Bhagavat Gita in hindi chapter 4

 

 

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ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार

16-18 कर्म-विकर्म एवं अकर्म की व्याख्या

 

 

Bhagavad Gita Chapter 4

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।

स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥4.18॥

 

कर्मणिकर्म; अकर्मनिष्क्रिय होना; यःजो; पश्येत्देखता है; अकर्मणिअकर्म में; और; कर्मकर्म; यःजो; सःवे; बुद्धिमान्बुद्धिमान् है; मनुष्येषुमनुष्यों में; सःवे; युक्त:-योगी; कृत्स्नकर्मकृत्सभी प्रकार के कर्मों को सम्पन्न करना।

 

वे मनुष्य जो अकर्म में कर्म और कर्म में अकर्म को देखते हैं। वे सभी मनुष्यों में बुद्धिमान होते हैं। सभी प्रकार के कर्मों में प्रवृत्त रहकर भी वे योगी कहलाते हैं और अपने सभी कर्मों में पारंगत होते हैं अर्थात समस्त कर्मों को करने वाले होते हैं ॥4.18

 

( कर्म में अकर्म देखने का तात्पर्य है कर्म करते हुए अथवा न करते हुए उससे निर्लिप्त रहना अर्थात अपने लिये कोई भी प्रवृत्ति या निवृत्ति न करना। अमुक कर्म मैं करता हूँ , इस कर्म का अमुक फल मुझे मिले ऐसा भाव रखकर कर्म करने से ही मनुष्य कर्मों से बँधता है। प्रत्येक कर्म का आरम्भ और अन्त होता है इसलिये उसका फल भी आरम्भ और अन्त होने वाला होता है परन्तु जीव स्वयं नित्य निरंतर रहता है। इस प्रकार यद्यपि जीव स्वयं परिवर्तनशील कर्म और उसके फल से सर्वथा सम्बन्ध रहित है फिर भी वह फल की इच्छा के कारण उनसे बँध जाता है। इसीलिये भगवान ने कहा है कि मेरे को कर्म नहीं बाँधते क्योंकि कर्मफल में मेरी इच्छा नहीं है। फल की स्पृहा या इच्छा ही बाँधनेवाली है। फल की इच्छा न रखने से नया राग उत्पन्न नहीं होता और दूसरों के हित के लिये कर्म करने से पुराना राग नष्ट हो जाता है। इस प्रकार रागरूप बन्धन न रहने से साधक सर्वथा वीतराग हो जाता है। वीतराग होने से सब कर्म अकर्म हो जाते हैं। जीव का जन्म कर्मों के अनुबन्ध से होता है। जैसे जिस परिवारमें जन्म लिया है उस परिवार के लोगों से ऋणानुबन्ध है अर्थात् किसी का ऋण चुकाना है और किसी से ऋण वसूल करना है। कारण कि अनेक जन्मों में अनेक लोगों से लिया है और अनेक लोगों को दिया है। यह लेन-देन का व्यवहार अनेक जन्मों से चला आ रहा है। इसको बंद किये बिना जन्म-मरण से छुटकारा नहीं मिल सकता। इसको बंद करने का उपाय है आगे से लेना बंद कर दें अर्थात् अपने अधिकार का त्याग कर दें और हमारे पर जिनका अधिकार है उनकी सेवा करनी आरम्भ कर दें। इस प्रकार नया ऋण लें नहीं और पुराना ऋण दूसरों के लिये कर्म करके चुका दें तो ऋणानुबन्ध (लेन-देन का व्यवहार) समाप्त हो जायगा अर्थात् जन्म-मरण बंद हो जायगा । जैसे कोई दुकानदार अपनी दुकान उठाना चाहता है तो वह दो काम करेगा । पहला जिसको देना है उसको दे देगा और दूसरा जिससे लेना है वह ले लेगा अथवा छोड़ देगा। ऐसा करने से उसकी दुकान उठ जायगी। अगर वह यह विचार रखेगा कि जो लेना है वह सबका सब ले लूँ तो दुकान उठेगी नहीं। कारण कि जब तक वह लेने की इच्छा से वस्तुएँ देता रहेगा तब तक दूकान चलती ही रहेगी उठेगी नहीं। अपने लिये कुछ भी न करने और न चाहने से असङ्गता