आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~ छठा अध्याय
16-32 विस्तार से ध्यान योग का विषय
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ৷৷6.30৷৷
यः-जो; माम्-मुझे; पश्यति-देखता है; सर्वत्र-सभी जगह; सर्वम्-प्रत्येक पदार्थ में; च और; मयि–मुझमें; पश्यति-देखता है; तस्य-उसके लिए; अहम्-मैं; न-नहीं; प्रणश्यामि-अप्रकट होता हूँ; सः-वह; च-और; मे मेरे लिए; न-नहीं; प्रणश्यति–अदृश्य होता है।
वे जो मुझे सर्वत्र और प्रत्येक वस्तु में देखते हैं अर्थात जो सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तर्गत देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता ৷৷6.30৷৷
(‘यो मां पश्यति सर्वत्र’ जो भक्त सब देश , काल , वस्तु , व्यक्ति , पशु , पक्षी , देवता , यक्ष , राक्षस , पदार्थ , परिस्थिति ,घटना आदि में मेरे को देखता है। जैसे ब्रह्माजी जब बछड़ों और ग्वालबालों को चुराकर ले गये तब भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ही बछड़े और ग्वालबाल बन गये। बछड़े और ग्वालबाल ही नहीं बल्कि उनके बेंत , सींग , बाँसुरी , वस्त्र ,आभूषण आदि भी भगवान् स्वयं ही बन गये (टिप्पणी प0 364)। यह लीला एक वर्ष तक चलती रही पर किसी को इसका पता नहीं चला। बछड़ों में से कई बछ़ड़े तो केवल दूध ही पीने वाले थे इसलिये वे घर पर ही रहते थे और बड़े बछड़ों को भगवान् श्रीकृष्ण अपने साथ वन में ले जाते थे। एक दिन दाऊ दादा (बलरामजी ) ने देखा कि छोटे बछड़ों वाली गायें भी अपने पहले के (बड़े) बछड़ों को देखकर उनको दूध पिलाने के लिये हुंकार मारती हुई दौड़ पड़ीं। बड़े गोपों ने उन गायों को बहुत रोका पर वे रुकी नहीं। इससे गोपों को उन गायों पर बहुत गुस्सा आ गया परन्तु जब उन्होंने अपने-अपने बालकों को देखा तब उनका गुस्सा शान्त हो गया और स्नेह उमड़ पड़ा। वे बालकों को हृदयसे लगाने लगे उनका माथा सूँघने लगे। इस लीला को देखकर दाऊ दादा ने सोचा कि यह क्या बात है ? उन्होंने ध्यान लगाकर देखा तो उनको बछड़ों और ग्वालबालों के रूप में भगवान् श्रीकृष्ण ही दिखायी दिये। ऐसे ही भगवान का सिद्ध भक्त सब जगह भगवान को ही देखता है अर्थात् उसकी दृष्टि में भगवत्सत्ता के सिवाय दूसरी किञ्चिन्मात्र भी सत्ता नहीं रहती। ‘सर्वं च मयि पश्यति’ और जो भक्त देश , काल , वस्तु , व्यक्ति , घटना , परिस्थिति आदि को मेरे ही अन्तर्गत देखता है। जैसे गीता का उपदेश देते समय अर्जुन के द्वारा प्रार्थना करने पर भगवान् अपना विश्वरूप दिखाते हुए कहते हैं कि चराचर सारे संसार को मेरे एक अंश में स्थित देख । ‘इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्। मम देहे ৷৷.’ (11। 7) तो अर्जुन भी कहते हैं कि मैं आपके शरीर में सम्पूर्ण प्राणियों को देख रहा हूँ ‘पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान्’ (11। 15)। सञ्जय ने भी कहा कि अर्जुन ने भगवान के शरीर में सारे संसार को देखा – ‘तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा’ (11। 13)। तात्पर्य है कि अर्जुन ने भगवान के शरीर में सब कुछ भगवत्स्वरूप ही देखा। ऐसे ही भक्त देखने , सुनने , समझने में जो कुछ आता है उसको भगवान में ही देखता है और भगवत्स्वरूप ही देखता है। ‘तस्याहं न प्रणश्यामि ‘भक्त जब सब जगह मुझे ही देखता है तो मैं उससे कैसे छिपूँ ? कहाँ छिपूँ ? और किसके पीछे छिपूँ ? इसलिये मैं उस भक्त के लिये अदृश्य नहीं रहता अर्थात् निरन्तर उसके सामने ही रहता हूँ। ‘स च मे न प्रणश्यति’ जब भक्त भगवान को सब जगह देखता है तो भगवान् भी भक्त को सब जगह देखते हैं क्योंकि भगवान का यह नियम है कि जो जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं मैं भी उसी प्रकार उनको आश्रय देता हूँ – ”ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् (गीता 4। 11)। तात्पर्य है कि भक्त भगवान के साथ घुल-मिल जाते हैं । भगवान के साथ उनकी आत्मीयता ,एकता हो जाती है । अतः भगवान् अपने स्वरूप में उनको सब जगह देखते हैं। इस दृष्टि से भक्त भी भगवान के लिये कभी अदृश्य नहीं होता। यहाँ शङ्का होती है कि भगवान के लिये तो कोई भी अदृश्य नहीं है – ‘वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन। भविष्याणि च भूतानि ৷৷.’ (गीता 7। 26) फिर यहाँ केवल भक्त के लिये ही वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता । ऐसा क्यों कहा है ? इसका समाधान है कि यद्यपि भगवान के लिये कोई भी अदृश्य नहीं है तथापि जो भगवान को सब जगह देखता है उसके भाव के कारण भगवान् भी उसको सब जगह देखते हैं परन्तु जो भगवान से विमुख होकर संसार में आसक्त है , उसके लिये भगवान् अदृश्य रहते हैं – ‘नाहं प्रकाशः सर्वस्य’ (गीता 7। 25)। अतः (उसके भाव के कारण) वह भी भगवान के लिये अदृश्य रहता है। जितने अंश में उसका भगवान के प्रति भाव नहीं है उतने अंश में वह भगवान के लिये अदृश्य रहता है। ऐसे ही बात भगवान के नवें अध्याय में भी कही है कि मैं सब प्राणियों में समान हूँ। न तो कोई मेरा द्वेषी है और न कोई प्रिय है परन्तु जो भक्तिपूर्वक मेरा भजन करते हैं वे मेरे में हैं और मैं उनमें हूँ। अब भगवान् ध्यान करने वाले सिद्ध भक्तियोगी के लक्षण बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )