Bhagavat Gita in hindi chapter 4

 

 

Previous         Menu         Next 

 

ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार

01-15 योग परंपरा, भगवान के जन्म कर्म की दिव्यता, भक्त लक्षणभगवत्स्वरूप

 

 

Bhagavat Gita in hindi chapter 4

 

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।

त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥4.9॥

 

जन्मजन्म; कर्मकर्म; और; मे मेरे; दिव्यम्दिव्य; एवम्इस प्रकार; यःजो कोई; वेत्तिजानता है; तत्त्वतःवास्तव में; त्यक्त्वात्याग कर; देहम्शरीर में; पुनःफिर; जन्मजन्म; कभी नहीं; एतिप्राप्त करता है; माम्मुझको; एतिप्राप्त करता है; सःवह; अर्जुनअर्जुन।

 

हे अर्जुन! जो मेरे जन्म एवं कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानते हैं वे शरीर छोड़ने पर संसार में पुनः जन्म नहीं लेते अपितु मेरे नित्य धाम को प्राप्त करते हैं।। 4.9

 ( ईश्वर के जन्म और कर्म दिव्य अर्थात निर्मल और अलौकिक हैंइस प्रकार जो मनुष्य तत्व से (सर्वशक्तिमान, सच्चिदानन्दन परमात्मा अज, अविनाशी और सर्वभूतों के परम गति तथा परम आश्रय हैं, वे केवल धर्म की स्थापना करने और संसार का उद्धार करने के लिए ही अपनी योगमाया से सगुणरूप होकर प्रकट होते हैं। इसलिए परमेश्वर के समान सुहृद्, प्रेमी और पतितपावन दूसरा कोई नहीं है, ऐसा समझकर जो पुरुष परमेश्वर का अनन्य प्रेम से निरन्तर चिन्तन करता हुआ आसक्तिरहित संसार में बर्तता है, वही उनको तत्व से जानता है।) जान लेता है, वह शरीर को त्याग कर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता, किन्तु ईश्वर ही प्राप्त होता है। )

 

( भगवान जन्म-मृत्यु से सर्वथा अतीत ,अजन्मा और अविनाशी हैं। उनका मनुष्यरूप  में अवतार साधारण मनुष्योंकी तरह नहीं होता। वे कृपापूर्वक मात्र जीवों का हित करने के लिये स्वतन्त्रतापूर्वक मनुष्य आदि के रूप में जन्मधारण की लीला करते हैं। उनका जन्म कर्मों के परवश नहीं होता। वे अपनी इच्छा से ही शरीर धारण करते हैं । भगवान का साकार विग्रह जीवों के शरीरों की तरह हाड़-मांस का नहीं होता। जीवों के शरीर तो पाप-पुण्यमय , अनित्य , रोगग्रस्त , लौकिक , विकारी , पाञ्चभौतिक और रजवीर्य से उत्पन्न होने वाले होते हैं पर भगवान के विग्रह पाप-पुण्य से रहित , नित्य , अनामय , अलौकिक , विकाररहित , परम दिव्य और प्रकट होने वाले होते हैं। अन्य जीवों की अपेक्षा तो देवताओं के शरीर भी दिव्य होते हैं पर भगवान का शरीर उनसे भी अत्यन्त विलक्षण होता है जिसका देवता लोग भी सदा ही दर्शन चाहते रहते हैं (गीता 11। 52)। भगवान जब श्रीराम तथा श्रीकृष्ण के रूप में इस पृथ्वी पर आये तब वे माता कौसल्या और देवकी के गर्भ से उत्पन्न नहीं हुए। पहले उन्हें अपने शङ्ख-चक्र-गदा-पद्मधारी स्वरूप का दर्शन देकर फिर वे माता की प्रार्थना पर बालरूप में लीला करने लगे। भगवान् श्रीराम के लिये गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं – (भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी।।लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी।भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी।।माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा।कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा।।सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा। )भगवान् श्रीकृष्ण के लिये आया है – उपसंहर विश्वात्मन्नदो रूपमलौकिकम्।शङ्खचक्रगदापद्मश्रिया जुष्टं चतुर्भुजम्।।(श्रीमद्भा0 10। 3। 30) माता देवकी ने कहा – “विश्वात्मन् शङ्ख चक्र गदा और पद्म की शोभा से युक्त इस चार भुजाओं वाले अपने अलौकिक दिव्य रूप को अब छिपा लीजिये । तब भगवान ने माता-पिता के देखते-देखते अपनी माया से तत्काल एक साधारण शिशु का रूप धारण कर लिया। ( पित्रोः सम्पश्यतोः सद्यो बभूव प्राकृतः शिशुः।। श्रीमद्भा0 10। 3। 46) जब भगवान् श्रीराम अपने धाम पधारने लगे तब वे अन्तर्धान हुए। जीवों के शरीरों की तरह उनका शरीर यहाँ नहीं रहा बल्कि वे इसी शरीर से अपने धाम चले गये। ( पितामहवचः श्रुत्वा विनिश्चित्य महामतिः।विवेश वैष्णवं तेजः सशरीरः सहानुजः।।वाल्मीकिरामायण उत्तर0 110। 12)महामति भगवान् श्रीराम ने पितामह ब्रह्माजी के वचन सुनकर और तदनुसार निश्चय करके तीनों भाइयों सहित अपने उसी शरीर से वैष्णव तेज में प्रवेश किया। भगवान् श्रीकृष्ण के लिये भी ऐसी ही बात आयी है – लोकाभिरामां स्वतनुं धारणाध्यानमङ्गलम्।योगधारणयाऽऽग्नेय्यादग्ध्वा धामाविशत् स्वकम्।।(श्रीमद्भा0 11। 31। 6)धारणा और ध्यान के लिये अति मङ्गलरूप अपनी लोकाभिरामा मोहिनी मूर्ति को योगधारणाजनित अग्नि के द्वारा भस्म किये बिना ही भगवान ने अपने धाम में सशरीर प्रवेश किया। भगवान के विग्रह (दिव्य शरीर) के विषय में महामुनि वाल्मीकिजी भगवान् श्रीराम से कहते हैं – चिदानंदमय देह तुम्हारी। बिगत बिकार जान अधिकारी।।नर तनु धरेहु संत सुर काजा। कहहु करहु जस प्राकृत राजा।।