Bhagavat Gita in hindi chapter 4

 

 

Previous         Menu         Next 

 

ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार

34-42 ज्ञान की महिमा तथा अर्जुन को कर्म करने की प्रेरणा

 

 

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 4

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।

ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥4.37॥

 

यथाजिस प्रकार से; एधांसि – ईंधन को; समिःजलती हुई; अग्नि:-अग्नि; भस्मसात्राख; कुरुतेकर देती है; अर्जुनअर्जुन; ज्ञानअग्निःज्ञान रूपी अग्नि; सर्वकर्माणिभौतिक कर्मों के समस्त फल को; भस्मसात्भस्म; कुरुतेकरती है; तथाउसी प्रकार से।

 

जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि लकड़ी ( ईंधन ) को स्वाहा कर देती है उसी प्रकार से हे अर्जुन! ज्ञान रूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों और उन भौतिक कर्मों से प्राप्त होने वाले समस्त फलों को भस्म कर देती है ॥4.37

 

( भगवान ने ज्ञानरूपी नौका के द्वारा सम्पूर्ण पापसमुद्र से तरने की बात कही। उससे यह प्रश्न पैदा होता है कि पापसमुद्र तो शेष रहता ही है फिर उसका क्या होगा ? अतः भगवान् पुनः दूसरा दृष्टान्त देते हुए कहते हैं कि जैसे प्रज्वलित अग्नि काष्ठ या लकड़ी आदि सम्पूर्ण ईंधनों को इस प्रकार भस्म कर देती है कि उनका किञ्चिन्मात्र ( जरा सा भी / थोड़ा सा भी  )भी अंश शेष नहीं रहता । ऐसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण पापों को इस प्रकार भस्म कर देती है कि उनका किञ्चिन्मात्र भी अंश शेष नहीं रहता। जैसे अग्नि काष्ठ को भस्म कर देती है ऐसे ही तत्त्वज्ञान रूपी अग्नि संचित , प्रारब्ध और क्रियमाण तीनों कर्मों को भस्म कर देती है। जैसे अग्नि में काष्ठ का अत्यन्त अभाव हो जाता है ऐसे ही तत्त्वज्ञान में सम्पूर्ण कर्मों का अत्यन्त अभाव हो जाता है। तात्पर्य यह है कि ज्ञान होने पर कर्मों से अथवा संसार से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। सम्बन्ध-विच्छेद होने पर संसार की स्वतन्त्र सत्ता का अनुभव नहीं होता बल्कि एक परमात्मतत्त्व ही शेष रहता है।वास्तव में मात्र क्रियाएँ प्रकृति के द्वारा ही होती हैं । उन क्रियाओं से अपना सम्बन्ध मान लेने से कर्म होते हैं। नाड़ियों में रक्तप्रवाह होना,  शरीर का बालक से जवान होना , श्वासों का आना-जाना , भोजन का पचना आदि क्रियाएँ जिस समष्टि प्रकृति से होती हैं उसी प्रकृति से खाना-पीना , चलना – बैठना , देखना – बोलना आदि क्रियाएँ भी होती हैं परन्तु मनुष्य अज्ञानवश उन क्रियाओं से अपना सम्बन्ध मान लेता है अर्थात् अपने को उन क्रियाओं का कर्ता मान लेता है। इससे वे क्रियाएँ कर्म बनकर मनुष्य को बाँध देती हैं। इस प्रकार माने हुए सम्बन्ध से ही कर्म होते हैं अन्यथा क्रियाएँ ही होती हैं। तत्त्वज्ञान होने पर अनेक जन्मों के संचित कर्म सर्वथा नष्ट हो जाते हैं। कारण कि सभी संचित कर्म अज्ञान के आश्रित रहते हैं । अतः ज्ञान होते ही (आश्रय आधाररूप अज्ञान न रहने से ) वे नष्ट हो जाते हैं। तत्त्वज्ञान होने पर कर्तृत्वाभिमान ( कर्तापन का अभिमान ) नहीं रहता । अतः सभी क्रियमाण कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् फलजनक नहीं होते। प्रारब्ध कर्म का घटना अंश (अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति ) तो जब तक शरीर रहता है तब तक रहता है परन्तु ज्ञानी पर उसका कोई असर नहीं पड़ता। कारण कि तत्त्वज्ञान होने पर भोक्तृत्व ( भोक्तापन ) नहीं रहता । अतः अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति सामने आने पर वह सुखी-दुःखी नहीं होता। इस प्रकार तत्त्वज्ञान होने पर संचित , प्रारब्ध और क्रियमाण तीनों कर्मों से किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता। कर्मों से अपना सम्बन्ध न रहने से कर्म नहीं रहते , केवल भस्म रह जाती है अर्थात् सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

       Next

 

 

By spiritual talks

Welcome to the spiritual platform to find your true self, to recognize your soul purpose, to discover your life path, to acquire your inner wisdom, to obtain your mental tranquility.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!