ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार
24-33 फलसहित विभिन्न यज्ञों का वर्णन
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे ।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥4.27॥
सर्वाणि – समस्त; इन्द्रिय–इन्द्रियों के; कर्माणि–कार्य; प्राणकर्माणि –प्राणों की क्रियाएँ; च–और; अपरे–अन्य; आत्मसंयमयोग–संयमित मन की अग्नि में; जुह्वति–अर्पित करते हैं; ज्ञानदीपिते–ज्ञान से आलोकित होकर।
अन्य योगीजन इन्द्रियों की सम्पूर्ण क्रियाओं और प्राणों की समस्त क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्म संयम योगरूप अग्नि में हवन किया करते हैं अर्थात दिव्य ज्ञान से प्रेरित होकर संयमित मन की अग्नि में अपनी समस्त इन्द्रियों की क्रियाओं और प्राण शक्ति को भस्म कर देते हैं। (सच्चिदानंदघन परमात्मा के सिवाय अन्य किसी का भी चिन्तन न करना ही उन सबका हवन करना है।)॥4.27॥
( इस श्लोक में समाधि को यज्ञ का रूप दिया गया है। कुछ योगी लोग दसों इन्द्रियों की क्रियाओं का समाधि में हवन किया करते हैं। तात्पर्य यह है कि समाधि अवस्था में मन और बुद्धि सहित सम्पूर्ण इन्द्रियों (ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों ) की क्रियाएँ रुक जाती हैं। इन्द्रियाँ सर्वथा निश्चल और शान्त हो जाती हैं। समाधिरूप यज्ञ में प्राणों की क्रियाओं का भी हवन हो जाता है अर्थात् समाधिकाल में प्राणों की क्रियाएँ भी रुक जाती हैं। समाधि में प्राणों की गति रोकने के दो प्रकार हैं । एक तो हठयोग की समाधि होती है जिसमें प्राणों को रोकने के लिये कुम्भक किया जाता है। कुम्भक का अभ्यास बढ़ते-बढ़ते प्राण रुक जाते हैं जो घंटों तक दिनों तक रुके रह सकते हैं। इस प्राणायामसे आयु बढ़ती है जैसे वर्षा होने पर जल बहने लगता है तो जल के साथ-साथ बालू भी आ जाती है उस बालू में मेढक दब जाता है। वर्षा बीतने पर जब बालू सूख जाती है तब मेढक उस बालू में ही चुपचाप सूखे हुए की तरह पड़ा रहता है उसके प्राण रुक जाते हैं। पुनः जब वर्षा आती है तब वर्षा का जल ऊपर गिरने पर मेढक में पुनः प्राणों का संचार होता जाता है और वह टर्राने लग जाता है। दूसरे प्रकार में मन को एकाग्र किया जाता है। मन सर्वथा एकाग्र होने पर प्राणों की गति अपने आप रुक जाती है। समाधि और निद्रा दोनों में कारण शरीर से सम्बन्ध रहता है इसलिये बाहर से दोनों की समान अवस्था दिखायी देती है किन्तु बाहर से समान दिखायी देने पर भी समाधिकाल में एक सच्चिदानन्द परमात्मा ही सर्वत्र परिपूर्ण है ऐसा ज्ञान प्रकाशित (जाग्रत्) रहता है और निद्राकाल में वृत्तियाँ अविद्या में लीन हो जाती हैं। अतः दोनों अवस्थाएं बाहर से समान प्रतीत होने पर भी परस्पर भिन्न हैं । समाधिकाल में प्राणों की गति रुक जाती है और निद्राकाल में प्राणों की गति चलती रहती है। इसलिये निद्रा आने से समाधि नहीं लगती। समाधिरूप यज्ञ करने वाले योगी लोग इन्द्रियों तथा प्राणों की क्रियाओं का समाधि योग रूप अग्नि में हवन किया करते हैं अर्थात् मन – बुद्धि सहित सम्पूर्ण इन्द्रियों और प्राणों की क्रियाओं को रोककर समाधि में स्थित हो जाते हैं। समाधिकाल में सम्पूर्ण इन्द्रियाँ और प्राण अपनी चञ्चलता खो देते हैं। एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा का ज्ञान ही जाग्रत् रहता है – स्वामी रामसुखदास जी )