आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~ छठा अध्याय
33-36 मन के निग्रह का विषय
अर्जुन उवाच
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम् ৷৷6.33৷৷
अर्जुन उवाच-अर्जुन ने कहा; य:-जिस; अयम्-यह; योग:-योग की पद्धति; त्वया तुम्हारे द्वारा: प्रोक्तः-वर्णित; साम्येन–समानता से; मधुसूदन श्रीकृष्ण, मधु नाम के असुर का संहार करने वाले; एतस्य–इसकी; अहम्-मैं; न-नहीं; पश्यामि-देखता हूँ; चञ्चलत्वात्-बेचैन होने के कारण; स्थितिम्-स्थिति को; स्थिराम्-स्थिर।
अर्जुन ने कहा-हे मधुसूदन! आपने जिस योग पद्धति का वर्णन किया वह मेरे लिए अव्यवहारिक और अप्राप्य है क्योंकि मन चंचल है अर्थात आपने जो यह साम्य योग समभाव से कहा है, मन के चंचल होने से मैं इसकी नित्य स्थिति को नहीं देखता हूँ৷৷6.33৷৷
( अर्जुन कह रहा कि यह योग पद्धति अत्यन कठिन है और वह इसका पालन करने में असमर्थ है । क्योंकि योग की ऐसी पद्दति तभी संभव है जब मन स्थिर हो, शांत हो , एकाग्र हो । परन्तु अर्जुन कह रहा है कि उसका मन चंचल है तथा अस्थिर है तो यह पद्धति अपनाना उसके लिए या अन्य सामान्य जानो के लिए अत्यंत कठिन है । क्योंकि इस योग शैली में एकांत वास , संसार से विरक्ति , आसान , यम , नियम , जीवन शैली , भौतिक कामनाओं का त्याग इत्यादि कठिन नियम हैं जो किसी भी साधारण मनुष्य के लिए पालन कर पाना अत्यंत कठिन है ।)
(मनुष्य के कल्याण के लिये भगवान ने गीता में खास बात बतायी कि सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति-अप्राप्ति को लेकर चित्त में समता रहनी चाहिये। इस समता से मनुष्य का कल्याण होता है। अर्जुन पापों से डरते थे तो उनके लिये भगवान ने कहा कि जय-पराजय , लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान समझकर तुम युद्ध करो फिर तुम्हारे को पाप नहीं लगेगा (गीता 2। 38)। जैसे दुनिया में बहुत से पाप होते रहते हैं पर वे पाप हमें नहीं लगते क्योंकि उन पापों में हमारी विषमबुद्धि नहीं होती बल्कि समबुद्धि रहती है। ऐसे ही समबुद्धिपूर्वक सांसारिक काम करने से कर्मों से बन्धन नहीं होता। इसी भाव से भगवान ने इस अध्याय के आरम्भ में कहा है कि जो कर्मफल का आश्रय न लेकर कर्तव्यकर्म करता है , वही संन्यासी और योगी है। इसी कर्मफलत्याग की सिद्धि भगवान ने समता बतायी (6। 9)। इस समता की प्राप्ति के लिये भगवान ने 10वें श्लोक से 32वें श्लोक तक ध्यानयोग का वर्णन किया। इसी ध्यानयोग के वर्णन का लक्ष्य करके अर्जुन यहाँ अपनी मान्यता प्रकट करते हैं। ‘योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन’ यहाँ अर्जुन ने जो अपनी मान्यता बतायी है वह पूर्वश्लोक को लेकर नहीं है बल्कि ध्यान के साधन को लेकर है। कारण कि 32वाँ श्लोक ध्यानयोग द्वारा सिद्ध पुरुष का है और सिद्ध पुरुष की समता स्वतः होती है। इसलिये यहाँ यः पद से इस प्रकरण से पहले कहे हुये योग (समता ) का संकेत है और ‘अयम्’ पद से 10वें श्लोक से 28वें श्लोक तक कहे हुए ध्यानयोग के साधन का संकेत है। ‘एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्’ इन पदों से अर्जुन का यह आशय मालूम देता है कि कर्मयोग से तो समता की प्राप्ति सुगम है पर यहाँ जिस ध्यानयोग से समता की प्राप्ति बतायी है मन की चञ्चलता के कारण उस ध्यान में स्थिर स्थिति रहना मुझे बड़ा कठिन दिखायी देता है। तात्पर्य है कि जब तक मन की चञ्चलता का नाश नहीं होगा तब तक ध्यानयोग सिद्ध नहीं होगा और ध्यानयोग सिद्ध हुए बिना समता की प्राप्ति नहीं होगी। जिस चञ्चलता के कारण अर्जुन अपने मन की दृढ़ स्थिति नहीं देखते उस चञ्चलता का आगे के श्लोक में उदाहरण सहित स्पष्ट वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )