आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~ छठा अध्याय
11-15 आसन विधि, परमात्मा का ध्यान, योगी के चार प्रकार
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः ।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ৷৷6.15৷৷
युज्जन्–मन को भगवान में तल्लीन करना; एवम्-इस प्रकार से; सदा-निरन्तर; आत्मानम्-मन; योगी-योगी; नियत-मानसः-संयमित मन वाला; शान्तिम्-शान्ति; निर्वाण-भौतिक बन्धनों से मुक्ति; परमाम्-परमानंद; मत्-संस्थाम्-मुझमें स्थित होना; अधिगच्छति-प्राप्त करना।
इस प्रकार मन को संयमित रखने वाला योगी मन को निरन्तर मुझमें तल्लीन कर निर्वाण ( मोक्ष अर्थात भौतिक बंधनों से मुक्ति ) प्राप्त करता है और मुझ में स्थित होकर परमानन्द की पराकाष्ठारूप परम शांति पाता है ৷৷6.15৷৷
(‘योगी नियतमानसः’ जिसका मन पर अधिकार है वह ‘नियतमानसः’ है। साधक नियतमानस तभी हो सकता है जब उसके उद्देश्य में केवल परमात्मा ही रहते हैं। परमात्मा के सिवाय उसका और किसी से सम्बन्ध नहीं रहता। कारण कि जब तक उसका सम्बन्ध संसार के साथ बना रहता है तब तक उसका मन नियत नहीं हो सकता। साधक से यह एक बड़ी गलती होती है कि वह अपने आपको गृहस्थ आदि मानता है और साधन ध्यानयोग का करता है। जिससे ध्यानयोग की सिद्धि जल्दी नहीं होती। अतः साधक को चाहिये कि वह अपने आपको गृहस्थ , साधु , ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य , शूद्र आदि किसी वर्ण , आश्रम का न मानकर ऐसा माने कि मैं तो केवल ध्यान करने वाला हूँ। ध्यान से परमात्मा की प्राप्ति करना ही मेरा काम है। सांसारिक ऋद्धि-सिद्धि आदि को प्राप्त करना मेरा उद्देश्य ही नहीं है। इस प्रकार अहंता का परिवर्तन होने पर मन स्वाभाविक ही नियत हो जायगा क्योंकि जहाँ अहंता होती है वहाँ ही अन्तःकरण और बहिःकरणकी स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। ‘युञ्जन्नेवं सदात्मानम्’ 10वें श्लोक के योगी ‘युञ्जीत सततम्’ पदों से लेकर 14वें श्लोक के ‘युक्त आसीत मत्परः’ पदों तक जितना ध्यान का मन लगाने का वर्णन हुआ है , उस सबको यहाँ ‘एवम्’ पद से लेना चाहिये। ‘युञ्जन् आत्मानम्’ का तात्पर्य है कि मन को संसार से हटाकर परमात्मा में लगाते रहना चाहिये। सदा का तात्पर्य है कि प्रतिदिन नियमित रूप से ध्यानयोग का अभ्यास करना चाहिये। कभी योग का अभ्यास किया और कभी नहीं किया ऐसा करने से ध्यानयोग की सिद्धि जल्दी नहीं होती। दूसरा तात्पर्य यह है कि परमात्मा की प्राप्ति का लक्ष्य एकान्त में अथवा व्यवहार में निरन्तर बना रहना चाहिये। ‘शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति’ भगवान में जो वास्तविक स्थिति है , जिसको प्राप्त होने पर कुछ भी प्राप्त करना बाकी नहीं रहता , उसको यहाँ ‘निर्वाणपरमा शान्ति’ कहा गया है। ध्यानयोगी ऐसी निर्वाणपरमा शान्ति को प्राप्त हो जाता है। एक निर्विकल्प स्थिति होती है और एक निर्विकल्प बोध होता है। ध्यानयोग में पहले निर्विकल्प स्थिति होती है फिर उसके बाद निर्विकल्प बोध होता है। इसी निर्विकल्प बोध को यहाँ निर्वाणपरमा शान्ति नाम से कहा गया है। शान्ति दो तरह की होती है शान्ति और परमशान्ति। संसार के त्याग (सम्बन्ध-विच्छेद) से शान्ति होती है और परमात्मतत्त्व की प्राप्ति होने पर परमशान्ति होती है। इसी परमशान्ति को गीता में नैष्ठिकी शान्ति (5। 12) , शश्वच्छान्ति (9। 31) आदि नामों से और यहाँ निर्वाणपरमा शान्ति नाम से कहा गया है। अब आगे के दो श्लोकों में ध्यानयोग के लिये उपयोगी नियमों का क्रमशः व्यतिरेक और अन्वयरीति से वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )