Bhagavad Gita Chapter 6

 

 

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आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~  छठा अध्याय

 

05-10 आत्म-उद्धार की प्रेरणा और भगवत्प्राप्त पुरुष के लक्षण एवं एकांत साधना का महत्व

 

 

shrimad bhagavad geeta chapter 6 chapter 6सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ৷৷6.9৷৷

 

सुहत्-शुभ चिन्तक के प्रति; मित्र-मित्र; अरि-शत्रु; उदासीन-तटस्थ व्यक्ति; मध्यस्थ-मध्यस्थता करना; द्वेष्य – ईर्ष्यालु, बन्धुषु-संबंधियों; साधुषु-पुण्य आत्माएँ; अपि-उसी प्रकार से; च-तथा; पापेषु–पापियों के; सम-बुद्धिः-निष्पक्ष बुद्धि वाला; विशिष्यते-श्रेष्ठ हैं;

 

योगी शुभ चिन्तकों, मित्रों, शत्रुओं , पुण्यात्माओं और पापियों को निष्पक्ष होकर समान भाव से देखते हैं। इस प्रकार जो योगी मित्र, सहयोगी, शत्रु को समदृष्टि से देखते हैं और शत्रुओं एवं सगे संबंधियों के प्रति तटस्थ रहते हैं तथा पुण्यात्माओं और पापियों के बीच निष्पक्ष रहते हैं, वे मनुष्यों के मध्य विशिष्ट माने जाते हैं ৷৷6.9৷৷

 

(आठवें श्लोक में पदार्थों में समता बतायी अब इस श्लोक में व्यक्तियों में समता बताते हैं। व्यक्तियों में समता बताने का तात्पर्य है कि वस्तु तो अपनी तरफ से कोई क्रिया नहीं करती अतः उसमें समबुद्धि होना सुगम है परन्तु व्यक्ति तो अपने लिये और दूसरोंके लिये भी क्रिया करता है अतः उसमें समबुद्धि होना कठिन है। इसलिये व्यक्तियों के आचरणों को देखकर भी जिसकी बुद्धि में , विचार में कोई विषमता या पक्षपात नहीं होता , ऐसा समबुद्धि वाला पुरुष श्रेष्ठ है। ‘सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु’ जो माता की तरह ही पर ममता रहित होकर बिना किसी कारण के सबका हित चाहनेके और हित कर नेके स्वभाव वाला होता है उसको सुहृद् कहते हैं और जो उपकार के बदले उपकार करने वाला होता है उसको मित्र कहते हैं। जैसे सुहृद् का बिना कारण दूसरों का हित करने का स्वभाव होता है ऐसे ही जिसका बिना कारण दूसरों का अहित करने का स्वभाव होता है उसको अरि कहते हैं। जो अपने स्वार्थ से अथवा अन्य किसी कारण विशेष को लेकर दूसरों का अहित अपकार करता है वह द्वेष्य होता है। दो आपस में वाद-विवाद कर रहे हैं उनको देखकर भी जो तटस्थ रहता है किसी का किञ्चिन्मात्र भी पक्षपात नहीं करता और अपनी तरफ से कुछ कहता भी नहीं वह उदासीन कहलाता है परन्तु उन दोनों की लड़ाई मिट जाय और दोनों का हित हो जाय , ऐसी चेष्टा करने वाला मध्यस्थ कहलाता है। एक तो बन्धु अर्थात् सम्बन्धी है और दूसरा बन्धु नहीं है पर दोनों के साथ बर्ताव करने में उसके मन में कोई विषमभाव नहीं होता। जैसे उसके पुत्र ने अथवा अन्य किसी के पुत्र ने कोई बुरा काम किया है तो वह उनके अपराध के अनुरूप दोनों को ही समान दण्ड देता है , ऐसे ही उसके पुत्र ने अथवा दूसरे के पुत्र ने कोई अच्छा काम किया है तो उनको पुरस्कार देने में भी उसका कोई पक्षपात नहीं होता। ‘साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते’ श्रेष्ठ आचरण करने वालों और पाप-आचरण करने वालों के साथ व्यवहार करने में तो अन्तर होता है और अन्तर होना ही चाहिये पर उन दोनों की हितैषिता में अर्थात् उनका हित करने में दुःख के समय उनकी सहायता करने में उसके अन्तःकरण में कोई विषमभाव या पक्षपात नहीं होता। सबमें एक परमात्मा हैं ऐसा स्वयं में होता है , बुद्धि में सबकी हितैषिता होती है , मन में सबका हित-चिन्तन होता है और व्यवहार में परता-ममता छोड़कर सबके सुख का सम्पादन होता है। जहाँ विषमबुद्धि अधिक रहने की सम्भावना है वहाँ भी समबुद्धि होना विशेष है। वहाँ समबुद्धि हो जाय तो फिर सब जगह समबुद्धि हो जाती है। इस श्लोक में भाव गुण आचरण आदि की भिन्नता को लेकर नौ प्रकार के प्राणियों का नाम आया है। इन प्राणियों के भाव , गुण , आचरण आदि की भिन्नता को लेकर उनके साथ बर्ताव करने में विषमता आ जाय तो वह दोषी नहीं है। कारण कि वह बर्ताव तो उनके भाव , आचरण , परिस्थिति आदि के अनुसार ही है और उनके लिये ही है अपने लिये नहीं परन्तु उन सब में परमात्मा ही परिपूर्ण हैं , इस भाव में कोई फरक नहीं आना चाहिये और अपनी तरफ से सबकी सेवा बन जाय , इस भाव में भी कोई अन्तर नहीं आना चाहिये। तात्पर्य यह हुआ कि जिस किसी मार्ग से जिसको तत्त्वबोध हो जाता है उसकी सब जगह समबुद्धि हो जाती है अर्थात् किसी भी जगह पक्षपात न होकर समान रीति से सेवा और हित का भाव हो जाता है। जैसे भगवान् सम्पूर्ण प्राणियों के सुहृद् हैं ‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’ (गीता 5। 29) ऐसे ही वह सिद्ध कर्मयोगी भी सम्पूर्ण प्राणियों का सुहृद् हो जाता है ‘सुहृदः सर्वदेहिनाम्’ (श्रीमद्भा0 3। 25। 21)। यहाँ सुहृद् मित्र आदि नाम लेने के बाद अन्त में ‘साधुष्वपि च पापेषु’ कहने का तात्पर्य है कि जिसकी श्रेष्ठ आचरण वालों और निकृष्ट आचरण वालों में समबुद्धि हो जायगी उसकी सब जगह समबुद्धि हो जायगी। कारण कि संसार में आचरणों की ही मुख्यता है । आचरणों का ही असर पड़ता है , आचरणों से ही मनुष्य की परीक्षा होती है , आचरणों से ही श्रद्धा-अश्रद्धा होती है , स्वाभाविक दृष्टि आचरणों पर ही पड़ती है और आचरणों से ही सद्भाव-दुर्भाव पैदा होते हैं। भगवान ने भी ‘यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः’ (3। 