स्वतः प्राप्त हो जाती है। कारण कि करण (शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , प्राण) और उपकरण (कर्म करने में उपयोगी सामग्री) संसार के हैं और संसार की सेवा में लगाने के लिये ही मिले हैं अपने लिये नहीं। इसलिये सम्पूर्ण कर्तव्यकर्म (सेवा ,भजन ,जप , ध्यान , समाधि भी) केवल संसार के हित के लिये ही करने से कर्मों का प्रवाह संसार की ओर चला जाता है और साधक स्वयं असङ्ग और निर्लिप्त रह जाता है। यही कर्म में अकर्म देखना है। जब तक प्रकृति के साथ सम्बन्ध है तब तक कर्म करना अथवा न करना दोनों ही कर्म हैं। इसलिये कर्म करने अथवा न करने दोनों ही अवस्थाओं में कर्मयोगी को निर्लिप्त रहना चाहिये। कर्म करने में निर्लिप्त रहने का तात्पर्य है कर्म करने से हमें अच्छा फल मिलेगा हमें लाभ होगा हमारी सिद्धि होगी लोग हमें अच्छा मानेंगे इस लोक में और परलोक में भोग मिलेंगे इस प्रकार की किसी भी इच्छा का न होना। ऐसे ही कर्म न करने में निर्लिप्त रहने का तात्पर्य है कर्मों का त्याग करने से हमें मान ,आदर ,भोग ,शरीर का आराम आदि मिलेंगे इस प्रकार की किञ्चिन्मात्र भी इच्छा का न होना। दुःख समझकर एवं शारीरिक क्लेश के भय से कर्म न करना राजस त्याग है और मोह ,आलस्य प्रमाद के कारण कर्म न करना तामस त्याग है। ये दोनों ही त्याग सर्वथा त्याज्य हैं। इसके सिवाय कर्म न करना यदि अपनी विलक्षण स्थितिके लिये है , समाधि का सुख भोगने के लिये है , जीवन्मुक्ति का आनन्द लेने के लिये है तो इस त्याग से भी प्रकृति का सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होता। कारण कि जब तक कर्म न करने से सम्बन्ध है तब तक प्रकृति से सम्बन्ध बना रहता है। प्रकृति से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होने पर कर्मयोगी कर्म करने और न करने इन दोनों अवस्थाओं में ज्यों का त्यों निर्लिप्त रहता है। अकर्म में कर्म देखने का तात्पर्य है निर्लिप्त रहते हुए कर्म करना अथवा न करना। भाव है कि कर्म करते समय अथवा न करते समय भी नित्य निरन्तर निर्लिप्त रहे। संसार में कोई कार्य करने के लिये प्रवृत्त होता है तो उसके सामने प्रवृत्ति (करना) और निवृत्ति (न करना) दोनों आती हैं। किसी कार्य में प्रवृत्ति होती है और किसी कार्य से निवृत्ति होती है परन्तु कर्मयोगी की प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों निर्लिप्ततापूर्वक और केवल संसार के हित के लिये होती हैं। प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनोंसे ही उसका कोई प्रयोजन नहीं होता नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन (गीता 3। 18)। यदि प्रयोजन होता है तो वह कर्मयोगी नहीं है बल्कि कर्मी है। साधक जब तक प्रकृति से अपना सम्बन्ध मानता है तब तक वह कर्म करने से अपनी सांसारिक उन्नति मानता है और कर्म न करने से अपनी पारमार्थिक उन्नति मानता है परन्तु वास्तव में प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों ही प्रवृत्ति हैं क्योंकि दोनों में ही प्रकृति के साथ सम्बन्ध रहता है। जैसे चलना-फिरना , खाना-पीना आदि स्थूल शरीर की क्रियाएँ हैं । ऐसे ही एकान्त में बैठे रहना , चिन्तन करना ,ध्यान लगाना सूक्ष्म शरीर की क्रियाएँ और समाधि लगाना कारण शरीर की क्रियाएँ हैं। इसलिये निर्लिप्त रहते हुए ही लोक संग्रहार्थ कर्तव्य कर्म करना है। यही अकर्म में कर्म है। इसी को दूसरे अध्याय के अड़तालीसवें श्लोक में योगस्थः कुरु कर्माणि (योग अर्थात् समतामें स्थित होकर कर्म कर) पदोंसे कहा गया है।