Bhagavat Gita in hindi chapter 4

 

 

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ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार

01-15 योग परंपरा, भगवान के जन्म कर्म की दिव्यता, भक्त लक्षणभगवत्स्वरूप

 

 

Bhagavat Gita in hindi chapter 4

 

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥4.7॥

 

यदा यदाजब जब भी; हिनिश्चय ही; धर्मस्य धर्म की; ग्लानिःपतन; भवति होती है; भारतभरतवंशी, अर्जुन; अभ्युत्थानम्वृद्धि; अधर्मस्यअधर्म की; तदाउस समय; आत्मानम्स्वयं को; सृजामिअवतार लेकर प्रकट होता हूँ; अहम्मैं।

  

हे भारत! जबजब धर्म की हानि ( पतन ) और अधर्म की वृद्धि होती है, तबतब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ या पृथ्वी पर अवतार लेता हूँ ॥4.7

 

( धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि का स्वरूप है जब भगवत्प्रेमी , धर्मात्मा , सदाचारी , निरपराध और निर्बल मनुष्यों पर नास्तिक, पापी, दुराचारी और बलवान् मनुष्यों का अत्याचार बढ़ जाना तथा लोगों में सद्गुण – सदाचारों की अत्यधिक कमी और दुर्गुण-दुराचारों की अत्यधिक वृद्धि हो जाना। जब-जब आवश्यकता पड़ती है तब-तब भगवान् अवतार लेते हैं। एक युग में भी जितनी बार आवश्यकता और अवसर प्राप्त हो जाय उतनी बार अवतार ले सकते हैं। उदाहरणार्थ समुद्र-मन्थन के समय भगवन ने अजित रूप से समुद्रमन्थन किया , कच्छपरूप से मन्दराचल को धारण किया तथा सहस्रबाहुरूप से मन्दराचल को ऊपर से दबाकर रखा। फिर देवताओं को अमृत बाँटने के लिये मोहिनी रूप धारण किया। इस प्रकार भगवान् ने एक साथ अनेक रूप धारण किये। अधर्म की वृद्धि और धर्म का ह्रास होने का मुख्य कारण है नाशवान् पदार्थों की ओर आकर्षण। जैसे माता और पिता से शरीर बनता है , ऐसे ही प्रकृति और परमात्मा से सृष्टि बनती है। इसमें प्रकृति और उसका कार्य संसार तो प्रतिक्षण बदलता रहता है , कभी क्षणमात्र भी एकरूप नहीं रहता और परमात्मा तथा उनका अंश जीवात्मा दोनों सम्पूर्ण देश , काल आदि में नित्य-निरन्तर रहते हैं । इनमें कभी किञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता। जब जीव अनित्य और उत्पत्तिशील और विनाशशील प्राकृत पदार्थों से सुख पाने की इच्छा करने लगता है और उनकी प्राप्ति में सुख मानने लगता है तब उसका पतन होने लगता है। लोगों की सांसारिक भोग और संग्रह में ज्यों-ज्यों आसक्ति बढ़ती है त्यों ही त्यों समाज में अधर्म बढ़ता है और ज्यों-ज्यों अधर्म बढ़ता है त्यों ही त्यों समाज में पापाचरण , कलह, विद्रोह आदि दोष बढ़ते हैं। सत्ययुग , त्रेतायुग , द्वापरयुग और कलियुग इन चारों युगों की ओर देखा जाय तो इनमें भी क्रमशः धर्म का ह्रास होता है। सत्ययुग में धर्म के चारों चरण रहते हैं, त्रेतायुग में धर्म के तीन चरण रहते हैं , द्वापरयुग में धर्म के दो चरण रहते हैं और कलियुग में धर्म का केवल एक चरण शेष रहता है। जब युग की मर्यादा से भी अधिक धर्म का ह्रास हो जाता है तब भगवान् धर्म की पुनः स्थापना करने के लिये अवतार लेते हैं। जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब-तब भगवान् अवतार ग्रहण करते हैं। अतः भगवान् के अवतार लेने का मुख्य प्रयोजन है धर्म की स्थापना करना और अधर्म का नाश करना। धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होने पर लोगों की प्रवृत्ति अधर्म में हो जाती है। अधर्म में प्रवृत्ति होने से स्वाभाविक पतन होता है। भगवान् प्राणिमात्र के परम सुहृद् हैं। इसलिये लोगों को पतन में जाने से रोकने के लिये वे स्वयं अवतार लेते हैं। कर्मों में सकामभाव उत्पन्न होना ही धर्म की हानि है और अपने-अपने कर्तव्य से च्युत होकर निषिद्ध आचरण करना ही अधर्म का अभ्युत्थान है । काम अर्थात् कामना से ही सब के सब अधर्म , पाप , अन्याय आदि होते हैं । अतः इस काम का नाश करने के लिये तथा निष्कामभाव का प्रसार करने के लिये भगवान् अवतार लेते हैं।  यहाँ शङ्का हो सकती है कि वर्तमान समयमें धर्म का ह्रास और अधर्म की वृद्धि बहुत हो रही है फिर भगवान् अवतार क्यों नहीं लेते । इसका समाधान यह है कि युग को देखते हुए अभी वैसा समय नहीं आया है जिससे भगवान् अवतार लें। त्रेतायुग में राक्षसों ने ऋषि-मुनियों को मारकर उनकी हड्डियों के ढेर लगा दिये थे। यह तो त्रेतायुग से भी गया-बीता कलियुग है पर अभी धर्मात्मा पुरुष जी रहे हैं उनका कोई नाश नहीं करता। दूसरी एक बात और है। जब धर्म का ह्रास और अधर्म की वृद्धि होती है तब भगवान् की आज्ञा से संत इस पृथ्वी परआते हैं अथवा यहीं से विशेष साधक पुरुष प्रकट हो जाते हैं और धर्म की स्थापना करते हैं। कभी-कभी परमात्मा को प्राप्त हुए कारक महापुरुष भी संसार का उद्धार करने के लिये आते हैं। साधक और सन्त पुरुष जिस देश में रहते हैं उस देश में अधर्म की वैसी वृद्धि नहीं होती और धर्म की स्थापना होती है। जब साधकों और सन्त-महात्माओं से भी लोग नहीं मानते बल्कि उनका विनाश करना आरम्भ कर देते हैं और जब धर्म का प्रचार करने वाले बहुत कम रहते हैं तथा जिस युगमें जैसा धर्म होना चाहिये उसकी अपेक्षा भी बहुत अधिक धर्म का ह्रास हो जाता है तब भगवान् स्वयं आते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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