(मानस 2। 127। 3) एक बार सनकादि ऋषि वैकुण्ठ धाम में जा रहे थे। वहाँ भगवान के द्वारपालों ने उन्हें भीतर जाने से रोका तब सनकादि ने उन्हें शाप दे दिया। अपने अनुचरों के द्वारा सनकादि का अपमान हुआ जानकर भगवान् स्वयं वहाँ पधारे। उस समय भगवान का दर्शन करने से उनकी बड़ी विलक्षण दशा हुई। उन्होंने भगवान के चरणों में प्रणाम किया – (तस्यारविन्दनयनस्य पदारविन्द किञ्जल्कमिश्रतुलसीमकरन्दवायुः।।अन्तर्गतः स्वविवरेण चकार तेषां संक्षोभमक्षरजुषामपि चित्ततन्वोः।।श्रीमद्भा0 3। 15। 43) प्रणाम करने पर उन कमलनेत्र भगवान के चरणकमल के पराग से मिली हुई तुलसी मञ्जरी की वायु ने उनके नासिका छिद्रों में प्रवेश करके उन अक्षर परमात्मा में नित्य स्थित रहने वाले ज्ञानी महात्माओं के भी चित्त और शरीर को क्षुब्ध कर दिया। शब्दादि विषयों में गंध कोई इतनी विलक्षण चीज नहीं है जिसमें मन आकृष्ट हो जाय पर भगवान के चरणकमलों की गंध से नित्य-निरन्तर परमात्मस्वरूप में मग्न रहने वाले सनकादिकों के चित्त में भी खलबली पैदा हो गयी। कारण कि वह पृथ्वी की विकाररूप गंध नहीं थी बल्कि दिव्य गंध थी। ऐसे ही भगवान के विग्रह की प्रत्येक वस्तु (वस्त्र, आभूषण ,आयुध आदि) दिव्य , चिन्मय और अत्यन्त विलक्षण है। भगवान की लीलाओं को सुनने , पढ़ने , याद करने आदि से लोगों का अन्तःकरण निर्मल , पवित्र हो जाता है और उनका अज्ञान दूर हो जाता है यह भगवान के कर्मों की दिव्यता है। ज्ञानस्वरूप भगवान् शंकर , ब्रह्माजी , सनकादिक ऋषि , देवर्षि नारद आदि भी उनकी लीलाओं को गाकर और सुनकर मग्न हो जाते हैं। भगवान के अवतार के जो लीलास्थल हैं उन स्थानों में आस्तिकभाव से श्रद्धाप्रेमपूर्वक निवास करने से एवं उनका दर्शन करने से भी मनुष्य का कल्याण हो जाता है। तात्पर्य है कि भगवान् मात्र जीवों का कल्याण करने के उद्देश्य से ही अवतार लेते हैं और लीलाएँ करते हैं अतः उनकी लीलाओं को पढ़ने , सुनने से उनका मनन-चिन्तन करने से स्वाभाविक ही उस उद्देश्य की सिद्धि हो जाती है। चौथे श्लोक में अर्जुन ने भगवान से केवल उनके जन्म के विषय में पूछा था परन्तु यहाँ भगवान ने अर्जुनके पूछे बिना अपनी तरफ से कर्म के विषय में कहना आरम्भ कर दिया । इसमें भगवान का यह अभिप्राय प्रतीत होता है कि जैसे मेरे कर्म दिव्य हैं वैसे तुम्हारे कर्म भी दिव्य होने चाहिये। कारण कि मनुष्य का जन्म तो दिव्य नहीं हो सकता पर उसके कर्म अवश्य दिव्य हो सकते हैं क्योंकि उसी के लिये उसका जन्म हुआ है। कर्मों में दिव्यता (शुद्धि) योग से आती है। जो कर्म बाँधने वाले होते हैं उनमें दिव्यता आने से वे ही कर्म मुक्ति देने वाले हो जाते हैं। कर्म दिव्य (फल की इच्छा , ममता , आसक्ति से रहित) होने पर कर्ता एक तो उन कर्मों से बँधता नहीं दूसरे वह पुराने कर्मों से भी नहीं बँधता मुक्त हो जाता है और तीसरे उसके द्वारा होने वाले कर्मों से दूसरों का भी हित स्वतः होता रहता है। गम्भीरतापूर्वक विचार करके देखें तो उत्पत्तिविनाशशील वस्तुओं के साथ अपना सम्बन्ध मानने से ही कर्मों में मलिनता आती है और वे बाँधनेवाले होते हैं। विनाशी से अपना सम्बन्ध मानने से अन्तःकरण , कर्म और पदार्थ तीनों ही मलिन हो जाते हैं और विनाशी से माना हुआ सम्बन्ध छूट जाने से ये तीनों