सांसारिक प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों कर्म हैं। प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति करते हुए निर्लिप्त रहना और निर्लिप्त रहते हुए ही प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति करना इस प्रकार प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों में सर्वथा निर्लिप्त रहना योग है। इसी को कर्मयोग कहते हैं। शंका होती है कि कर्म करते हुए अथवा न करते हुए निर्लिप्त रहना और निर्लिप्त रहते हुए कर्म करना अथवा न करना इन दोनों में अकर्म अर्थात एक निर्लिप्तता ही मुख्य है फिर भगवान ने कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म ये दो बातें क्यों कही हैं ? इसका समाधान यह है कि कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म इन दोनों में एक निर्लिप्तता सार होते हुए भी पहले (कर्म में अकर्म) में कर्म करते हुए अथवा न करते हुए दोनों अवस्थाओं में रहने वाली निर्लिप्तता की मुख्यता है और दूसरे (अकर्म में कर्म) में निर्लिप्त रहते हुए कर्म करने अथवा न करने की मुख्यता है। तात्पर्य है कि निर्लिप्तता अपने लिये और कर्म संसार के लिये है क्योंकि निर्लिप्तता का सम्बन्ध स्व (स्वरूप) के साथ और कर्म करने अथवा न करने का सम्बन्ध पर (शरीर और संसार) के साथ है। इसलिये निर्लिप्तता स्वधर्म और कर्म करना अथवा न करना परधर्म है। इन दोनों का विभाग सर्वथा अलग-अलग बताने के लिये ही भगवान ने  उपर्युक्त दो बातें कही हैं। कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म ये दोनों बातें कर्मयोग की हैं जिनका तात्पर्य यह है कि प्रकृति से तो सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाय अर्थात् करने अथवा न करने से अपना कोई प्रयोजन न रहे और लोकसंग्रह के लिये कर्मों को करना अथवा न करना हो। कारण कि कर्म करते हुए निर्लिप्त रहना और निर्लिप्त रहते हुए भी दूसरों के हितके लिये कर्म करना ये दोनों ही गीताके सिद्धान्त हैं। प्रवृत्ति (करना) और निवृत्ति (न करना) दोनों प्रकृति के राज्य में ही हैं। प्रकृति निरन्तर परिवर्तनशील है इसलिये प्रवृत्ति का भी आरम्भ और अन्त होता है तथा निवृत्ति का भी आरम्भ और अन्त होता है परन्तु इनसे सर्वथा अतीत या परे परम निवृत्त तत्त्व के अपने स्वरूप का आदि और अन्त नहीं होता। वह प्रवृत्ति और निवृत्ति के आरम्भ में भी रहता है और उनके अन्त में भी रहता है तथा प्रवृत्ति और निवृत्ति काल में भी ज्यों का त्यों रहता है। वह प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों का प्रकाशक और आधार है। इसलिये उसमें न प्रवृत्ति है और न निवृत्ति है । इस तत्त्व को समझने के लिये और उसमें स्थित होकर लोकसंग्रहार्थ (यज्ञार्थ) कर्म करने के लिये यहाँ कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म ये दो बातें कही गयी हैं। जो पुरुष कर्म में अकर्म देखता है और अकर्म में कर्म देखता है अर्थात नित्य-निरन्तर निर्लिप्त रहता है वही वास्तव में कर्म तत्त्व को जानने वाला है। जब तक वह निर्लिप्त नहीं हुआ है अर्थात् कर्म और पदार्थ को अपना और अपने लिये मानता है तब तक उसने कर्मतत्त्व को समझा ही नहीं है। परमात्मा को जानने के लिये स्वयं को परमात्मा से अभिन्नता का अनुभव करना होता है और संसार को जानने के लिये स्वयं को संसार (क्रिया और पदार्थ) से सर्वथा भिन्नता का अनुभव करना होता है। कारण कि वास्तव में हम (स्वरूप से ) परमात्मा से अभिन्न और संसार से भिन्न हैं। इसलिये कर्मों से अलग होकर अर्थात निर्लिप्त होकर ही कर्मतत्त्व को जान सकते हैं। कर्म आदि और अन्त वाले हैं और मैं (स्वयं जीव) नित्य रहने वाला हूँ अतः मैं स्वरूप से कर्मों से अलग (निर्लिप्त) हूँ इस वास्तविकता का अनुभव करना ही जानना है। वास्तविकता की तह में बैठे बिना जानना हो ही कैसे सकता है।  जैसे काजल की कोठरी में प्रवेश करके भी काजल से सर्वथा निर्लिप्त रहना साधारण बुद्धिमान का काम नहीं है । ऐसे ही सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को करते हुए भी कर्मों से सर्वथा निर्लिप्त रहना साधारण बुद्धिमान के वश का काम नहीं है। इसलिये भगवान ऐसे कर्मयोगी को मनुष्यों में बुद्धिमान कहते हैं। भगवान् मानो यह बताते हैं कि जिसने कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म के तत्त्व को जान लिया है उसने सब कुछ जान लिया है अर्थात वह ज्ञात ज्ञातव्य हो गया है। कर्मयोगी सिद्धि और असिद्धि में सम रहता है। कर्म का फल मिले या न मिले उसमें कभी विषमता नहीं आती क्योंकि उसने फल का सर्वथा त्याग कर दिया है। समता का नाम योग है। वह नित्य निरन्तर समता में स्थित है इसलिये वह योगी है। प्राणिमात्र का परमात्मा से स्वतःसिद्ध नित्ययोग है परन्तु मनुष्य ने संसार से अपना सम्बन्ध मान लिया इसी से वह उस नित्य योग को भूल गया। तात्पर्य यह कि जड के साथ अपना सम्बन्ध मानना ही परमात्मा के साथ अपने नित्य सम्बन्ध को भूलना है। कर्मयोगी फल की इच्छा , ममता और आसक्ति का त्याग करके केवल दूसरों के लिये ही कर्तव्यकर्म करता है जिससे उसका जड से माना हुआ सम्बन्ध टूट जाता है और उसे परमात्मा से स्वतःसिद्ध नित्ययोग की अनुभूति हो जाती है। इसलिये उसे योगी कहा गया है। उसने प्राप्त करने योग्य तत्त्व को प्राप्त कर लिया है । जब तक कुछ पाना शेष रहता है तब तक करना शेष रहता ही है अर्थात् जब तक कुछ न कुछ पाने की इच्छा रहती है तब तक करने का राग नहीं मिटता। नाशवान कर्मों से मिलने वाला फल भी नाशवान ही होता है। जब तक नाशवान फल की इच्छा है तब तक (कर्म) करना समाप्त नहीं होता परन्तु जब नाशवान से सर्वथा सम्बन्ध छूटकर परमात्म प्राप्ति रूप अविनाशी फल की प्राप्ति हो जाती है तब (कर्म) करना सदा के लिये समाप्त हो जाता है और कर्मयोगी का कर्म करने तथा न करनेसे कोई प्रयोजन नहीं रहता। ऐसा कर्मयोगी सम्पूर्ण कर्मों को करनेवाला है अर्थात् उसके लिये अब कुछ करना शेष नहीं है वह कृतकृत्य हो गया है। करना, जानना और पाना शेष नहीं रहने से वह कर्मयोगी अशुभ संसार बन्धन से मुक्त हो जाता है – स्वामी रामसुखदास जी  )

       

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