Bhagavad Gita Chapter 6

 

 

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आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~  छठा अध्याय

 

37-47  योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा

 

 

bhagavad gita in hindi chapter 6प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ৷৷6.41৷৷

 

प्राप्य–प्राप्त करके; पुण्य-कृताम्-पुण्य कर्मों के लोकान्–लोकों में; उषित्वा-निवास के पश्चात; शाश्वती:-अनेक; समा:-वर्ष; शुचीनाम्-पुण्य आत्माओं के; श्री-मताम्-समृद्ध लोगों के; गेहे-घर में; योग-भ्रष्ट:-असफल योगी; अभिजायते जन्म लेता है;

 

योगभ्रष्ट अर्थात योग में असफल योगी पुण्यवानों ( पवित्रात्माओं ) के लोकों को अर्थात स्वर्गादि उत्तम लोकों को प्राप्त होकर उनमें बहुत वर्षों तक ( दीर्घकाल तक ) निवास करके फिर शुद्ध आचरण वाले , सदाचारी धनवानों और श्रीमान पुरुषों के कुल में या घर में जन्म लेता है ৷৷6.41৷৷

 

( ‘प्राप्य पुण्यकृतां लोकान्’ जो लोग शास्त्रीय विधि विधान से यज्ञ आदि कर्मों को साङ्गोपाङ्ग करते हैं , उन लोगों का स्वर्गादि लोकों पर अधिकार है इसलिये उन लोगों को यहाँ पुण्यकर्म करने वालों के लोक कहा गया है। तात्पर्य है कि उन लोकों में पुण्यकर्म करने वाले ही जाते हैं , पापकर्म करने वाले नहीं परन्तु जिन साधकों को पुण्यकर्मों के फलरूप सुख भोगने की इच्छा नहीं है उनको वे स्वर्गादि लोक विघ्नरूप में और मुफ्त में मिलते हैं । तात्पर्य है कि यज्ञादि शुभ कर्म करने वालों को परिश्रम करना पड़ता है । उन लोकों की याचना , प्रार्थना करनी पड़ती है , यज्ञादि कर्मों को विधिविधान से और साङ्गोपाङ्ग करना पड़ता है । तब कहीं उनको स्वर्गादि लोकों की प्राप्ति होती है। वहाँ भी उनकी भोगों की वासना बनी रहती है क्योंकि उनका उद्देश्य ही भोग भोगने का था परन्तु जो किसी कारणवश अन्त समय में साधन से विचलितमना हो जाते हैं उनको स्वर्गादि लोकों की प्राप्ति के लिये न तो परिश्रम करना पड़ता है , न उनकी याचना करनी पड़ती है और न उनकी प्राप्ति के लिये यज्ञादि शुभ कर्म ही करने पड़ते हैं। फिर भी उनको स्वर्गादि लोकों की प्राप्ति हो जाती है। वहाँ रहने पर भी उनकी वहाँ के भोगों से अरुचि हो जाती है क्योंकि उनका उद्देश्य भोग भोगने का था ही नहीं। वे तो केवल सांसारिक सूक्ष्म वासना के कारण उन लोकों में जाते हैं परन्तु उनकी वह वासना भोगी पुरुषों की वासना के समान नहीं होती , जो केवल भोग भोगने के लिये स्वर्गमें जाते हैं । वे जैसे भोगों में तल्लीन होते हैं , वैसे योगभ्रष्ट तल्लीन नहीं हो सकता। कारण कि भोगों की इच्छा वाले पुरुष भोगबुद्धि से भोगों को स्वीकार करते हैं और योगभ्रष्ट को विघ्नरूप से भोगों में जाना पड़ता है। ‘उषित्वा शाश्वतीः समाः’ स्वर्गादि ऊँचे लोकों में यज्ञादि शुभकर्म करने वाले भी (भोग भोगने के उद्देश्य से)जाते हैं और योगभ्रष्ट भी जाते हैं। भोग भोगने के उद्देश्य से स्वर्ग में जाने वालों के पुण्य क्षीण होते हैं और पुण्यों के क्षीण होने पर उन्हें लौटकर मृत्युलोक में आना पड़ता है। इसलिये वे वहाँ सीमित वर्षों तक ही रह सकते हैं परन्तु जिसका उद्देश्य भोग भोगने का नहीं है बल्कि परमात्मप्राप्ति का है , वह योगभ्रष्ट किसी सूक्ष्म वासना के कारण स्वर्ग में चला जाय तो वहाँ उसकी साधनसम्पत्ति क्षीण नहीं होती। इसलिये वह वहाँ असीम वर्षों तक रहता है अर्थात् उसके लिये वहाँ रहने की कोई सीमा नहीं होती। जो भोग भोगने के उद्देश्य से ऊँचे लोकों में जाते हैं उनका उन लोकों में जाना कर्मजन्य है परन्तु योगभ्रष्ट का ऊँचे लोकों में जाना कर्मजन्य नहीं है किन्तु यह तो योग का प्रभाव है , उनकी साधनसम्पत्ति का प्रभाव है , उनके सत्उद्देश्य का प्रभाव है।