Bhagavat Gita in hindi chapter 4

 

 

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ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार

34-42 ज्ञान की महिमा तथा अर्जुन को कर्म करने की प्रेरणा

 

 

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 4

 

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ॥4.34

 

तत्सत्य; विद्धिजानने का प्रयास करना; प्रणिपातेनआध्यात्मिक गुरु के पास जाकर के; परिप्रश्नेनविनम्रता से जिज्ञासा प्रकट करना; सेवया- सेवा के द्वारा; उपदेक्ष्यन्तिप्रदान करेंगे; तेतुमको; ज्ञानम्दिव्य ज्ञान; ज्ञानिनज्ञानी महात्मा; तत्त्वदर्शिनःसत्य को अनुभव करने वाला।

 

उस ज्ञान को तू तत्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत्प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म तत्व को भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे॥4.34

 (आध्यात्मिक गुरु के पास जाकर सत्य को जानो। विनम्र होकर उनसे ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा प्रकट करते हुए ज्ञान प्राप्त करो और उनकी सेवा करो। ऐसा सिद्ध सन्त तुम्हें दिव्य ज्ञान प्रदान कर सकता है क्योंकि वह परम सत्य की अनुभूति कर चुका होता है।)

 

( अर्जुन ने पहले कहा था कि युद्ध में स्वजनों को मारकर मैं हित नहीं देखता। इन आततायियों को मारने से तो पाप ही लगेगा । युद्ध करने की अपेक्षा मैं भिक्षा माँगकर जीवन निर्वाह करना श्रेष्ठ समझता हूँ। इस तरह अर्जुन युद्धरूप कर्तव्यकर्म का त्याग करना श्रेष्ठ मानते हैं परन्तु भगवान के मतानुसार ज्ञानप्राप्ति के लिये कर्मों का त्याग करना आवश्यक नहीं है। इसीलिये यहाँ भगवान् अर्जुन से मानो यह कह रहे हैं कि अगर तू कर्मों का स्वरूप से त्याग करके ज्ञान प्राप्त करने को ही श्रेष्ठ मानता है तो तू किसी तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुष के पास ही जाकर विधिपूर्वक ज्ञान को प्राप्त कर । मैं तुझे ऐसा उपदेश नहीं दूँगा। वास्तव में यहाँ भगवान का अभिप्राय अर्जुन को ज्ञानी महापुरुष के पास भेजने का नहीं बल्कि उन्हें चेताने का प्रतीत होता है। जैसे कोई महापुरुष किसी को उसके कल्याण की बात कह रहा है पर श्रद्धा की कमी के कारण सुनने वाले को वह बात नहीं जँचती तो वह महापुरुष उसे कह देता है कि तू किसी दूसरे महापुरुष के पास जाकर अपने कल्याण का उपाय पूछ । ऐसे ही भगवान् मानो यह कहे रहे हैं कि अगर तुझे मेरी बात नहीं जँचती तो तू किसी ज्ञानी महापुरुष के पास जाकर प्रचलित प्रणाली से ज्ञान प्राप्त कर। ज्ञान प्राप्त करने की प्रचलित प्रणाली है कर्मों का स्वरूप से त्याग करके जिज्ञासापूर्वक श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास जाकर विधिपूर्वक ज्ञान प्राप्त करना । यही तत्त्वज्ञान तुझे अपना कर्तव्यकर्म करते-करते (कर्मयोग सिद्ध होते ही) दूसरे किसी साधन के बिना स्वयं अपने आप में प्राप्त हो जायगा। उसके लिये किसी दूसरे के पास जानेकी जरूरत नहीं है।  ज्ञानप्राप्ति के लिये गुरु के पास जाकर उन्हें साष्टाङ्ग दण्डवत प्रणाम करें। तात्पर्य यह है कि गुरु के पास नीच पुरुष की तरह रहे । जिससे अपने शरीर से गुरु का कभी निरादर और तिरस्कार न हो जाय। नम्रता , सरलता और जिज्ञासुभाव से उनके पास रहे और उनकी सेवा करे। अपने आपको उनके समर्पित कर दे , उनके अधीन हो जाय। शरीर और वस्तुएँ दोनों उनके अर्पण कर दे। साष्टाङ्ग दण्डवत प्रणाम से अपना शरीर और सेवा से अपनी वस्तुएँ उनके अर्पण कर दे। शरीर और वस्तुओं से गुरु की सेवा करे। जिससे वे प्रसन्न हों वैसा काम करे। उनकी प्रसन्नता प्राप्त करनी हो तो अपने आपको सर्वथा उनके अधीन कर दे। उनके मन के , संकेत के , आज्ञा के अनुकूल काम करे। यही वास्तविक सेवा है। सन्त महापुरुष की सबसे बड़ी सेवा है उनके सिद्धान्तों के अनुसार अपना जीवन बनाना। कारण कि उन्हें सिद्धान्त जितने प्रिय होते हैं उतना अपना शरीर प्रिय नहीं होता। सिद्धान्त की रक्षा के लिये वे अपने शरीर तक का सहर्ष त्याग कर देते हैं। इसलिये सच्चा सेवक उनके सिद्धान्तों का दृढ़तापूर्वक पालन करता है। केवल परमात्म तत्त्व को जानने के लिये जिज्ञासुभाव से सरलता और विनम्रतापूर्वक गुरु से प्रश्न करे। अपनी विद्वत्ता दिखाने के लिये अथवा उनकी परीक्षा करने के लिये प्रश्न न करे। मैं कौन हूँ ? संसार क्या है ? बन्धन क्या है ? मोक्ष क्या है ? परमात्म तत्त्व का अनुभव कैसे हो सकता है ? मेरे साधन में क्या-क्या बाधाएँ हैं ? उन बाधाओं को कैसे दूर किया जाय ? तत्त्व समझ में क्यों नहीं आ रहा है ? आदि-आदि प्रश्न केवल अपने बोध के लिये (जैसे-जैसे जिज्ञासा हो वैसे-वैसे ) करे। ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः तत्त्वदर्शिनः पदका तात्पर्य यह है कि उस महापुरुष को परमात्म तत्त्व का अनुभव हो गया हो और ज्ञानिनः पदका तात्पर्य यह है कि उन्हें वेदों तथा शास्त्रों का अच्छी तरह ज्ञान हो। ऐसे तत्त्वदर्शी और ज्ञानी महापुरुष के पास जाकर ही ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। अन्तःकरण की शुद्धि के अनुसार ज्ञान के अधिकारी तीन प्रकार के होते हैं – उत्तम , मध्यम और कनिष्ठ। उत्तम अधिकारी को श्रवणमात्र से तत्त्व ज्ञान हो जाता है । मध्यम अधिकारी को श्रवण , मनन और निदिध्यासन करने से तत्त्वज्ञान होता है। कनिष्ठ अधिकारी तत्त्व को समझने के लिये भिन्न-भिन्न प्रकार की शङ्काएँ किया करता है। उन शङ्काओं का समाधान करने के लिये वेदों और शास्त्रों का ठीक-ठीक ज्ञान होना आवश्यक है क्योंकि वहाँ केवल युक्तियों से तत्त्व को समझाया नहीं जा सकता। अतः यदि गुरु तत्त्वदर्शी हो पर ज्ञानी न हो तो वह शिष्य की तरह-तरह की शङ्काओं का समाधान नहीं कर सकेगा। यदि गुरु शास्त्रों का ज्ञाता हो पर तत्त्वदर्शी न हो तो उसकी बातें वैसी ठोस नहीं होंगी जिससे श्रोता को ज्ञान हो जाय। वह बातें सुना सकता है , पुस्तकें पढ़ा सकता है पर शिष्य को बोध नहीं करा सकता। इसलये गुरु का तत्त्वदर्शी और ज्ञानी दोनों ही होना बहुत जरूरी है। महापुरुष को दण्डवत प्रणाम करने से उनकी सेवा करने से और उनसे सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे तुझे तत्त्व ज्ञान का उपदेश देंगे इसका यह तात्पर्य नहीं है कि महापुरुष को इन सबकी अपेक्षा रहती है। वास्तव में उन्हें प्रणाम , सेवा आदि की किञ्चिन्मात्र भी भूख नहीं होती। जब साधक इस प्रकार जिज्ञासा करता है और सरलतापूर्वक महापुरुष के पास जाकर रहता है तब उस महापुरुष के अन्तःकरण में उसके प्रति विशेष भाव पैदा होते हैं जिससे साधक को बहुत लाभ होता है। यदि साधक इस प्रकार उनके पास न रहे तो ज्ञान मिलने पर भी वह उसे ग्रहण नहीं कर सकेगा। वास्तव में ज्ञान स्वरूप का नहीं होता बल्कि संसार का होता है। संसार का ज्ञान होते ही संसार से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और स्वतःसिद्ध स्वरूप का अनुभव हो जाता है। महापुरुष ज्ञान का उपदेश तो देते हैं पर उससे साधक को बोध हो ही जाय ऐसा निश्चित नहीं है। आगे 39वें श्लोक में भगवान ने कहा है कि श्रद्धावान् पुरुष ज्ञान को प्राप्त करता है कारण कि श्रद्धा अन्तःकरण की वस्तु है परन्तु प्रणाम , सेवा , प्रश्न आदि कपटपूर्वक भी किये जा सकते हैं। इसलिये यहाँ महापुरुष के द्वारा केवल ज्ञान का उपदेश देने की ही बात कही गयी है और 39वें श्लोक में श्रद्धावान् साधक के द्वारा ज्ञान प्राप्त होने की बात कही गयी है – स्वामी रामसुखदास जी )

   

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