स्वतः पवित्र हो जाते हैं। अतः विनाशी से माना हुआ सम्बन्ध ही मूल बाधा है। अजन्मा और अविनाशी होते हुए तथा प्राणिमात्र का ईश्वर होते हुए भी भगवान मात्र जीवों के हित के लिये अपनी प्रकृति को अधीन करके स्वतन्त्रतापूर्वक युग-युग में मनुष्य आदि के रूप में अवतार लेते हैं । इस तत्त्व को जानना अर्थात् दृढ़तापूर्वक मानना भगवान के जन्मों की दिव्यता को जानना है। सम्पूर्ण क्रियाओं को करते हुए भी भगवान् अकर्ता ही हैं अर्थात् उनमें करने का अभिमान नहीं है (गीता 4। 13) और किसी भी कर्मफल में उनकी स्पृहा (फलेच्छा) नहीं है (गीता 4। 14) इस तत्त्व को जानना भगवान के कर्मों की दिव्यता को जानना है। जैसे भगवान के जन्म में स्वाभाविक ही मात्र जीवों की हितैषिता और कर्म में निर्लिप्तता है ऐसे ही मनुष्य में भी मात्र जीवों की हितैषिता और कर्म में निर्लिप्तता आ जाना ही वास्तवमें भगवान के जन्म और कर्म के तत्त्व को जानना है । भगवान को त्रिलोकी में न तो कुछ करना शेष है और न कुछ पाना ही शेष है (गीता 3। 22)। फिर भी वे केवल जीवमात्र का उद्धार करने के लिये कृपापूर्वक इस भूमण्डल पर अवतार लेते हैं और तरह-तरहकी अलौकिक लीलाएँ करते हैं। उन लीलाओं को गाने से , सुनने से ,पढ़ने से और उनका चिन्तन करने से भगवान के साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है। भगवान से सम्बन्ध जुड़ने पर संसार का सम्बन्ध छूट जाता है। संसार का सम्बन्ध छूटने पर पुनर्जन्म नहीं होता अर्थात् मनुष्य जन्म-मरण रूप बन्धन से मुक्त हो जाता है। वास्तव में कर्म बन्धनकारक नहीं होते। कर्मों में जो बाँधने की शक्ति है वह केवल मनुष्य की अपनी बनायी हुई (कमाना) है। कामना की पूर्ति के लिये रागपूर्वक अपने लिये कर्म करने से ही मनुष्य कर्मों से बँध जाता है। फिर ज्यों-ज्यों कामना बढ़ती है त्यों-त्यों वह पापों में प्रवृत्त होने लगता है । इस प्रकार उसके कर्म अत्यन्त मलिन हो जाते हैं जिससे वह बारंबार नीच योनियों और नरकोंमें गिरता रहता है परन्तु जब वह केवल दूसरों की सेवा के लिये निष्कामभावपूर्वक कर्म करता है तब उसके कर्मों में दिव्यता , विलक्षणता आती चली जाती है। इस प्रकार कामना का सर्वथा नाश होने पर उसके कर्म दिव्य हो जाते हैं अर्थात् बन्धनकारक नहीं होते फिर उसके पुनर्जन्म का प्रश्न ही नहीं रहता।नाशवान कर्मों से अपना सम्बन्ध मानने के कारण नित्यप्राप्त परमात्मा भी अप्राप्त प्रतीत होते हैं। निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरों के हित के लिये सम्पूर्ण कर्म करने से मात्र कर्मों का प्रवाह केवल संसार की तरफ हो जाता है और नित्यप्राप्त परमात्मा का अनुभव हो जाता है। जीवों पर महान कृपा ही भगवान के जन्म में कारण है । इस प्रकार भगवान के जन्म की दिव्यता को जानने से मनुष्य की भगवान में भक्ति हो जाती है । भक्ति से भगवान की प्राप्ति हो जाती है। भगवान के कर्मों की दिव्यता को जानने से मनुष्य के कर्म भी दिव्य हो जाते हैं अर्थात् वे बन्धनकारक न होकर स्वयं का और दूसरों का कल्याण करने वाले हो जाते हैं , जिससे संसार से सम्बन्ध-विच्छेदपूर्वक भगवान की प्राप्ति हो जाती है। सम्पूर्ण कर्म आरम्भ और समाप्त होने वाले हैं (और कर्म के फलस्वरूप जो कुछ प्राप्त होता है वह भी अनित्य और नाशवान् होता है ) परन्तु स्वयं (जीवात्मा) नित्य निरन्तर रहने वाला है। अतः वास्तव में स्वयं का कर्मों के साथ कोई सम्बन्ध है नहीं  बल्कि माना हुआ है। अतः सम्पूर्ण कर्मों को करते हुए भी उनके साथ अपना सम्बन्ध है ही नहीं ऐसा अनुभव करे तो उसके कर्म दिव्य हो जाते हैं यह कर्मों का तत्त्व है। यही कर्मयोग है । क्रियाशील प्रकृति के साथ तादात्म्य होने के कारण मनुष्यमात्र में कर्म करने का वेग रहता है। वह क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रहता (गीता 3। 5)। संसार में वह देखता है कि कर्म करने से ही सिद्धि ( वस्तु की प्राप्ति ) होती है। इसी कारण वह परमात्मा की प्राप्ति भी कर्मों के द्वारा ही करना चाहता है परन्तु यह उसकी महान भूल है। कारण कि नाशवान कर्मों के द्वारा नाशवान वस्तु की ही प्राप्ति होती है अविनाशी की प्राप्ति नहीं होती। अविनाशी की प्राप्ति तो कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर ही होती है। कर्मों से सम्बन्ध – विच्छेद कर्मयोग में (ज्ञानयोग की अपेक्षा भी ) सरलता से हो जाता है। कारण कि कर्मयोग में स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों शरीरों से होने वाले सम्पूर्ण कर्म निष्कामभावपूर्वक केवल संसार के हित के लिये होने से कर्मों का प्रवाह संसार की तरफ हो जाता है और अपना कर्मों से सम्बन्धविच्छेद हो जाता है। यहाँ भगवान ने ‘ माम् एति ‘पदों से यह भाव प्रकट किया है कि मनुष्य कर्मों के द्वारा जिसकी सिद्धि चाहता है वह परमात्मतत्त्व स्वतःसिद्ध (नित्यप्राप्त) है। स्वतःसिद्ध वस्तु के लिये करना कैसा , जो वस्तु प्राप्त है उसे प्राप्त करना कैसा , करने से तो उस वस्तु की प्राप्ति होती है जो पहले अप्राप्त थी। एक उत्पत्ति होती है और एक खोज होती है। उत्पत्ति उसकी होती है जिसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है जिसका पहले अभाव है और बाद में जिसका विनाश हो जाता है। खोज उसकी होती है जिसकी स्वतन्त्र सत्ता है जो पहले से विद्यमान है और नित्य-निरन्तर रहता है किन्तु जो क्रिया और पदार्थरूप संसार का महत्त्व मान लेने से छिप गया है। जब मनुष्य क्रियाओं और पदार्थों को केवल दूसरों की सेवा में लगा देता है तब क्रियापदार्थरूप संसार से स्वतः सम्बन्ध-विच्छेद और नित्यप्राप्त परमात्मा का साक्षात अनुभव हो जाता है। यही नित्यप्राप्त की खोज है। कर्तव्यकर्मों को न करके प्रमाद , आलस्य करना और कर्तव्यकर्मों को करके उनके फल की इच्छा रखना , इन दोनों कारणों से मनुष्य को नित्यप्राप्त परमात्मा के अनुभव में बाधा लगती है। इस बाधा को दूर करने का उपाय है फल की इच्छा न रखकर , दूसरों की सेवा के रूप से कर्तव्यकर्म करना। फल की इच्छा न रखकर , कर्तव्यकर्म करने से कर्मों से सम्बन्धविच्छेद हो जाता है। कर्मों से सम्बन्धविच्छेद होते ही परमात्मा से हमारा जो स्वतःसिद्ध नित्यसम्बन्ध है उसका अनुभव हो जाता है- स्वामी रामसुखदास जी

 

         Next 

 

 

By spiritual talks

Welcome to the spiritual platform to find your true self, to recognize your soul purpose, to discover your life path, to acquire your inner wisdom, to obtain your mental tranquility.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!