ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार
24-33 फलसहित विभिन्न यज्ञों का वर्णन
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप ।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥4.33॥
श्रेयान्–श्रेष्ठ; द्रव्यमयात्–भौतिक सम्पत्ति; यज्ञात्–यज्ञ की अपेक्षा; ज्ञानयज्ञः–ज्ञान युक्त होकर यज्ञ सम्पन्न करना; परन्तप–शत्रुओं का दमन कर्ता, अर्जुन; सर्वम्–सभी; कर्म–कर्म; अखिलम्–सभी; पार्थ–पृथापुत्र, अर्जुन; ज्ञाने–ज्ञान में; परिसमाप्यते –समाप्त होते हैं।
हे शत्रुओं के दमन कर्ता अर्जुन ! ज्ञान युक्त होकर किया गया यज्ञ ( ज्ञान यज्ञ ) किसी प्रकार के भौतिक या द्रव्यमय यज्ञ से श्रेष्ठ है। अंततः सभी यज्ञों की पराकाष्ठा दिव्य ज्ञान में होती है अर्थात सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं॥4.33॥
( जिन यज्ञों में द्रव्यों या पदार्थों तथा कर्मों की आवश्यकता होती है वे सब यज्ञ द्रव्यमय होते हैं। जैसे मिट्टी की प्रधानता वाला पात्र मृन्मय कहलाता है ऐसे ही द्रव्य की प्रधानता वाला यज्ञ द्रव्यमय कहलाता है। ऐसे द्रव्यमय यज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है क्योंकि ज्ञानयज्ञ में द्रव्य और कर्म की आवश्यकता नहीं होती। सभी यज्ञों को भगवान ने कर्मजन्य कहा है । यहाँ भगवान् कहते हैं कि सम्पूर्ण कर्म ज्ञानयज्ञ में परिसमाप्त हो जाते हैं अर्थात् ज्ञानयज्ञ कर्मजन्य नहीं है बल्कि विवेकविचारजन्य है। अतः यहाँ जिस ज्ञानयज्ञ की बात आयी है वह पूर्ववर्णित बारह यज्ञों के अन्तर्गत आये ज्ञानयज्ञ का वाचक नहीं है बल्कि आगे के (34वें) श्लोक में वर्णित ज्ञान प्राप्त करने की प्रचलित प्रक्रिया का वाचक है। पूर्ववर्णित बारह यज्ञों का वाचक यहाँ द्रव्यमय यज्ञ है। द्रव्यमय यज्ञ समाप्त करके ही ज्ञानयज्ञ किया जाता है। अगर सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो ज्ञानयज्ञ भी क्रियाजन्य ही है परन्तु इसमें विवेक-विचार की प्रधानता रहती है। यहाँ सर्वम् कर्म का अर्थ सम्पूर्ण कर्म (मात्र कर्म) और अखिलम् का अर्थ सम्पूर्ण द्रव्य (मात्र पदार्थ) है। जब तक मनुष्य अपने लिये कर्म करता है तब तक उसका सम्बन्ध क्रियाओं और पदार्थों से बना रहता है। जब तक क्रियाओं और पदार्थों से सम्बन्ध रहता है तभी तक अन्तःकरण में अशुद्धि रहती है इसलिये अपने लिये कर्म न करने से ही अन्तःकरण शुद्ध होता है। अन्तःकरण में तीन दोष रहते हैं मल (संचित पाप) , विक्षेप (चित्त की चञ्चलता) और आवरण (अज्ञान)। अपने लिये कोई भी कर्म न करने से अर्थात् संसारमात्र की सेवा के लिये ही कर्म करने से जब साधक के अन्तःकरण में स्थित मल और विक्षेप दोनों दोष मिट जाते हैं तब वह ज्ञानप्राप्ति के द्वारा आवरणदोष को मिटाने के लिये कर्मों का स्वरूपसे त्याग करके गुरु के पास जाता है। उस समय वह कर्मों और पदार्थोंसे ऊँचा उठ जाता है अर्थात् कर्म और पदार्थ उसके लक्ष्य नहीं रहते प्रत्युत एक चिन्मय तत्त्व ही उसका लक्ष्य रहता है। यही सम्पूर्ण कर्मों और पदार्थों का तत्त्वज्ञान में समाप्त होना है। ज्ञानप्राप्ति की प्रचलित प्रक्रियाशास्त्रों में ज्ञानप्राप्ति के आठ अन्तरङ्ग साधन कहे गये हैं (1) विवेक (2) वैराग्य (3) शमादि षट्सम्पत्ति (शम ,दम, श्रद्धा, उपरति ,तितिक्षा और समाधान) (4) मुमुक्षुता (5) श्रवण (6) मनन (7) निदिध्यासन और (8) तत्त्वपदार्थसंशोधन। इनमें पहला साधन विवेक है। सत् और असत को अलग-अलग जानना विवेक कहलाता है। सत और असत अलग – अलग जानकर असत् का त्याग करना अथवा संसार से विमुख होना वैराग्य है। इसके बाद शमादि षट्सम्पत्ति आती है। मन को इन्द्रियों के विषयों से हटाना शम है। इन्द्रियों को विषयों से हटाना दम है। ईश्वर शास्त्र आदि पर पूज्यभावपूर्वक प्रत्यक्ष से भी अधिक विश्वास करना श्रद्धा है। वृत्तियोंका संसार की ओर से हट जाना उपरति है। सर्दी – गर्मी आदि द्वन्द्वों को सहना , उनकी उपेक्षा करना तितिक्षा है। अन्तःकरण में शङ्काओं का न रहना समाधान है। इसके बाद चौथा साधन है मुमुक्षुता। संसार से छूटने की इच्छा मुमुक्षता है। मुमुक्षुता जाग्रत् होने के बाद साधक पदार्थों और कर्मों का स्वरूप से त्याग करके श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास जाता है। गुरु के पास निवास करते हुए शास्त्रों को सुनकर तात्पर्य का निर्णय करना तथा उसे धारण करना श्रवण है। श्रवण से प्रमाणगत संशय दूर होता है। परमात्मतत्त्व का युक्ति- प्रयुक्तियोंसे चिन्तन करना मनन है। मनन से प्रमेयगत संशय दूर होता है। संसार की सत्ता को मानना और परमात्मतत्त्व की सत्ता को न मानना विपरीत भावना कहलाती है। विपरीत भावना को हटाना निदिध्यासन है। प्राकृत पदार्थमात्र से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाय और केवल एक चिन्मयतत्त्व शेष रह जाय यह तत्त्वपदार्थ संशोधन है। इसे ही तत्त्वसाक्षात्कार कहते हैं । विचारपूर्वक देखा जाय तो इन सब साधनों का तात्पर्य है असाधन अर्थात् असत् के सम्बन्ध का त्याग। त्याज्य वस्तु अपने लिये नहीं होती पर त्याग का परिणाम (तत्त्वसाक्षात्कार) अपने लिये होता है। अर्जुन अपना कल्याण चाहते हैं अतः कल्याणप्राप्ति के विभिन्न साधनों का यज्ञरूप से वर्णन करके अब भगवान् ज्ञानयज्ञ के द्वारा तत्त्वज्ञान प्राप्त करने की प्रचलित प्रणाली का वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )