आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~ छठा अध्याय
11-15 आसन विधि, परमात्मा का ध्यान, योगी के चार प्रकार
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ৷৷6.14৷৷
प्रशान्त-शान्त; आत्मा-मन; विगतभी:-भय रहित; ब्रह्मचारिव्रते-ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा; स्थित:-स्थित; मन:-मन को; संयम्य-नियंत्रित करना; मत् चित्तः-मन को मुझ में केन्द्रित करना; युक्तः-तल्लीन; आसीत-बैठना; मत् परः-मुझे परम लक्ष्य मानना।
इस प्रकार शांत, भयरहित और अविचलित मन से ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा में निष्ठ होकर भलीभाँति शांत अन्तःकरण वाले सावधान और प्रबुद्ध योगी को मन से मेरा चिन्तन करना और केवल मुझे ही अपना परम लक्ष्य बनाना चाहिए ৷৷6.14৷৷
‘प्रशान्तात्मा’ जिसका अन्तःकरण राग-द्वेष से रहित है वह प्रशान्तात्मा है। जिसका सांसारिक विशेषता प्राप्त करने का , ऋद्धि-सिद्धि आदि प्राप्त करने का उद्देश्य न होकर केवल परमात्मप्राप्ति का ही दृढ़ उद्देश्य होता है उसके राग-द्वेष शिथिल होकर मिट जाते हैं। राग-द्वेष मिटने पर स्वतः शान्ति आ जाती है जो कि स्वतःसिद्ध है। तात्पर्य है कि संसार के सम्बन्ध के कारण ही हर्ष , शोक , राग-द्वेष आदि द्वन्द्व होते हैं और इन्हीं द्वन्द्वों के कारण शान्ति भङ्ग होती है। जब ये द्वन्द्व मिट जाते हैं तब स्वतःसिद्ध शान्ति प्रकट हो जाती है। उस स्वतःसिद्ध शान्ति को प्राप्त करने वाले का नाम ही प्रशान्तात्मा है। ‘विगतभीः’ शरीर को मैं और मेरा मानने से ही रोग का , निन्दा का , अपमान का , मरने आदि का भय पैदा होता है परन्तु जब मनुष्य शरीर के साथ मैं और मेरेपन की मान्यता को छोड़ देता है तब उसमें किसी भी प्रकार का भय नहीं रहता। कारण कि उसके अन्तःकरण में यह भाव दृढ़ हो जाता है कि इस शरीर को जीना हो तो जीयेगा ही फिर इसको कोई मार नहीं सकता और इस शरीर को मरना हो तो मरेगा ही फिर इसको कोई बचा नहीं सकता। यदि यह मर भी जायगा तो बड़े आनन्द की बात है क्योंकि मेरी चित्तवृत्ति परमात्मा की तरफ होने से मेरा कल्याण तो हो ही जायगा । जब कल्याण में कोई सन्देह ही नहीं तो फिर भय किस बात का ? इस भाव से वह सर्वथा भयरहित हो जाता है। ‘ब्रह्मचारिव्रते स्थितः’ यहाँ ब्रह्मचारिव्रत का तात्पर्य केवल वीर्यरक्षा से ही नहीं है बल्कि ब्रह्मचारी के व्रत से है। तात्पर्य है कि जैसे ब्रह्मचारी का जीवन गुरु की आज्ञा के अनुसार संयत और नियत होता है , ऐसे ही ध्यानयोगी को अपना जीवन संयत और नियत रखना चाहिये। जैसे ब्रह्मचारी शब्द , स्पर्श , रूप , रस और गन्ध इन पाँच विषयों से तथा मान , बड़ाई और शरीर के आराम से दूर रहता है , ऐसे ही ध्यानयोगी को भी उपर्युक्त आठ विषयों में से किसी भी विषय का भोगबुद्धि से रसबुद्धि से सेवन नहीं करना चाहिये बल्कि निर्वाहबुद्धि से ही सेवन करना चाहिये। यदि भोगबुद्धि से उन विषयों का सेवन किया जायगा तो ध्यानयोग की सिद्धि नहीं होगी। इसलिये