Bhagavat Gita in hindi chapter 4

 

 

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ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार

01-15 योग परंपरा, भगवान के जन्म कर्म की दिव्यता, भक्त लक्षणभगवत्स्वरूप

 

 

Bhagavat Gita in hindi chapter 4

 

  एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥4.3

 

:-वही; एवनिःसंदेह; अयम्यह; मया- मेरे द्वारा; तेतुम्हारे; अद्यआज; योग:-योग शास्त्रः प्रोक्तःप्रकट; पुरातन:-आदिकालीन; भक्तःभक्त; असिहो; मेमेरे; सखामित्र; भी; इतिइसलिए; रहस्यम्रहस्य; हिनि:संदेह; एतत्यह; उत्तमम्उत्तम;

 

उसी प्राचीन गूढ़ योगज्ञान को जो बड़ा ही उत्तम रहस्य है आज मैं तुम्हारे सम्मुख प्रकट कर रहा हूँ क्योंकि तुम मेरे मित्र एवं मेरे भक्त हो इसलिए तुम इस दिव्य ज्ञान को समझ सकते हो॥ 4.3

 

( अर्जुन भगवान् को अपना प्रिय सखा पहले से ही मानते थे पर उनके भक्त अभी हुए हैं अर्थात् अर्जुन सखा-भक्त तो पुराने हैं पर दास्य- भक्त नये हैं। आदेश या उपदेश किसी दास अथवा शिष्य को ही दिया जाता है सखा को नहीं। अर्जुन जब भगवान् की शरण हुए तभी भगवान् का उपदेश आरम्भ हुआ। जो बात सखा से भी नहीं कही जाती वह बात भी शरणागत शिष्य के सामने प्रकट कर दी जाती है। अर्जुन भगवान् से कहते हैं कि मैं आपका शिष्य हूँ इसलिये आप की शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिये। इसलिये भगवान् अर्जुन के सामने अपने आपको प्रकट कर देते हैं , रहस्य को खोल देते हैं। अर्जुन का भगवान् के प्रति बहुत विशेष भाव था तभी तो उन्होंने वैभव और अस्त्र- शस्त्रों से सुसज्जित नारायणी सेना का त्याग करके निःशस्त्र भगवान् को अपने सारथि के रूपमें स्वीकार किया । साधारण लोग भगवान् की दी हुई वस्तुओं को तो अपनी मानते हैं (जो अपनी हैं ही नहीं) पर भगवान् को अपना नहीं मानते (जो वास्तव में अपने हैं)। वे लोग वैभवशाली भगवान् को न देखकर उनके वैभव को ही देखते हैं। वैभव को ही सच्चा मानने से उनकी बुद्धि इतनी भ्रष्ट हो जाती है कि वे भगवान् का अभाव ही मान लेते हैं अर्थात् भगवान् की तरफ उनकी दृष्टि जाती ही नहीं। कुछ लोग वैभव की प्राप्ति के लिये ही भगवान् का भजन करते हैं। भगवान् को चाहने से तो वैभव भी पीछे आ जाता है पर वैभव को चाहने से भगवान् नहीं आ सकते। वैभव तो भक्त के चरणों में लोटता है परन्तु सच्चे भक्त वैभव की प्राप्ति के लिये भगवान् का भजन नहीं करते। वे वैभव को नहीं चाहते अपितु भगवान् को  ही चाहते हैं। वैभव को चाहने वाले मनुष्य वैभव के भक्त (दास) होते हैं और भगवान् को चाहने वाले मनुष्य भगवान् के भक्त होते हैं। अर्जुन ने वैभव ( नारायणी सेना ) का त्याग कर के केवल भगवान् को अपनाया तो युद्धक्षेत्र में भीष्म , द्रोण , युधिष्ठिर आदि महापुरुषों के रहते हुए भी गीता का महान् दिव्य उपदेश केवल अर्जुन को ही प्राप्त हुआ और बाद में राज्य भी अर्जुन को मिल गया । ‘स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ‘ इन पदों का यह तात्पर्य नहीं है कि मैंने कर्मयोग को पूर्णतया कह दिया है बल्कि यह तात्पर्य है कि जो कुछ कहा है वह पूर्ण है। आगे भगवान् के जन्म के विषय में अर्जुन द्वारा किये गये प्रश्न का उत्तर देकर भगवान् ने पुनः उसी कर्मयोग का वर्णन आरम्भ किया है। भगवान् कहते हैं कि सृष्टि के आदि में मैंने सूर्य के प्रति जो कर्मयोग कहा था वही आज मैंने तुमसे कहा है। बहुत समय बीत जाने पर वह योग अप्रकट हो गया था और मैं भी अप्रकट ही था। अब मैं भी अवतार लेकर प्रकट हुआ हूँ और योग को भी पुनः प्रकट किया है। अतः अनादिकाल से जो कर्मयोग मनुष्यों को कर्मबन्धन से मुक्त करता आ रहा है वह आज भी उन्हें कर्मबन्धन  से मुक्त कर देगा। जिस प्रकार 18वें अध्याय के 66वें श्लोक में भगवान् ने अर्जुन के सामने सर्वगुह्यतम बात प्रकट की कि तू मेरी शरण में आ जा । मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा । उसी प्रकार यहाँ उत्तम रहस्य प्रकट करते हैं कि मैंने ही सृष्टि के आदि में सूर्य को उपदेश दिया था और वही मैं आज तुझे उपदेश दे रहा हूँ। भगवान् अर्जुन से मानो यह कहते हैं कि तेरा सारथि बनकर तेरी आज्ञा का पालन करने वाला होकर भी मैं आज तुझे वही उपदेश दे रहा हूँ जो उपदेश मैंने सृष्टि के आदि में सूर्यको दिया था। मैं साक्षात् वही हूँ और अभी अवतार लेकर गुप्त रीति से प्रकट हुआ हूँ यह बहुत रहस्यकी बात है। इस रहस्य को आज मैं तेरे सामने प्रकट कर रहा हूँ क्योंकि तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है। साधारण मनुष्य की तो बात ही क्या है साधक की दृष्टि भी उपदेश की ओर अधिक एवं उपदेष्टा की ओर कम जाती है। इस प्रसङ्ग को पढ़ने-सुनने पर उपदिष्ट योग पर तो दृष्टि जाती है पर उपदेष्टा भगवान् श्रीकृष्ण ही आदि नारायण हैं इस पर प्रायः दृष्टि नहीं जाती। जो बात साधारणतः पकड़ में नहीं आती वह रहस्य की होती है। भगवान् यहाँ रहस्यम् पद से अपना परिचय देते हैं जिसका तात्पर्य है कि साधक की दृष्टि सर्वथा भगवान् की ओर ही रहनी चाहिये। अपने आपको आदि उपदेष्टा कहकर भगवान् मानो अपने को मानव मात्र का गुरु प्रकट करते हैं। नाटक खेलते समय मनुष्य जनता के सामने अपने असली स्वरूप को प्रकट नहीं करता पर किसी आत्मीयजन के सामने अपने को प्रकट भी कर देता है। ऐसे ही मनुष्य अवतार के समय भी भगवान् अर्जुन के सामने अपना ईश्वर भाव प्रकट कर देते हैं अर्थात् जो बात छिपाकर रखनी चाहिये वह बात प्रकट कर देते हैं। यही उत्तम रहस्य है। कर्मयोग को भी उत्तम रहस्य माना जा सकता है। जिन कर्मों से जीव बँधता है उन्हीं कर्मों से उसकी मुक्ति हो जाय यह उत्तम रहस्य है। पदार्थों को अपना मानकर अपने लिये कर्म करने से बन्धन होता है और पदार्थों को अपना न मानकर (दूसरों का मानकर) केवल दूसरों के हित के लिये निःस्वार्थ भावपूर्वक सेवा करने से मुक्ति होती है। अनुकूलता-प्रतिकूलता , धनवत्ता-निर्धनता , स्वस्थता-रुग्णता आदि कैसी ही परिस्थिति क्यों न हो प्रत्येक परिस्थिति में इस कर्मयोग का पालन स्वतन्त्रता पूर्वक हो सकता है। कर्मयोग में रहस्य की तीन बातें मुख्य हैं (1) मेरा कुछ नहीं है। कारण कि मेरा स्वरूप सत् (अविनाशी) है और जो कुछ मिला है वह सब असत् (नाशवान्) है फिर असत् मेरा कैसे हो सकता है ? अनित्य का नित्य के साथ सम्बन्ध कैसे हो सकता है ?  (2) मेरे लिये कुछ नहीं चाहिये। कारण कि स्वरूप ( सत् ) में कभी अपूर्ति या कमी होती ही नहीं फिर किस वस्तु की कामना की जाय। अनुत्पन्न अविनाशी तत्त्व के लिये उत्पन्न होने वाली नाशवान् वस्तु कैसे काम में आ सकती है ? (3) अपने लिये कुछ नहीं करना है। इसमें पहला कारण यह है कि स्वयं अर्थात हमारी आत्मा चेतन परमात्मा का अंश है और कर्म जड है। स्वयं नित्य-निरन्तर रहता है पर कर्म का तथा उसके फल का आदि और अन्त होता है। इसलिये अपने लिये कर्म करने से आदि-अन्त वाले कर्म और फल से अपना सम्बन्ध जुड़ता है। कर्म और फल का तो अन्त हो जाता है पर उनका सङ्ग भीतर रह जाता है जो जन्म-मरण का कारण होता है । दूसरा कारण यह है कि करने का दायित्व उसी पर आता है जो कर सकता है अर्थात् जिसमें करने की योग्यता है और जो कुछ पाना चाहता है। निष्क्रिय , निर्विकार , अपरिवर्तनशील और पूर्ण होने के कारण चेतन स्वरूप शरीर के सम्बन्ध के बिना कुछ कर ही नहीं सकता इसलिये यह विधान मानना पड़ेगा कि स्वरूप को अपने लिये कुछ नहीं करना है। तीसरा कारण यह है कि स्वरूप सत् है और पूर्ण है अतः उसमें कभी कमी आती ही नहीं , आने की सम्भावना भी नहीं । कमी न आने के कारण उसमें कुछ पाने की इच्छा भी नहीं होती। इससे स्वतः सिद्ध होता है कि स्वरूप पर करने का दायित्व नहीं है अर्थात् उसे अपने लिये कुछ नहीं करना है। कर्मयोग में कर्म तो संसार के लिये होते हैं और योग अपने लिये होता है परन्तु अपने लिये कर्म करने से योग का अनुभव नहीं होता। योग का अनुभव तभी होगा जब कर्मों का प्रवाह पूरा का पूरा संसार की ओर ही हो जाय। कारण कि शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , पदार्थ , धन , सम्पत्ति आदि जो कुछ भी हमारे पास है वह सब का सब संसार से अभिन्न है , संसार का ही है और उन्हें संसार की सेवा में ही लगाना है। अतः पदार्थ और क्रियारूप संसार से सम्बन्ध-विच्छेद करने के लिये ही दूसरों के लिये कर्म करना है। यही कर्मयोग है। कर्मयोग सिद्ध होने पर करने का राग , पाने की लालसा , जीने की इच्छा और मरने का भय ये सब मिट जाते हैं। जैसे सूर्य के प्रकाश में लोग अनेक कर्म करते हैं पर सूर्य का उन कर्मों से अपना कुछ भी सम्बन्ध नहीं होता ऐसे ही स्वयं ( चेतन ) के प्रकाश में सम्पूर्ण कर्म होते हैं पर स्वयं का उनसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं होता क्योंकि स्वयं चेतन तथा अपरिवर्तनशील है और कर्म जड तथा परिवर्तनशील हैं परन्तु जब स्वयं भूल से उन पदार्थों और कर्मों के साथ थोड़ा सा भी सम्बन्ध मान लेता है अर्थात् उन्हें अपने और अपने लिये मान लेता है तो फिर वे कर्म अवश्य ही उसे बाँध देते हैं। नियत कर्म का किसी भी अवस्था में त्याग न करना तथा नियत समय पर कार्य के लिये तत्पर रहना भी सूर्य की अपनी विलक्षणता है। कर्मयोगी भी सूर्य की तरह अपने नियत कर्मों को नियत समय पर करने के लिये सदा तत्पर रहता है। कर्मयोग का ठीक-ठीक पालन किया जाय तो यदि कर्मयोगी में ज्ञान के संस्कार हैं तो उसे ज्ञान की प्राप्ति और यदि भक्ति के संस्कार हैं तो उसे भक्ति की प्राप्ति स्वतः हो जाती है। कर्मयोग का पालन करने से अपना ही नहीं बल्कि संसारमात्र का भी परम हित होता है। दूसरे लोग देखें या न देखें ,समझें या न समझें , मानें या न मानें अपने कर्तव्य का ठीक-ठीक पालन करने से दूसरे लोगों को कर्तव्य-पालन की प्रेरणा स्वतः मिलती है और इस प्रकार सबकी सेवा भी हो जाती है। गीता में भगवान् ने उपदेश के आरम्भ में , दूसरे अध्याय के 11वें श्लोक से 30वें श्लोक तक मनुष्यमात्र के अनुभव (विवेक ) का वर्णन किया है। यह मनुष्यमात्र का ही अनुभव नहीं है बल्कि जीवमात्र का भी अनुभव है । कारण कि ‘ मैं हूँ ‘ ऐसे अपनी सत्ता (होनेपन) का अनुभव स्थावरजङ्गम सभी प्राणियों को है। वृक्ष ,पर्वत आदि को भी इसका अनुभव है पर वे इसे व्यक्त नहीं कर सकते। पशु-पक्षियों में तो प्रत्यक्ष देखने में भी आता है जैसे पशु-पक्षी आपस में लड़ते हैं तो अपनी सत्ता को लेकर ही लड़ते हैं। यदि अपनी अलग सत्ता का अनुभव न हो तो वे लड़ें ही क्यों मनुष्य को तो इसका प्रत्यक्ष अनुभव है ही परन्तु वह न तो अपने अनुभव की ओर दृष्टि डालता है और न उसका आदर ही करता है। इस अनुभव को ही विवेक या निज ज्ञान कहते हैं। यह विवेक सब में स्वतः है और भगवत्प्रदत्त है। इन्द्रियाँ , मन और बुद्धि प्रकृति के अंश हैं इसलिये इनसे होने वाला ज्ञान प्रकृतिजन्य है। शास्त्रों को पढ़-सुन कर इन इन्द्रियों , मन , बुद्धि के द्वारा जो पारमार्थिक ज्ञान होता है वह ज्ञान भी एक प्रकार से प्रकृतिजन्य ही है। परमात्मतत्त्व इस प्रकृतिजन्य ज्ञान की अपेक्षा अत्यन्त विलक्षण है। अतः परमात्मतत्त्व को निज ज्ञान (स्वयं से होने वाला ज्ञान ) से ही जाना जा सकता है। निज ज्ञान अर्थात् विवेक को महत्त्व देने से मैं कौन हूँ ? मेरा क्या है ? जड और चेतन क्या हैं ? प्रकृति और परमात्मा क्या हैं ? यह सब जानने की शक्ति आ जाती है। यही विवेक कर्मयोग में भी काम आता है यह मार्मिक बात है। कर्मयोग में विवेक की दो बातें मुख्य हैं (1) अपने होनेपन (मैं हूँ ) में कोई संदेह नहीं है और (2) अभी जो वस्तुएँ मिली हुई हैं उन पर अपना कोई आधिपत्य नहीं है क्योंकि वे पहले अपनी नहीं थीं और बाद में भी अपनी नहीं रहेंगी। मैं (स्वयं ) निरन्तर रहता हूँ और ये मिली हुई वस्तुएँ , शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि निरन्तर बदलती रहती हैं और इनका निरन्तर वियोग होता रहता है। जैसे कर्मों का आरम्भ और समाप्ति होती है , ऐसे ही उनके फल का भी संयोग और वियोग होता है। इसलिये कर्मों और पदार्थों का सम्बन्ध संसार से है स्वयं से नहीं। इस प्रकार विवेक जाग्रत् होते ही कामना का नाश हो जाता है। कामना का नाश होने पर स्वतःसिद्ध निष्कामता प्रकट हो जाती है अर्थात् कर्मयोग पूर्णतः सिद्ध हो जाता है। कामना से विवेक ढक जाता है । स्वार्थ-बुद्धि , भोग-बुद्धि , संग्रह-बुद्धि रखने से मनुष्य अपने कर्तव्य का ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पाता। वह उलझनों को उलझन से ही अर्थात् शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि से ही सुलझाना चाहता है और इसीलिये वह वर्तमान परिस्थिति को बदलने का ही उद्योग करता है परन्तु परिस्थिति को बदलना अपने वश की बात नहीं है इसलिये उलझन सुलझने की अपेक्षा अधिकाधिक उलझती चली जाती है। विवेक जाग्रत् होनेपर जब स्वार्थबुद्धि , भोगबुद्धि , संग्रहबुद्धि नहीं रहती तब अपना कर्तव्य स्पष्ट दिखने लग जाता है और सभी प्रकार की उलझनें स्वतः सुलझ जाती हैं। बाहरी परिस्थिति कर्मों के अनुसार ही बनती है अर्थात् वह कर्मों का ही फल है। धनवत्ता-निर्धनता , निन्दा-स्तुति , आदर-निरादर , यश-अपयश , लाभ-हानि,  जन्म-मरण , स्वस्थता-रुग्णता आदि सभी परिस्थितियाँ कर्मों के अधीन हैं । शुभ और अशुभ कर्मों के फलस्वरूप में अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति सामने आती रहती है परन्तु उस परिस्थिति से सम्बन्ध जोड़कर उसे अपनी मानकर सुखी-दुःखी होना मूर्खता है। तात्पर्य यह है कि अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति का आना तो कर्मों का फल है और उससे सुखी-दुःखी होना अपनी अज्ञता मूर्खता का फल है। कर्मों का फल मिटाना तो हाथ की बात नहीं है पर मूर्खता मिटाना बिलकुल हाथ की बात है। जिसे मिटा सकते हैं उस मूर्खता को तो मिटाते नहीं और जिसे बदल सकते नहीं उस परिस्थिति को बदलने का उद्योग करते हैं यह महान् भूल है इसलिये अपने विवेक को महत्त्व देकर मूर्खता को मिटा देना चाहिये और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों का सदुपयोग करते हुए उनसे ऊँचे उठ जाना अर्थात् असङ्ग हो जाना चाहिये। जो किसी भी परिस्थिति से सम्बन्ध न जोड़कर उसका सदुपयोग करता है अर्थात् अनुकूल परिस्थिति में दूसरों की सेवा करता है तथा प्रतिकूल परिस्थिति में दुःखी नहीं होता अर्थात् सुख की इच्छा नहीं करता वह संसार बन्धन से सुगमतापूर्वक मुक्त हो जाता है। जिसे मनुष्य नहीं चाहता वह प्रतिकूल परिस्थिति पहले किये अशुभ (पाप) कर्मों का फल होती है। अतः पापकर्म तो करने ही नहीं चाहिये। किसी को कष्ट पहुँचे ऐसा काम तो स्वप्न में भी नहीं करना चाहिये परन्तु वर्तमान में (नये) पापकर्म न करने पर भी पुराने पाप कर्मों के फलस्वरूप जब प्रतिकूल परिस्थिति आ जाती है तब अन्तःकरण में चिन्ता , शोक , भय आदि भी आ जाते हैं। इसका कारण यह है कि हमने चिन्ता-शोक को अधिक परिचित बना लिया है। जैसे बिक्री की हुई गाय पुराने स्थान से परिचित होने के कारण बार-बार वहीं आ जाती है परन्तु उसे बार-बार नये स्थान पर पहुँचा दिया जाय तो फिर वह पुराने स्थान पर आना छोड़ देती है। ऐसे ही आज और अभी यह दृढ़ विचार कर लें कि आने-जाने वाली परिस्थिति से सम्बन्ध जोड़कर चिन्ता-शोक करना गलती है । यह गलती अब हम नहीं करेंगे तो फिर ये चिन्ता-शोक आना छोड़ देंगे। विवेक की पूर्ण जागृति न होने पर भी कर्मयोगी में एक निश्चयात्मिका बुद्धि रहती है कि जो अपना नहीं है उससे सम्बन्ध-विच्छेद करना है और सांसारिक सुखों को न भोग कर केवल सेवा करनी है। इस निश्चयात्मिका बुद्धि के कारण उसके अन्तःकरण में सांसारिक सुखों का महत्त्व नहीं रहता। फिर भोगों में सुख है ऐसे भ्रम में उसे कोई डाल नहीं सकता। अतः इस एक निश्चय को अटल रखने से ही उसका कल्याण हो जाता है। सत्सङ्ग से , स्वाध्याय से ऐसी निश्चयात्मिका बुद्धि को बल मिलता है। अतः हर एक साधक को कम से कम ऐसा कल्याणकारी निश्चय अवश्य ही बना लेना चाहिये। ऐसा निश्चय बनाने में सब स्वाधीन हैं कोई पराधीन नहीं है। इसमें किसी की किञ्चित् भी सहायता की आवश्यकता नहीं है क्योंकि इसमें स्वयं बलवान है- स्वामी रामसुखदास जी )

 

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