ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार
24-33 फलसहित विभिन्न यज्ञों का वर्णन
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् ।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥4.31॥
यज्ञशिष्टाअमृतभुजो–वे यज्ञों के अवशेषों के अमृत का पान करते हैं; यान्ति–जाते हैं; ब्रह्म–परम सत्य; सनातन–शाश्वत; न – कभी; अयम्–यह; लोकः–ग्रह; अस्ति–है; अयज्ञस्य–यज्ञ न करने वाला; कुतः–कहाँ; अन्यः–अन्य लोकों में; कुरु सत् तम–कुरुश्रेष्ठ अर्जुन।
हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन! इन यज्ञों का रहस्य जानने वाले और इनका अनुष्ठान करने वाले, इन यज्ञों के अवशेष जो कि अमृत के समान होते हैं, का आस्वादन कर परम सत्य की ओर बढ़ते हैं। अर्थात यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले योगीजन सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं और जो लोग यज्ञ नहीं करते, वे कहाँ सुखी रह सकते हैं अर्थात वे न तो इस लोक में न अन्य लोकों में सुखी रह सकते हैं॥4.31॥
( यज्ञ करने से अर्थात् निष्काम भाव पूर्वक दूसरों को सुख पहुँचाने से समता का अनुभव हो जाना ही यज्ञशिष्ट अमृत का अनुभव करना है। अमृत अर्थात् अमरता का अनुभव करने वाले सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त हो जाते हैं । स्वरूप से मनुष्य अमर है। मरने वाली वस्तुओं के सङ्ग से ही मनुष्य को मृत्यु का अनुभव होता है। इन वस्तुओं को संसार के हित में लगाने से जब मनुष्य असङ्ग हो जाता है तब उसे स्वतःसिद्ध अमरता का अनुभव हो जाता है। कर्तव्यमात्र केवल कर्तव्य समझकर किया जाय तो वह यज्ञ हो जाता है। केवल दूसरों के हित के लिये किया जाने वाला कर्म ही कर्तव्य होता है। जो कर्म अपने लिये किया जाता है वह कर्तव्य नहीं होता बल्कि कर्ममात्र होता है जिससे मनुष्य बँधता है। इसलिये यज्ञ में देना ही देना होता है लेना केवल निर्वाहमात्र के लिये होता है । शरीर यज्ञ करने के लिये समर्थ रहे, इस दृष्टि से शरीर निर्वाह मात्र के लिये वस्तुओं का उपयोग करना भी यज्ञ के अन्तर्गत है। मनुष्य शरीर यज्ञ के लिये ही है। उसे मान-बड़ाई सुख-आराम आदि में लगाना बन्धनकारक है। केवल यज्ञ के लिये कर्म करने से मनुष्य बन्धनरहित (मुक्त) हो जाता है और उसे सनातन ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है। जैसे तीसरे अध्याय के आठवें श्लोक में भगवान ने कहा कि कर्म न करने से तेरा शरीरनिर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा ऐसे ही यहाँ कहते हैं कि यज्ञ न करने से तेरा यह लोक भी लाभदायक नहीं रहेगा फिर परलोक का तो कहना ही क्या है । केवल स्वार्थभाव से (अपने लिये) कर्म करने से इस लोक में संघर्ष उत्पन्न हो जायगा और सुख-शान्ति भंग हो जायगी तथा परलोक में कल्याण भी नहीं होगा। अपने कर्तव्य का पालन न करने से घर में भी भेद और संघर्ष पैदा हो जाता है , खटपट मच जाती है। घर में कोई स्वार्थी, पेटू व्यक्ति हो तो घरवालों को उसका रहना सुहाता नहीं। स्वार्थत्याग पूर्वक अपने कर्तव्य से सबको सुख पहुँचाना घर में अथवा संसार में रहने की विद्या है। अपने कर्तव्य का पालन करने से दूसरों को भी कर्तव्यपालन की प्रेरणा मिलती है। इससे घर में एकता और शान्ति स्वाभाविक आ जाती है। परन्तु अपने कर्तव्य का पालन न करने से इस लोक में सुखपूर्वक जीना भी कठिन हो जाता है और अन्य लोकों की तो बात ही क्या है इसके विपरीत अपने कर्तव्य का ठीक-ठीक पालन करनेसे यह लोक भी सुखदायक हो जाता है और परलोक भी- स्वामी रामसुखदास जी )