ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार
34-42 ज्ञान की महिमा तथा अर्जुन को कर्म करने की प्रेरणा
अज्ञश्चश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥4.40
अज्ञः–अज्ञानी,; च–और; अश्रद्दधानः–श्रद्धा विहीन; च–और; संशय–शंकाग्रस्त; आत्मा- व्यक्ति; विनश्यति–पतन हो जाता है; न–न; अयम्–इस; लोकः–संसार में; अस्ति–है; न–न तो; परः–अगले जन्म में, परलोक ; न–नहीं; सुखम्–सुख; संशय आत्मन –संशयग्रस्त , संशययुक्त , संदेहास्पद आत्मा।
जिन अज्ञानी लोगों में न तो श्रद्धा और न ही ज्ञान है और जो संदेहास्पद प्रकृति के होते हैं अर्थात जो विवेकहीन, श्रद्धारहित और संशययुक्त मनुष्य हैं उनका अवश्य पतन होता है। ऐसे संदेहास्पद जीवात्मा के लिए न तो इस लोक में और न ही परलोक में कोई सुख है अर्थात न इस जन्म में सुख है न अगले जन्म में ॥4.40॥
( जिस पुरुष का विवेक अभी जाग्रत् नहीं हुआ है तथा जितना विवेक जाग्रत् हुआ है उसको महत्त्व नहीं देता और साथ ही जो अश्रद्धालु है ऐसे संशययुक्त पुरुष का पारमार्थिक मार्ग से पतन हो जाता है। कारण कि संशययुक्त पुरुष की अपनी बुद्धि तो प्राकृत शिक्षारहित है और दूसरे की बात का आदर नहीं करता फिर ऐसे पुरुष के संशय कैसे नष्ट हो सकते हैं ? और संशय नष्ट हुए बिना उसकी उन्नति भी कैसे हो सकती है ? अलग-अलग बातों को सुनने से यह ठीक है अथवा वह ठीक है इस प्रकार सन्देहयुक्त पुरुष का नाम संशयात्मा है। पारमार्थिक मार्ग पर चलने वाले साधक में संशय पैदा होना स्वाभाविक है क्योंकि वह किसी भी विषय को पढ़ेगा तो कुछ समझेगा और कुछ नहीं समझेगा। जिस विषय को कुछ नहीं समझते उस विषय में संशय पैदा नहीं होता और जिस विषय को पूरा समझते हैं उस विषय में संशय नहीं रहता। अतः संशय सदा अधूरे ज्ञान में ही पैदा होता है इसी को अज्ञान कहते हैं। इसलिये संशय का उत्पन्न होना हानिकारक नहीं है बल्कि संशय को बनाये रखना और उसे दूर करने की चेष्टा न करना ही हानिकारक है। संशय को दूर करने की चेष्टा न करने पर वह संशय ही सिद्धान्त बन जाता है। कारण कि संशय दूर न होने पर मनुष्य सोचता है कि पारमार्थिक मार्ग में सब कुछ ढकोसला है और ऐसा सोचकर उसे छोड़ देता है तथा नास्तिक बन जाता है। परिणामस्वरूप उसका पतन हो जाता है। इसलिये अपने भीतर संशय का रहना साधक को बुरा लगना चाहिये। संशय बुरा लगने पर जिज्ञासा जाग्रत् होती है जिसकी पूर्ति होने पर संशयविनाशक ज्ञानकी प्राप्ति होती है। साधक का लक्षण है खोज करना। यदि वह मन और इन्द्रियों से देखी बात को ही सत्य मान लेता है तो वहीं रुक जाता है आगे नहीं बढ़ पाता। साधक को निरन्तर आगे ही बढ़ते रहना चाहिये। जैसे रास्ते पर चलते समय मनुष्य यह न देखे कि कितने मील आगे आ गये बल्कि यह देखे कि कितने मील अभी बाकी पड़े हैं तब वह ठीक अपने लक्ष्य तक पहुँच जायगा। ऐसे ही साधक यह न देखे कि कितना जान लिया अर्थात् अपने जाने हुए पर सन्तोष न करे बल्कि जिस विषय को अच्छी तरह नहीं जानता उसे जानने की चेष्टा करता रहे। इसलिये संशय के रहते हुए कभी