Bhagavat Gita in hindi chapter 4

 

 

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ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार

01-15 योग परंपरा, भगवान के जन्म कर्म की दिव्यता, भक्त लक्षणभगवत्स्वरूप

 

 

Bhagavat Gita in hindi chapter 4

वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः ।

बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ॥4.10॥

 

वीतसे मुक्त; रागआसक्ति; भयभय; क्रोधा:-क्रोध; मत् मयामुझमें पूर्णतया तल्लीन; माम्मुझमें; उपाश्रिताःपूर्णतया आश्रित; बहवःअनेक; ज्ञानज्ञान; तपसाज्ञान में तपकर; पूताःशुद्ध होना; मत् भवम्मेरा दिव्य प्रेम; आगताःप्राप्त करता है।

 

आसक्ति, भय और क्रोध से मुक्त होकर पूर्ण रूप से मुझमें तल्लीन होकर मेरी शरण ग्रहण कर अनन्य प्रेमपूर्वक स्थित रहते थे ऐसे मेरे आश्रित रहने वाले बहुत से भक्त भूतकाल में अनेक लोग मेरे ज्ञान रूप तप से पवित्र हो चुके हैं और इस प्रकार से उन्होंने मेरा दिव्य प्रेम और मेरे दिव्य स्वरूप प्राप्त किया है ॥4.10॥

 

परमात्मा से विमुख होने पर नाशवान् पदार्थों में राग हो जाता है। राग से फिर प्राप्त में ममता और अप्राप्त की कामना उत्पन्न होती है। रागवाले (प्रिय) पदार्थों की प्राप्ति होने पर तो लोभ होता है पर उनकी प्राप्ति में बाधा पहुँचने पर (बाधा पहुँचाने वाले पर) क्रोध होता है। यदि बाधा पहुँचाने वाला व्यक्ति अपने से अधिक बलवान हो और उस पर अपना वश न चल सकता हो तथा समय पर वह हमारा अनिष्ट कर देगा ऐसी सम्भावना हो तो भय होता है। इस प्रकार नाशवान पदार्थों के राग से ही भय , क्रोध , लोभ , ममता , कामना आदि सभी दोषों की उत्पत्ति होती है। राग के मिटने पर ये सभी दोष मिट जाते हैं। पदार्थों को अपना और अपने लिये न मानकर दूसरों का और दूसरों के लिये मानकर उनकी सेवा करने से राग मिटता है। कारण कि वास्तव में पदार्थ और क्रिया से हमारा सम्बन्ध है ही नहीं। अपना कोई प्रयोजन न रहने पर भी भगवान केवल हमारे कल्याण के लिये ही अवतार लेते हैं। कारण कि वे प्राणीमात्र के परम सुहृद् हैं और उनकी सम्पूर्ण क्रियाएँ मात्र जीवों के कल्याण के लिये ही होती हैं। इस प्रकार भगवान की परम सुहृत्ता पर दृढ़ विश्वास होने से भगवान में  आकर्षण हो जाता है। भगवान में आकर्षण होने से संसार का आकर्षण (राग) स्वतः मिट जाता है। जैसे बचपन में बालकों का कंकड़ –  पत्थरों में आकर्षण होता है और उनसे वे खेलते हैं। खेल में वे कंकड़-पत्थरोंके लिये लड़ पड़ते हैं। एक कहता है कि यह मेरा है और दूसरा कहता है कि यह मेरा है। इस प्रकार गली में पड़े कंकड़-पत्थरों में ही उन्हें महत्ता दिखती है परन्तु जब वे बड़े हो जाते हैं तब कंकड़-पत्थरों में उनका आकर्षण मिट जाता है और रुपयों में आकर्षण हो जाता है। रुपयों में आकर्षण होने पर उन्हें कंकड़-पत्थरों में अथवा खिलौनों में कोई महत्ता नहीं दिखती । ऐसे ही जब मनुष्य की परमात्मा में लगन लग जाती है तब उसके लिये संसार के रुपये और सब पदार्थ आकर्षक न रहकर फीके पड़ जाते हैं। उसका संसार में आकर्षण या राग मिट जाता है। राग मिटते ही भय और क्रोध दोनों मिट जाते हैं क्योंकि ये दोनों राग के ही आश्रित रहते हैं। भगवान के जन्म और कर्म की दिव्यता को तत्त्व से जानने से मनुष्यों की भगवान में प्रियता हो जाती है । प्रियता होने से वे भगवान के ही शरण हो जाते हैं और शरण होने से वे स्वयं मन्मयाः अर्थात् भगवन्मय हो जाते हैं। सांसारिक भोगों में आकर्षण वाले मनुष्य भोगों की कामनाओं में तन्मय हो जाते हैं और भगवान में आकर्षणवाले मनुष्य भगवान में तन्मय हो जाते हैं तन्मयाः (नारदभक्तिसूत्र 70)। वे हर समय भगवान में ही तल्लीन रहते हैं। उनके विचारों , आचरणों आदि में भगवान की ही मुख्यता रहती है। प्रेम की अधिकता के कारण वे भगवत्स्वरूप बन जाते हैं मानो उनकी अपनी कोई अलग सत्ता ही न हो । “मामुपाश्रिताः वीतरागभयक्रोधाः ” में संसार से स्वयं का सम्बन्धविच्छेद है और “मन्मयाः माम् उपाश्रिताः” में भगवान की तल्लीनता है। किसी न किसी का आश्रय लिये बिना मनुष्य रह ही नहीं सकता। भगवान का अंश जीव भगवान से विमुख होकर दूसरे का आश्रय लेता है तो वह आश्रय टिकता नहीं बल्कि मिटता जाता है। धन आदि नाशवान पदार्थों का आश्रय पतन करने वाला होता है। इतना ही नहीं शुभकर्मों को करने में बुद्धि का भगवत्प्राप्ति के साधनों का तथा भोग और संग्रह के त्याग का आश्रय लेने पर भी भगवत्प्राप्ति में देरी लगती है। जब तक मनुष्य स्वयं (स्वरूप से) भगवान के आश्रित नहीं हो जाता तब तक उसकी पराधीनता मिटती नहीं और वह दुःख पाता ही रहता है। संसार के पदार्थों में मनुष्य का आकर्षण और आश्रय अलग-अलग होता है जैसे मनुष्य का आकर्षण तो स्त्री , पुत्र आदि में होता है और आश्रय बड़ों का होता है परन्तु भगवान में लगे हुए मनुष्य का भगवान में ही आकर्षण होता है और भगवान का ही आश्रय होता है क्योंकि प्रिय से प्रिय भी भगवान हैं और बड़े से बड़े भी भगवान हैं। “बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ” यद्यपि ज्ञानयोग (सांख्यनिष्ठा ) से भी मनुष्य पवित्र हो सकता है तथापि यहाँ भगवान के जन्म और कर्म की दिव्यता को तत्त्व से जानने को ज्ञान कहा गया है। इस ज्ञान से मनुष्य पवित्र हो जाता है क्योंकि भगवान पवित्रों से भी पवित्र हैं – “पवित्राणां पवित्रं यः”। भगवान का ही अंश होने से जीव में भी स्वतःस्वाभाविक पवित्रता है-  चेतन अमल सहज सुख रासी (मानस 7। 117। 1)। नाशवान पदार्थों को महत्त्व देने से उनको अपना मानने से ही यह अपवित्र होता है क्योंकि नाशवान पदार्थों की ममता ही मल (अपवित्रता) है । भगवान के जन्मकर्म के तत्त्व को जानने से जब नाशवान् पदार्थों का आकर्षण , उनकी ममता सर्वथा मिट जाती है तब सब मलिनता नष्ट हो जाती है और मनुष्य परम पवित्र हो जाता है। कर्मयोग का प्रसङ्ग होने से उपर्युक्त पदों में आये ज्ञान शब्द का अर्थ कर्मयोग का ज्ञान भी माना जा सकता है। कर्मयोग का ज्ञान है शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , पद , योग्यता , अधिकार , धन , जमीन आदि मिली हुई मात्र वस्तुएँ संसार की और संसार के लिये ही हैं , अपनी और अपने लिये नहीं हैं। कारण कि स्वयं (स्वरूप) नित्य है ।अतः उसके साथ अनित्य वस्तु कैसे रह सकती है तथा उसके काम भी कैसे आ सकती है । शरीर आदि वस्तुएँ जन्म से पहले भी हमारे साथ नहीं थीं और मरने के बाद भी नहीं रहेंगी तथा इस समय भी उनका प्रतिक्षण हमसे सम्बन्ध-विच्छेद हो रहा है। इन मिली हुई वस्तुओं का सदुपयोग करने का ही अधिकार है अपनी मानने का अधिकार नहीं। ये वस्तुएँ संसार की ही हैं अतः इन्हें संसार की ही सेवा में लगाना है। यही इनका सदुपयोग है। इनको अपनी और अपने लिये मानना ही वास्तव में बन्धन या अपवित्रता है। इस प्रकार नाशवान् वस्तुओं को अपनी और अपने लिये न मानना ज्ञान-तप है जिससे मनुष्य परम पवित्र हो जाता है। जितने भी तप हैं उन सबसे बढ़कर ज्ञानतप है। इस ज्ञानतप से जड के साथ माने हुए सम्बन्ध का सर्वथा विच्छेद हो जाता है। जब तक मनुष्य जड के साथ अपना सम्बन्ध मानता रहता है तब तक दूसरी तपस्या से उसकी उतनी पवित्रता नहीं होती जितनी पवित्रता ज्ञानतप से जड का सम्बन्ध-विच्छेद करने से होती है। इस ज्ञानतप से पवित्र होकर मनुष्य भगवान के भाव (सत्ता ) को अर्थात् सच्चिदानन्दघन परमात्मतत्त्व को प्राप्त हो जाता है। तात्पर्य है कि जैसे भगवान नित्यनिरन्तर रहते हैं ऐसे वह भी उनमें नित्यनिरन्तर रहता है , जैसे भगवान् निर्लिप्त-निर्विकार रहते हैं ऐसे वह भी निर्लिप्त-निर्विकार रहता है , जैसे भगवान के लिये कुछ भी करना शेष नहीं है ऐसे ही उसके लिये भी कुछ करना शेष नहीं रहता। ज्ञानमार्ग से भी मनुष्य इसी प्रकार भगवान के भाव को प्राप्त हो जाता है (गीता 14। 19)।पहले भी बहुत से भक्त ज्ञानतप से पवित्र होकर भगवान को प्राप्त हो चुके हैं। अतः साधकों को वर्तमान में ही ज्ञानतप से पवित्र होकर भगवान को प्राप्त कर लेना चाहिये। भगवान को प्राप्त करने में सभी स्वतन्त्र हैं कोई भी परतन्त्र नहीं है। कारण कि मानव शरीर भगवत्प्राप्ति के लिये ही मिला है। जन्म की दिव्यता का वर्णन तो हो गया अब कर्मों की दिव्यता क्या होती है इस विषय का आरम्भ करते हैं- स्वामी रामसुखदास जी )

   

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