Bhagavat Gita in hindi chapter 4

 

 

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ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार

19-23 कर्म में अकर्मता-भाव, नैराश्य-सुख, यज्ञ की व्याख्या

 

 

Bhagavad Gita Chapter 4

निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।

शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्‌ ॥4.21

 

निराशी:-फल की कामना से रहित, यतनियंत्रित; चित आत्मामन और बुद्धि; त्यक्तत्याग कर; सर्वसबको; परिग्रहःस्वामित्व का भाव; शारीरम्देह; केवलम्केवल; कर्मकर्म; कुर्वन्संपादित करना; कभी नहीं; आप्नोतिप्राप्त करता है; किल्बिषम्पाप।

 

जिसका अंतःकरण और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है और जिसने समस्त भोगों की सामग्री का परित्याग कर दिया है, ऐसा आशारहित ( फल की कामना से रहित ) मनुष्य केवल शरीरसंबंधी कर्म करता हुआ भी पापों को नहीं प्राप्त होता। ऐसे ज्ञानीजन फल की आकांक्षाओं और स्वामित्व की भावना से मुक्त होकर अपने मन और बुद्धि को संयमित रखते हैं और शरीर से कर्म करते हुए भी कोई पाप अर्जित नहीं करते।॥4.21॥

 

( संसार में आशा या इच्छा रहने के कारण ही शरीर, इन्द्रियाँ , मन आदि वश में नहीं होते। कर्मयोगी में आशा या इच्छा नहीं रहती। अतः उसके शरीर , इन्द्रियाँ और अन्तःकरण स्वतः वश में रहते हैं। इनके वश में रहने से उसके द्वारा व्यर्थ की कोई क्रिया नहीं होती। कर्मयोगी अगर संन्यासी है तो वह सब प्रकार की भोगसामग्री के संग्रह का स्वरूप से त्याग कर देता है। अगर वह गृहस्थ है तो वह भोगबुद्धि से अपने सुखके लिये किसी भी सामग्री का संग्रह नहीं करता। उसके पास जो भी सामग्री है उसको वह अपनी और अपने लिये न मानकर संसार की और संसार के लिये ही मानता है तथा संसार के सुख में ही उस सामग्री को लगाता है। भोगबुद्धि से संग्रह का त्याग करना तो साधकमात्र के लिये आवश्यक है। परन्तु उनसे भी ऊँची श्रेणीके परिग्रहत्यागकी बात त्यक्तसर्वपरिग्रहः पदसे यहीं आयी है क्योंकि परिग्रह के साथ सर्व शब्द केवल यहाँ आया है। कर्मयोगी में आशा , कामना , स्पृहा , वासना आदि नहीं रहते। वह बाहर से ही भोगसामग्रीके संग्रह का त्याग करता हो इतनी ही बात नहीं है बल्कि वह भीतर से भी भोगसामग्री की आशा या इच्छा का त्याग कर देता है। आशा या इच्छा का सर्वथा त्याग न होने पर भी उसका उद्देश्य इनके त्याग का ही रहता है। शरीरसम्बन्धी कर्म के दो अर्थ होते हैं एक तो शरीर से होने वाला कर्म और दूसरा शरीर निर्वाह के लिये किया जाने वाला कर्म। सभी कर्म केवल शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि के द्वारा ही हो रहे हैं । मेरा उनसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है ऐसा मानकर कर्मयोगी अन्तःकरण की शुद्धि के लिये कर्म करते हैं। निवृत्ति परायण कर्म योगी केवल शरीरनिर्वाह मात्र के लिये किये जाने वाले आवश्यक कर्म (खानपान , शौचस्नान आदि) करता है। निवृत्तिपरायण कर्मयोगी केवल उतने ही कर्म करता है जितनेसे केवल शरीरनिर्वाह हो जाय। जो कर्म करने अथवा न करने से अपना किञ्चिन्मात्र ( जरा सा भी ) भी सम्बन्ध रखता है वह पाप को अर्थात् जन्म-मरण रूप बन्धन को प्राप्त होता है परन्तु आशारहित कर्मयोगी कर्म करने अथवा न करने से अपना कुछ भी सम्बन्ध नहीं रखता इसलिये वह पाप को प्राप्त नहीं होता अर्थात् उसके सब कर्म अकर्म हो जाते हैं। निवृत्तिपरायण होने पर भी कर्मयोगी कभी आलस्यप्रमाद नहीं करता। आलस्यप्रमाद का भी भोग होता है। एकान्त में यों ही पड़े रहने से आलस्य का भोग होता है और शास्त्रविरुद्ध तथा निरर्थक कर्म करने से प्रमादका भोग होता है। इस प्रकार निवृत्ति में आलस्य के सुखका और प्रवृत्ति में प्रमाद के सुख का भोग हो सकता है। अतः आलस्यप्रमाद से मनुष्य पाप को प्राप्त होता है परन्तु बहुत कम कर्म करने पर भी निवृत्तिपरायण कर्मयोगी में किञ्चिन्मात्र भी आलस्य-प्रमाद नहीं आते। उसके शरीर , इन्द्रियाँ और अन्तःकरण संयत हैं इसलिये उसमें आलस्य-प्रमाद आ ही नहीं सकते। शरीर, इन्द्रियाँ तथा अन्तःकरण के वश में होने से भोगसामग्री का त्याग करने से तथा आशा , कामना ममता आदि से रहित होने से उसके द्वारा निषिद्ध क्रिया हो सकती ही नहीं। यहाँ शङ्का हो सकती है कि जब उसके द्वारा पापक्रिया हो ही नहीं सकती तब यह क्यों कहा गया कि वह पाप को प्राप्त नहीं होता । इसका समाधान यह है कि क्रियामात्र के आरम्भ में अनिवार्य दोष या पाप पाये जाते हैं परन्तु मूल में असत के सङ्ग , कामना , ममता और आसक्ति से ही पाप लगते हैं। कर्मयोगी में कामना , ममता और आसक्ति होती ही नहीं अथवा उसका कामना ,ममता और आसक्ति का उद्देश्य ही नहीं होता इसलिये उसका कर्म करने से अथवा न करने से कोई प्रयोजन नहीं होता। इसी कारण न तो उसे कर्मों में रहने वाला आनुषङ्गिक पाप लगता है और न उसे शास्त्रविहित कर्मोंके  त्याग का ही पाप लगता है। दूसरी एक शङ्का यह हो सकती है कि तीसरे अध्याय में भगवान ने सिद्ध महापुरुष को भी अपने लिये कोई कर्तव्य शेष न रहने पर भी लोकसंग्रह के लिये कर्म करने की प्रेरणा की है ।अपने लिये भी भगवान ने कहा है कि त्रिलोकी में कुछ भी कर्तव्य और प्राप्तव्य न होने पर भी मैं सावधानी पूर्वक कर्म करता हूँ । अतः शरीरनिर्वाह मात्रके लिये कर्म करने वाले कर्मयोगी को क्या लोकसंग्रह के त्याग का दोष नहीं लगेगा इसका समाधान यह है कि कामना , ममता आदि न रहने के कारण उसे कोई दोष नहीं लगता। यद्यपि सिद्ध महापुरुष में और भगवान में कामना , ममता आदि का सर्वथा अभाव होता है फिर भी वे जो लोकसंग्रह के लिये कर्म करते हैं यह उनकी दया – कृपा ही है। वास्तव में वे लोकसंग्रह करें अथवा न करें इसमें वे स्वतन्त्र हैं । इसकी उन पर कोई जिम्मेवारी नहीं है ।वास्तव में यह भी निवृत्तिपरायण साधकों के लिये एक लोकसंग्रह ही है। लोकसंग्रह किया नहीं जाता बल्कि होता है। तीसरी एक शङ्का यह भी हो सकती है कि तीसरे अध्याय के तेरहवें श्लोक में भगवान ने केवल अपने शरीर का पोषण करने वाले मनुष्य को पापी कहा है और यहाँ कहते हैं कि शरीर निर्वाहमात्रके लिये कर्म करने वाले पाप को नहीं प्राप्त होता। दोनों का सामञ्जस्य कैसे हो इसका समाधान यह है कि जब तक भोगबुद्धि है और कर्मों तथा पदार्थों में आसक्ति बनी हुई है तब तक कर्म करने अथवा न करने से पाप लगता ही है परन्तु उस कर्मयोगी में भोगबुद्धि नहीं है और कर्मों तथा पदार्थों में आसक्ति भी नहीं है अतः सर्वथा निर्लिप्त होने से उसे कर्म करने अथवा न करने से किञ्चिन्मात्र भी पाप नहीं लगता। इस श्लोक में आये सब लक्षण सांख्ययोगी में घटते हैं तो क्या इसे संख्या योगी के लिए मान सकते हैं तो   पहली बात तो यह है कि यहाँ कर्मयोग का प्रसङ्ग है इसलिये यह श्लोक मुख्यरूप से कर्मयोगी का ही है। दूसरी बात सांख्ययोगी अपने को कर्ता मानता ही नहीं। उसमें मैं कुछ भी नहीं करता हूँ ऐसा स्पष्ट विवेक रहता है फिर उसके लिये कर्म करता हुआ भी पाप को नहीं प्राप्त होता ऐसा कहना कैसे बन सकता है ? कर्मयोग के साधक में स्पष्ट विवेक जाग्रत न होने पर भी उसका यह निश्चय रहता है कि मेरा कुछ नहीं है , मेरे लिये कुछ नहीं चाहिये , मेरे लिये कुछ नहीं करना है। इन तीन बातों का दृढ़ निश्चय रहने के कारण वह कर्म करते हुए भी उनसे निर्लिप्त रहता है। लोगोंमें प्रायः ऐसी मान्यता है कि कर्मयोगी गृहस्थ आश्रम में और ज्ञानयोगी (सांख्ययोगी) संन्यासआश्रम में रहता है। परन्तु वास्तव में ऐसी बात नहीं है। जिसे शरीर से अपनी अलग सत्ता का स्पष्ट विवेक है वह ज्ञानयोगी ही है चाहे वह गृहस्थ आश्रम में हो अथवा संन्यासआश्रम में। जिसमें इतना विवेक नहीं है पर उपर्युक्त तीन बातों का निश्चय पक्का है वह कर्मयोगी ही है चाहे वह गृहस्थआश्रम में हो अथवा संन्यासआश्रम में- स्वामी रामसुखदास जी )

 

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