ध्यानयोगी को ब्रह्मचारिव्रत में स्थित रहना बहुत आवश्यक है। व्रत में स्थित रहनेका तात्पर्य है कि किसी भी अवस्था , परिस्थिति आदि में , किसी भी कारण से , कभी किञ्चिन्मात्र भी सुखबुद्धि से पदार्थों का सेवन न हो , चाहे वह ध्यानकाल हो चाहे व्यवहारकाल हो। इसमें सम्पूर्ण इन्द्रियों का ब्रह्मचर्य आ जाता है – ‘मनः संयम्य मच्चित्तः’ मन को संयत करके मेरे में ही लगा दे अर्थात् चित्त को संसार की तरफ से सर्वथा हटाकर केवल मेरे स्वरूप के चिन्तन में मेरी लीला , गुण , प्रभाव , महिमा आदि के चिन्तन में ही लगा दे। तात्पर्य है कि सांसारिक वस्तु , व्यक्ति , परिस्थिति , घटना आदि को लेकर मन में जो कुछ संकल्प-विकल्परूप से चिन्तन होता है उससे मन को हटाकर एक मेरे में ही लगाता रहे। मन में जो कुछ चिन्तन होता है वह प्रायः भूतकाल का होता है और कुछ भविष्यकाल का भी होता है तथा वर्तमान में साधक मन परमात्मा में लगाना चाहता है। जब भूतकाल की बात याद आ जाय तब यह समझे कि वह घटना अभी नहीं है और भविष्य की बात याद आ जाय तो वह भी अभी नहीं है। वस्तु , व्यक्ति , पदार्थ , घटना , परिस्थिति आदि को लेकर जितने संकल्प-विकल्प हो रहे हैं वे उन्हीं वस्तु , व्यक्ति आदि के हो रहे हैं जो अभी नहीं हैं। हमारा लक्ष्य परमात्मा के चिन्तन का है , संसार के चिन्तन का नहीं। अतः जिस संसार का चिन्तन हो रहा है वह संसार पहले नहीं था , पीछे नहीं रहेगा और अभी भी नहीं है परन्तु जिन परमात्मा का चिन्तन करना है वे परमात्मा पहले भी थे , अब भी हैं और आगे भी रहेंगे। इस तरह सांसारिक वस्तु आदि के चिन्तन से मन को हटाकर परमात्मा में लगा देना चाहिये। कारण कि भूतकाल का कितना ही चिन्तन किया जाय उससे लाभ तो कुछ होगा नहीं और भविष्य का चिन्तन किया जाय तो वह काम अभी कर सकेंगे नहीं तथा भूत-भविष्य का चिन्तन होता रहने से जो अभी ध्यान करते हैं वह भी होगा नहीं तो सब ओर से रीते ही रह जायँगे। ‘युक्तः’ ध्यान करते समय सावधान रहे अर्थात् मन को संसार से हटाकर भगवान में लगाने के लिये सदा सावधान और जाग्रत् रहे। इसमें कभी प्रमाद , आलस्य आदि न करे। तात्पर्य है कि एकान्त में अथवा व्यवहार में भगवान में मन लगाने की सावधानी सदा बनी रहनी चाहिये क्योंकि चलते-फिरते , काम-धन्धा करते समय भी सावधानी रहने से एकान्त में मन अच्छा लगेगा और एकान्त में मन अच्छा लगने से व्यवहार करते समय भी मन लगाने में सुविधा होगी। अतः ये दोनों एक-दूसरे के सहायक हैं अर्थात् व्यवहार की सावधानी एकान्त में और एकान्त की सावधानी व्यवहार में सहायक है। ‘आसीत मत्परः’ केवल भगवत्परायण होकर बैठे अर्थात् उद्देश्य , लक्ष्य , ध्येय केवल भगवान का ही रहे। भगवान के सिवाय कोई भी सांसारिक वासना , आसक्ति , कामना , स्पृहा , ममता आदि न रहे। इसी अध्याय के 10वें श्लोक में योगी ‘युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः’ पदों से ध्यानयोग का जो उपक्रम किया था उसी को यहाँ ‘युक्त आसीत मत्परः’ पदोंसे कहा गया है।