आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~ छठा अध्याय
16-32 विस्तार से ध्यान योग का विषय
यथा दीपो निवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ৷৷6.19৷৷
यथा-जैसे; दीपः-दीपक; निवातस्थ:-वायुरहित स्थान में; न-नहीं; इङ्गते–हिलना डुलना; सा-यह; उपमा-तुलना; स्मृता-मानी जाती है; योगिनः-योगी की; यतचित्तस्य–जिसका मन नियंत्रण में है; युञ्जतः-दृढ़ अनुपालन; योगम्-ध्यान में; आत्मन:-परम भगवान में।
जिस प्रकार वायुरहित स्थान में दीपक की ज्योति हिलती डुलती नहीं है अर्थात स्थिर रहती है उसी प्रकार से संयमित मन वाला योगी अर्थात जिसका मन और इन्द्रियाँ उसके वश में या नियंत्रण में हैं , सदैव आत्म चिन्तन अर्थात आत्म तत्व या परमात्मा के ध्यान में स्थिर रहता है ৷৷ 6.19 ৷৷
‘यथा दीपो निवातस्थो ৷৷. युञ्जतो योगमात्मनः’ जैसे सर्वथा स्पन्दनरहित वायु के स्थान में रखे हुए दीपक की लौ थोड़ी भी हिलती-डुलती नहीं है । ऐसे ही जो योग का अभ्यास करता है , जिसका मन स्वरूप के चिन्तनमें लगता है और जिसने चित्त को अपने वश में कर रखा है , उस ध्यानयोगी के चित्त के लिये भी दीपक की लौ की उपमा दी गयी है। तात्पर्य है कि उस योगी का चित्त स्वरूप में ऐसा लगा हुआ है कि उसमें एक स्वरूप के सिवाय दूसरा कुछ भी चिन्तन नहीं होता। पूर्वश्लोक में जिस योगी के चित्त को विनियत कहा गया है । उस वशीभूत किये हुए चित्तवाले योगी के लिये यहाँ ‘यतचित्तस्य ‘ पद आया है। कोई भी स्थान वायु से सर्वथा रहित नहीं होता। वायु सर्वत्र रहती है। कहीं पर वायु स्पन्दन रूप से रहती है और कहीं पर निःस्पन्दन रूप से रहती है। इसलिये यहाँ ‘निवातस्थः’ पद वायु के अभाव का वाचक नहीं है बल्कि स्पन्दित वायु के अभाव का वाचक है। यहाँ उपमेय चित्त को पर्वत आदि स्थिर , अचल पदार्थों की उपमा न देकर दीपक की लौ की ही उपमा क्यों दी गयी ? दीपक की लौ तो स्पन्दित वायु से हिल भी सकती है पर पर्वत कभी हिलता ही नहीं। अतः पर्वत की ही उपमा देनी चाहिये थी । इसका उत्तर यह है कि पर्वत स्वभाव से ही स्थिर , अचल और प्रकाशहीन है जब कि दीपक की लौ स्वभाव से चञ्चल और प्रकाशमान है। चञ्चल वस्तु को स्थिर रखने में विशेष कठिनता पड़ती है। चित्त भी दीपक की लौ के समान स्वभाव से ही चञ्चल है , इसलिये चित्त को दीपक की लौ की उपमा दी गयी है। दूसरी बात जैसे दीपक की लौ प्रकाशमान होती है ऐसे ही योगी के चित्त की परमात्मतत्त्व में जागृति रहती है। यह जागृति सुषुप्ति से विलक्षण है। यद्यपि सुषुप्ति और समाधि इन दोनों में संसार की निवृत्ति समान रहती है फिर भी सुषुप्ति में चित्तवृत्ति अविद्या में लीन हो जाती है। अतः उस अवस्था में स्वरूप का भान नहीं होता परन्तु समाधि में चित्तवृत्ति जाग्रत् रहती है अर्थात् चित्त में स्वरूप की जागृति रहती है। इसीलिये यहाँ दीपक की लौ का दृष्टान्त दिया गया है। इसी बात को चौथे अध्याय के 27वें श्लोक में ‘ज्ञानदीपिते’ पदसे कहा है। जिस अवस्था में पूर्णता प्राप्त होती है , उस अवस्था का आगे के श्लोक में स्पष्ट वर्णन करते हैं।