ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार
34-42 ज्ञान की महिमा तथा अर्जुन को कर्म करने की प्रेरणा
तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।
छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥4.42
तस्मात्–इसलिए; अज्ञानसम्भूतम्– अज्ञान से उत्पन्न ; हृत्स्थम्- हृदय में स्थित; ज्ञान- ज्ञान; असिना–खड्ग से; आत्मनः– स्व के ; छित्त्वा–काटकर; एनम्–इस; संशयम्–संदेह को; योगम्–कर्म योग में; अतिष्ठ–शरण लो; उत्तिष्ठ–उठो; भारत–भरतवंशी, अर्जुन।
इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू हृदय में स्थित इस अज्ञानजनित अपने संशय को ज्ञान रुपी तलवार द्वारा काट कर ( कर्म ) योग का आश्रय लेकर अर्थात योग निष्ठ हो कर युद्ध के लिए खड़ा हो जा और युद्ध कर ॥4.42॥
( पूर्वश्लोक में भगवान ने यह सिद्धान्त बताया कि जिसने समता के द्वारा समस्त कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया है और ज्ञान के द्वारा समस्त संशयों को नष्ट कर दिया है उस आत्मपरायण कर्मयोगी को कर्म नहीं बाँधते अर्थात् वह जन्म-मरण से मुक्त हो जाता है। अब भगवान् तस्मात् पद से अर्जुन को भी वैसा ही जानकर कर्तव्य-कर्म करने की प्रेरणा करते हैं। अर्जुन के हृदय में संशय था कि युद्धरूप घोर कर्म से मेरा कल्याण कैसे होगा और कल्याण के लिये मैं कर्मयोग का अनुष्ठान करूँ अथवा ज्ञानयोग का । इस श्लोक में भगवान् इस संशय को दूर करने की प्रेरणा करते हैं क्योंकि संशयके रहते हुए कर्तव्यका पालन ठीक तरहसे नहीं हो सकता।अज्ञानसम्भूतम् पदका भाव है कि सब संशय अज्ञानसे अर्थात् कर्मोंके और योगके तत्त्वको ठीकठीक न समझनेसे ही उत्पन्न होते हैं। क्रियाओँ और पदार्थोंको अपना और अपने लिये मानना ही अज्ञान है। यह अज्ञान जबतक रहता है तबतक अन्तःकरणमें संशय रहते हैं क्योंकि क्रियाएँ और पदार्थ विनाशी हैं और स्वरूप अविनाशी है। तीसरे अध्याय में कर्मयोग का आचरण करने की और इस चौथे अध्याय में कर्मयोग को तत्त्व से जानने की बात विशेष रूप से आयी है। कारण कि कर्म करने के साथ-साथ कर्म को जानने की भी बहुत आवश्यकता है। ठीक-ठीक जाने बिना कोई भी कर्म बढ़िया रीति से नहीं होता। इसके सिवाय अच्छी तरह जानकर कर्म करने से जो कर्म बाँधने वाले होते हैं वे ही कर्म मुक्त करने वाले हो जाते हैं। इसलिये इस अध्याय में भगवान ने कर्मों को तत्त्व से जानने पर विशेष जोर दिया है। जो मनुष्य कर्म करने की विद्या को जान लेता है उसके समस्त संशयोंका नाश हो जाता है। कर्म करने की विद्या है अपने लिये कुछ करना ही नहीं है। अर्जुन अपने धनुषबाण का त्याग करके रथ के मध्यभाग में बैठ गये थे । उन्होंने भगवान से साफ कह दिया था कि मैं युद्ध नहीं करूँगा। यहाँ भगवान् अर्जुन को योग में स्थित होकर युद्ध के लिये खड़े हो जाने की आज्ञा देते हैं। यही बात भगवान ने दूसरे अध्याय के 48वें श्लोक में योगस्थः कुरु कर्माणि (योग में स्थित होकर कर्तव्य-कर्म कर) पदों से भी कही थी। योग का अर्थ समता है।अर्जुन युद्ध को पाप समझते थे इसलिये भगवान् अर्जुन को समता में स्थित होकर युद्ध करने की आज्ञा देते हैं क्योंकि समता में स्थित होकर युद्ध करने से पाप नहीं लगता इसलिये समता में स्थित होकर कर्तव्य-कर्म करना ही कर्मबन्धन से छूटने का उपाय है। संसार में रात-दिन अनेक कर्म होते रहते हैं पर उन कर्मों में राग-द्वेष न होने से हम संसार के उन कर्मों से बँधते नहीं बल्कि निर्लिप्त या मुक्त रहते हैं। जिन कर्मों में हमारा राग या द्वेष हो जाता है उन्हीं कर्मों से हम बँधते हैं। कारण कि राग या द्वेष से कर्मों के साथ अपना सम्बन्ध जुड़ जाता है। जब राग-द्वेष नहीं रहते अर्थात् समता आ जाती है तब कर्मों के साथ अपना सम्बन्ध नहीं जुड़ता अतः मनुष्य कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है। अपने स्वरूप को देखें तो उसमें समता स्वतःसिद्ध है। विचार करें कि प्रत्येक कर्म का आरम्भ होता है और समाप्ति होती है। उन कर्मों का फल भी आदि और अन्त वाला होता है परन्तु स्वरूप निरन्तर ज्यों का त्यों रहता है। कर्म और फल अनेक होते हैं पर स्वरूप एक ही रहता है। अतः कोई भी कर्म अपने लिये न करने से और किसी भी पदार्थ को अपना और अपने लिये न मानने से जब क्रिया पदार्थ रूप संसार से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है तब स्वतःसिद्ध समता का अपने आप अनुभव हो जाता है – स्वामी रामसुखदास जी )
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसंन्यास योगो नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥4॥
इस प्रकार ‘ ॐ तत् सत् ‘ इन भगवन्नामों के उच्चारण के साथ ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूपश्रीकृष्णार्जुनसंवादमें ज्ञानकर्मसंन्यासयोग नामक चौथा अध्याय पूर्ण हुआ।।4।।
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