ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार
01-15 योग परंपरा, भगवान के जन्म कर्म की दिव्यता, भक्त लक्षणभगवत्स्वरूप
अर्जुन उवाच।
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः ।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ॥4.4॥
अर्जुन उवाच–अर्जुन ने कहा; अपरम्–बाद में; भवतः–आपका; जन्म–जन्म; परम्–पहले; जन्म–जन्म; विवस्वतः–सूर्यदेव का; कथम्–कैसे; एतत्–यह; विजानीयाम्–मैं मानू; त्वम्–तुमने; आदौ–प्रारम्भ में; प्रोक्तवान्–उपदेश दिया; इति–इस प्रकार।
अर्जुन बोले– आपका जन्म तो अभी हाल का ( इसी काल का ) है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है अर्थात कल्प के आदि में हो चुका था। तब मैं इस बात को कैसे समूझँ कि आप ही ने कल्प के आदि में सूर्य से यह योग कहा था?॥4.4॥
( अर्जुन संशयपूर्वक पूछता है कि आपका जन्म तो अभी कुछ वर्ष पूर्व श्रीवसुदेवजी के घर हुआ है पर सूर्य का जन्म सृष्टि के आरम्भ में हुआ था। अतः आपने सूर्य को कर्मयोग कैसे कहा था ? अर्जुन के इस प्रश्न में तर्क या आक्षेप नहीं है बल्कि जिज्ञासा है। वे भगवान् के जन्म-सम्बन्धी रहस्य को सुगमतापूर्वक समझने की दृष्टि से ही प्रश्न करते हैं क्योंकि अपने जन्मसम्बन्धी रहस्य को प्रकट करने में भगवान् ही सर्वथा समर्थ हैं। अर्जुन कहते है कि मैं आपको सृष्टि के आदि में उपदेश देने वाला कैसे जानूँ ? अर्जुन के प्रश्न का तात्पर्य यह है कि सूर्य को उपदेश देने के बाद से सूर्यवंश की (मनु , इक्ष्वाकु आदि) कई पीढ़ियाँ बीत चुकी हैं और आपका अवतार अभी का है अतः आपने सृष्टि के आदि में सूर्य को उपदेश कैसे दिया था यह बात मैं अच्छी तरह समझना चाहता हूँ। सूर्य तो अभी भी है इसलिये उसे अभी भी उपदेश दिया जा सकता है परन्तु आपने सूर्यको उपदेश देने के बाद सूर्यवंश की परम्परा का भी वर्णन किया है जिससे यह सिद्ध होता है कि आपने सूर्य को उपदेश अभी नहीं दिया है। अतः आपने सूर्य को कल्प के आदि में कैसे उपदेश दिया था ? अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में अपना अवतार रहस्य प्रकट करने के लिये भगवान् पहले अपनी सर्वज्ञता का दिग्दर्शन कराते हैं- स्वामी रामसुखदास जी )