे जान नहीं सके। यदि जीव अपनी मूढ़ता (अज्ञान) दूर कर दे तो उसे अपने स्वरूप का अथवा परमात्मतत्त्व का बोध तो हो जाता है पर भगवान के दर्शन नहीं होते । भगवान के दर्शन तभी होते है जब भगवान् अपनी योगमाया का परदा हटा देते हैं। अपना अज्ञान मिटाना तो जीव के हाथ की बात है पर योगमाया को दूर करना उसके हाथ की बात नहीं है। वह सर्वथा भगवान के शरण हो जाय तो भगवान अपनी शक्ति से उसका अज्ञान भी मिटा सकते हैं और दर्शन भी दे सकते हैं। भगवान जितनी लीलाएँ करते हैं सब योगमाया का आश्रय लेकर ही करते हैं। इसी कारण उनकी लीला को देख सकते हैं उसका अनुभव कर सकते हैं। यदि वे योगमाया का आश्रय न लें तो उनकी लीलाको कोई देख ही नहीं सकता उसका आस्वादन कोई कर ही नहीं सकता। अवतारका अर्थ है नीचे उतरना। सब जगह परिपूर्ण रहने वाले सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा अपने अनन्य भक्तों की इच्छा पूरी करने के लिये अत्यधिक कृपा से एक स्थान विशेष में अवतार लेते हैं और छोटे बन जाते हैं। दूसरे लोगों का प्रभाव या महत्त्व तो बड़े हो जाने से होता है पर भगवान का प्रभाव या महत्त्व छोटे हो जाने से होता है। कारण कि अपार , असीम , अनन्त होकर भी भगवान छोटे से बन जाते हैं यह उनकी विलक्षणता ही है। जैसे भगवान अनन्त ब्रह्माण्डों को धारण करते हैं परन्तु एक पर्वत को धारण करने से भगवान गिरिधारी नाम से प्रसिद्ध हो गये अनन्त ब्रह्माण्ड जिनके रोम-रोम में स्थित है, ऐसे परमेश्वर एक पर्वत को उठा लें यह कोई बड़ी बात नहीं बल्कि छोटी बात है परन्तु छोटी बात में ही भगवान की बड़ी बात होती है। इस प्रकार अवतार लेने में ही भगवान की विशेषता है। साधारण आदमी जिस स्थिति पर है उसी स्थिति पर आकर भगवान वैसी लीला करते हैं। बिलकुल भोले-भाले साधारण बालक की तरह बनकर लीला करते हैं। ग्वालबालों से खेलते समय वे दूसरे ग्वालबाल से हार भी जाते हैं। जो ग्वालबाल जीत जाता है वह सवार बन जाता है और भगवान घोड़ा बन जाते हैं। यह उनकी विशेष महत्ता है। भगवान के प्रभाव को जानने वाले ज्ञानी महात्मा लोग तो उनके स्वरूप में मस्त रहते हैं पर भक्तों को उनकी साधारण अज्ञान बालक की तरह भोली-भाली लीला बड़ी विचित्र और मीठी लगती है। वहाँ ज्ञानियों का ज्ञान नहीं चलता। ज्ञानियों के शिरोमणि ब्रह्माजी भी भगवान की लीला को देखकर चकरा गये । बड़े-बड़े ऋषि-मुनि योगी-तपस्वी संत-महात्मा भी उनकी लीलाओं के रहस्य को नहीं जान सकते और इस विषय में मूक हो जाते हैं। भगवान ही कृपा करके जिन प्यारे अन्तरङ्ग भक्तों को जनाना चाहते हैं वे ही उनकी लीला के तत्त्व को जान पाते हैं । सोइ जानइ जेहि देहु जनाई (मानस 2। 127। 2)। गायें चराते समय ग्वालबालों से खेलते समय भी भगवान बड़े-बड़े प्रभावशाली कार्य कर देते हैं। बड़े-बड़े बलवान राक्षसों को भी चुटकियों में ही खत्म कर देते हैं। छोटे से बालक बनने पर भी उनका प्रभाव वैसा का वैसा ही रहता है। जैसे कोई बहुत बड़ा विद्वान किसी बालक को वर्णमाला सिखाता है तो वह बालक का हाथ पकड़कर उससे क , ख , ग लिखवाता है और मुँह से भी वैसा बोलता है परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वह विद्वान स्वयं वर्णमाला सीखता है। वह तो बालक की स्थिति में आकर उसे सिखाता है जिससे वह सुगमतापूर्वक सीख जाय। ऐसे ही अनन्तब्रह्माण्डनायक भगवान हम लोगों के बीच हमारे सामने आते हैं और हमारी तरह ही बनकर हमें शिक्षा देते हैं। उनकी बड़ी अलौकिक विचित्र-विचित्र लीलाएँ होती हैं जिनका श्रवण , पठन और गायन करने से भी लोगों का उद्धार हो जाता है- स्वामी रामसुखदास जी )