स्वर्ग आदि का सुख भोगने के उद्देश्य से जो उन लोकों में जाते हैं उनको न तो वहाँ रहने से स्वतन्त्रता है और न वहाँ से आने में ही स्वतन्त्रता है। उन्होंने भोग भोगने के उद्देश्य से ही यज्ञादि कर्म किये हैं , इसलिये उन शुभ कर्मों का फल जब तक समाप्त नहीं होता तब तक वे वहाँ से नीचे नहीं आ सकते और शुभ कर्मों का फल समाप्त होने पर वे वहाँ रह भी नहीं सकते परन्तु जो परमात्मा की प्राप्ति के लिये ही साधन करने वाले हैं और केवल अन्त समय में योग से विचलित होने के कारण स्वर्ग आदि में गये हैं , उनका वासना के तारतम्य के कारण वहाँ ज्यादा-कम रहना हो सकता है पर वे वहाँ के भोगों में फँस नहीं सकते। कारण कि जब योग का जिज्ञासु भी शब्द-ब्रह्म का अतिक्रमण कर जाता है (6। 44) तब वह योगभ्रष्ट वहाँ फँस ही कैसे सकता है ? ‘शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते’ स्वर्गादि लोकों के भोग भोगने पर जब भोगों से अरुचि हो जाती है तब वह योगभ्रष्ट लौटकर मृत्युलोक में आता है और शुद्ध श्रीमानों के घर में जन्म लेता है। उसके फिर लौटकर आने में क्या कारण है ? वास्तव में इसका कारण तो भगवान् ही जानें किन्तु गीता पर विचार करने से ऐसा दिखता है कि वह मनुष्यजन्म में साधन करता रहा । वह साधन को छोड़ना नहीं चाहता था पर अन्त समय में साधन छूट गया। अतः उस साधन का जो महत्त्व उसके अन्तःकरण में अङ्कित है वह स्वर्गादि लोकों में भी उस योगभ्रष्ट को अज्ञातरूप से पुनः साधन करने के लिये प्रेरित करता रहता है , उकसाता रहता है। इससे उस योगभ्रष्ट के मन में आता है कि मैं साधन करूँ। ऐसा मन में क्यों आता है इसका उसको पता नहीं लगता। जब श्रीमानों के घर में भोगों के परवश होने पर भी पूर्वजन्म का अभ्यास उसको जबर्दस्ती खींच लेता है (6। 44) तब वह साधन उसको स्वर्ग आदि में साधन के बिना चैन से कैसे रहने देगा ? अतः भगवान् उसको साधन करने का मौका देने के लिये शुद्ध श्रीमानों के घर में जन्म देते हैं। जिनका धन शुद्ध कमाई का है , जो कभी पराया हक नहीं लेते , जिनके आचरण तथा भाव शुद्ध हैं , जिनके अन्तःकरण में भोगों का और पदार्थों का महत्त्व है पर उनकी ममता नहीं है , जो सम्पूर्ण पदार्थ और घर – परिवार आदि को साधन-सामग्री समझते हैं , जो भोगबुद्धि से किसी पर अपना व्यक्तिगत आधिपत्य नहीं जमाते वे शुद्ध श्रीमान् कहे जाते हैं। जो धन और भोगों पर अपना आधिपत्य जमाते हैं , वे अपने को तो उन धन और पदार्थों का मालिक मानते हैं , पर हो जाते हैं उनके गुलाम । इसलिये वे शुद्ध श्रीमान् नहीं हैं। पूर्वश्लोक में तो भगवान ने अर्जुन के प्रश्न के अनुसार योगभ्रष्ट की गति बतायी। अब आगे के श्लोक में अथवा कहकर अपनी ही तरफ से दूसरे योगभ्रष्ट की बात कहते हैं स्वामी रामसुखदास जी )

 

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