सन्तोष नहीं होना चाहिये बल्कि जिज्ञासा अग्नि की तरह दहकती रहनी चाहिये। ऐसा होने पर साधक का संशय सन्त महात्माओं से अथवा ग्रन्थों से किसी न किसी प्रकार से दूर हो ही जाता है। संशय दूर करने वाला कोई न मिले तो भगवत्कृपासे उसका संशय दूर हो जाता है। जीवात्मा परमात्मा का अंश है इसलिये जब उसमें अपने अंशी परमात्मा को प्राप्त करने की भूख जाग्रत् होती है और उसकी पूर्ति न होने का दुःख होता है तब उस दुःख को भगवान् सह नहीं सकते। अतः उसकी पूर्ति भगवान् स्वतः करते हैं। ऐसे ही जब साधक को अपने भीतर स्थित संशय से व्याकुलता या दुःख होता है तब वह दुःख भगवान् को असह्य होता है। संशय दूर करने के लिये भगवान् से प्रार्थना नहीं करनी पड़ती बल्कि जिस संशय को लेकर साधक को दुःख हो रहा है उस संशय को दूर करके भगवान् स्वतः उसका वह दुःख मिटा देते हैं। संशयात्मा पुरुष की एक पुकार होती है जो स्वतः भगवान् तक पहुँच जाती है। संशयके कारण साधक की वास्तविक उन्नति रुक जाती है इसलिये संशय दूर करने में ही उसका हित है। भगवान् प्राणिमात्र के सुहृद् हैं , इसलिये जिस संशय को लेकर मनुष्य व्याकुल होता है और वह व्याकुलता उसे असह्य हो जाती है तो भगवान् उस संशय को किसी भी रीति या उपाय से दूर कर देते हैं। गलती यही होती है कि मनुष्य जितना जान लेता है उसी को पूरा समझकर अभिमान कर लेता है कि मैं ठीक जानता हूँ। यह अभिमान महान पतन करने वाला हो जाता है। “नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ” इस श्लोक में ऐसे संशयात्मा मनुष्य का वर्णन है जो अज्ञ और अश्रद्धालु है। तात्पर्य यह है कि भीतर संशय रहने पर भी उस मनुष्य की न तो अपनी विवेकवती बुद्धि है और न वह दूसरेकी बात ही मानता है। इसलिये उस संशयात्मा मनुष्य का पतन हो जाता है। उसके लिये न यह लोक है न परलोक है और न सुख ही है ।संशयात्मा मनुष्य का इस लोक में व्यवहार बिगड़ जाता है। कारण कि वह प्रत्येक विषय में संशय करता है जैसे यह आदमी ठीक है या नहीं ठीक है, यह भोजन ठीक है या नहीं ठीक है , इसमें मेरा हित है या अहित है आदि। उस संशयात्मा मनुष्य को परलोक में भी कल्याण की प्राप्ति नहीं होती क्योंकि कल्याण में निश्चयात्मिका बुद्धि की आवश्यकता होती है और संशयात्मा मनुष्य दुविधा में रहनेके कारण कोई एक निश्चय नहीं कर सकता जैसे जप करूँ या स्वाध्याय करूँ , संसार का काम करूँ या परमात्म प्राप्ति करूँ आदि। भीतर संशय भरे रहने के कारण उसके मन में भी सुख-शान्ति नहीं रहती। इसलिये विवेकवती बुद्धि और श्रद्धा के द्वारा संशय को अवश्य ही मिटा देना चाहिये। दो अलग-अलग बातों को पढ़ने-सुनने से संशय पैदा होता है। वह संशय या तो विवेक-विचार के द्वारा दूर हो सकता है या शास्त्र तथा सन्त महापुरुषों की बातों को श्रद्धापूर्वक मानने से। इसलिये संशय युक्त पुरुष में यदि अज्ञता है तो वह विवेक – विचार को बढ़ाये और यदि अश्रद्धा है तो श्रद्धा को बढ़ाये क्योंकि इन दोनों में से किसी एक को विशेषता से अपनाये बिना संशय दूर नहीं होता – स्वामी रामसुखदास जी )