आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~ छठा अध्याय
11-15 आसन विधि, परमात्मा का ध्यान, योगी के चार प्रकार
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः ।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ৷৷6.11৷৷
शुचौ-स्वच्छ; देशे-स्थान; प्रतिष्ठाप्य-स्थापित करके; स्थिरम्-स्थिर; आसनम्-आसन; आत्मनः-जीव का; न-नहीं; अति-अधिक; उच्छ्रितम्-ऊँचा; न-न; अति-अधिक; नीचम्-निम्न; चैल–वस्त्र; अजिन-मृगछाला; कुश-घास; उत्तरम्-मृगछला से ढक कर;
योगाभ्यास के लिए स्वच्छ स्थान पर या शुद्ध भूमि पर कुशा बिछाकर उसे मृगछाला से ढककर उसके ऊपर वस्त्र बिछाना चाहिए। आसन बहुत ऊँचा या नीचा नहीं होना चाहिए ৷৷6.11৷৷
(‘शुचौ देशे’ भूमि की शुद्धि दो तरह की होती है (1) स्वाभाविक शुद्ध स्थान जैसे गङ्गा आदि का किनारा , जंगल , तुलसी , आँवला , पीपल आदि पवित्र वृक्षों के पास का स्थान आदि और (2) शुद्ध किया हुआ स्थान जैसे भूमि को गाय के गोबर से लीपकर अथवा जल छिड़क कर शुद्ध किया जाय , जहाँ मिट्टी हो वहाँ ऊपर की चार-पाँच अंगुली मिट्टी दूर करके भूमि को शुद्ध किया जाय। ऐसी स्वाभाविक अथवा शुद्ध की हुई समतल भूमि में काठ या पत्थर की चौकी आदि को लगा दे। ‘चैलाजिनकुशोत्तरम्’ यद्यपि पाठ के अनुसार क्रमशः वस्त्र , मृगछाला और कुश बिछानी चाहिये (टिप्पणी प0 343) तथापि बिछाने में पहले कुश बिछा दे । उसके ऊपर बिना मारे हुए मृग का अर्थात् अपने आप मरे हुए मृग का चर्म बिछा दे क्योंकि मारे हुए मृग का चर्म अशुद्ध होता है। अगर ऐसी मृगछाला न मिले तो कुशपर टाट का बोरा अथवा ऊन का कम्बल बिछा दे। फिर उसके ऊपर कोमल सूती कपड़ा बिछा दे। वाराह भगवान के रोम से उत्पन्न होने के कारण कुश बहुत पवित्र माना गया है अतः उससे बना आसन काम में लाते हैं। ग्रहण आदि के समय सूतक से बचने के लिये अर्थात् शुद्धि के लिये कुश को पदार्थों में , कपड़ों में रखते हैं। पवित्री प्रोक्षण आदि में भी इसको काम में लेते हैं। अतः भगवान ने कुश बिछाने के लिये कहा है। कुश शरीर में गड़े नहीं और हमारे शरीर में जो विद्युत शक्ति है वह आसन में से होकर जमीन में न चली जाय इसलिये (विद्युत्शक्ति को रोकनेके लिये) मृगछाला बिछाने का विधान आया है। मृगछाला के रोम (रोएँ ) शरीर में न लगें और आसन कोमल रहे इसलिये मृगछाला के ऊपर सूती शुद्ध कपड़ा बिछाने के लिये कहा गया है। अगर मृगछाला की जगह कम्बल या टाट हो तो वह गरम न हो जाय इसलिये उस पर सूती कपड़ा बिछाना चाहिये। ‘नात्युच्छ्रितं नातिनीचम्’ समतल शुद्ध भूमि में जो तख्त या चौकी रखी जाय वह न अत्यन्त ऊँची हो और न अत्यन्त नीची हो। कारण कि अत्यन्त ऊँची होने से ध्यान करते समय अचानक नींद आ जाय तो गिरने की और चोट लगने की सम्भावना रहेगी और अत्यन्त नीची होने से भूमि पर घूमने वाले चींटी आदि जन्तुओं के शरीर पर चढ़ जाने से और काटने से ध्यान में विक्षेप होगा। इसलिये अति ऊँचे और अति नीचे आसन का निषेध किया गया है। ‘प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः’ ध्यान के लिये भूमि पर जो आसन , चौकी या तख्त रखा जाय वह हिलने वाला न हो। भूमि पर उसके चारों पाये ठीक तरह से स्थिर रहें। जिस आसन पर बैठकर ध्यान आदि किया जाय वह आसन अपना होना चाहिये , दूसरे का नहीं क्योंकि दूसरे का आसन काम में लिया जाय तो उसमें वैसे ही परमाणु रहते हैं। अतः यहाँ ‘आत्मनः’ पद से अपना आसन अलग रखने का विधान आया है। इसी तरह से गोमुखी माला , सन्ध्या के पञ्चपात्र , आचमनी आदि भी अपने अलग रखने चाहिये। शास्त्रों में तो यहाँ तक विधान आया है कि दूसरों के बैठने का आसन , पहनने की जूती , खड़ाऊँ , कुर्ता आदि को अपने काम में लेने से अपने को दूसरों के पाप-पुण्य का भागी होना पड़ता है। पुण्यात्मा सन्त-महात्माओं के आसन पर भी नहीं बैठना चाहिये क्योंकि उनके आसन , कपड़े आदि को पैर से छूना भी उनका निरादर करना है , अपराध करना है – स्वामी रामसुखदास जी )