21) कहकर आचरण की बात मुख्य बतायी है। इसलिये श्रेष्ठ आचरण वाले और निकृष्ट आचरणवाले इन दोनों में समता हो जायगी तो फिर सबह जगह समता हो जायगी । इन दोनों में भी श्रेष्ठ आचरणवाले पुरुषों में तो सद्भाव होना सुगम है पर पाप आचरण वाले पुरुषों में सद्भाव होना कठिन है। अतः भगवान ने यहाँ ‘अपि च’ दो अव्ययोंका प्रयोग किया है जिसका अर्थ है और पाप-आचरण करने वालों में भी जिसकी समबुद्धि है वह श्रेष्ठ है। यहाँ दिखने वालों को लेकर देखने वाले की स्थिति का वर्णन किया गया है अतः ‘समबुद्धिर्विशिष्यते’ कहा है। देखने वालों में जो समबुद्धि होती है वह हर एक को दिखती नहीं पर साधक के लिये तो वही मुख्य है क्योंकि साधक ‘मैं अपनी दृष्टि से कैसा हूँ?’ ऐसे अपने आप को देखता है। इसलिये अपने आप से अपना उद्धार करने के लिये कहा गया है (6। 5)। संसार में प्रायः दूसरों के आचरणों पर ही दृष्टि रहती है। साधक को विचार करना चाहिये कि मेरी दृष्टि अपने भावों पर रहती है या दूसरे के आचरणों पर । दूसरों के आचरणों पर दृष्टि रहने से जिस दृष्टि से अपना कल्याण होता है वह दृष्टि बंद हो जाती है और अँधेरा हो जाता है। इसलिये दूसरों के श्रेष्ठ और निकृष्ठ आचरणों पर दृष्टि न रहकर उनका जो वास्तविक स्वरूप है उस पर दृष्टि रहनी चाहिये। स्वरूप पर दृष्टि रहने से उनके आचरणों पर दृष्टि नहीं रहेगी क्योंकि स्वरूप सदा ज्यों का त्यों रहता है जब कि आचरण बदलते रहते हैं। सत्यतत्त्व पर रहने वाली दृष्टि भी सत्य होती है परन्तु जिसकी दृष्टि केवल आचरणों पर ही रहती है उसकी दृष्टि असत पर रहने से असत् ही होती है। इसमें भी अशुद्ध आचरणों पर जिसकी ज्यादा दृष्टि है उसका तो पतन ही समझना चाहिये। तात्पर्य है कि जो आचरण आदरणीय नहीं है ऐसे अशुद्ध आचरणों को जो मुख्यता देता है वह तो अपना पतन ही करता है। अतः भगवान ने यहाँ अशुद्ध आचरण करने वाले पापी में भी समबुद्धिवाले को श्रेष्ठ बताया है। कारण कि उसकी दृष्टि सत्यतत्त्व पर रहने से उसकी दृष्टि में सब कुछ परमात्मतत्त्व ही रहता है। फिर आगे चलकर सब कुछ नहीं रहता केवल परमात्मतत्त्व ही रहता है। उसी की यहाँ ‘समबुद्धिर्विशिष्यते’ पद से महिमा गायी गयी है। विशेष बात- गीता का योग समता ही है ‘समत्वं योग उच्यते’ (2। 48)। गीता की दृष्टि से अगर समता आ गयी तो दूसरे किसी लक्षण की जरूरत नहीं है अर्थात् जिसको वास्तविक समता की प्राप्ति हो गयी है उसमें सभी सद्गुण-सदाचार स्वतः आ जायँगे और उसकी संसार पर विजय हो जायगी (5। 19)। विष्णुपुराण में प्रह्लादजी ने भी कहा है कि समता भगवान की आराधना (भजन) है – ‘समत्वमाराधनमच्युतस्य’ (1। 17। 90)। इस तरह जिस समता की असीम , अपार , अनन्त महिमा है , जिसका वर्णन कभी कोई कर ही नहीं सकता , उस समता की प्राप्ति का उपाय है बुराई रहित होना। बुराई रहित होने का उपाय है (1) किसी को बुरा न मानें (2) किसी का बुरा न करें (3) किसी का बुरा न सोचें (4) किसी में बुराई न देखें (5) किसी की बुराई न सुनें (6) किसी की बुराई न कहें। इन छः बातों का दृढ़ता से पालन करें तो हम बुराई रहित हो जायँगे। बुराईरहित होते ही हमारे में स्वतः स्वाभाविक अच्छाई आ जायगी क्योंकि अच्छाई हमारा स्वरूप है। अच्छाई को लाने के लिये हम प्रयत्न करते हैं , साधन करते हैं परन्तु वर्षों तक साधन करने पर भी वास्तविक अच्छाई हमारे में नहीं आती और साधन करने पर खुद को भी सन्तोष नहीं होता बल्कि यही विचार होता है कि इतना साधन करने पर भी सद्गुण-सदाचार नहीं आये। अतः ये सद्गुण-सदाचार आने के हैं नहीं ऐसा समझकर हम साधन से हताश हो जाते हैं। हताश होने में मुख्य कारण यही है कि हमने अच्छाई को उद्योगसाध्य माना है और बुराई को सर्वथा नहीं छोड़ा है। बुराई का सर्वथा त्याग किये बिना आंशिक अच्छाई बुराई को बल देती रहती है। कारण कि आंशिक अच्छाई से अच्छाई का अभिमान होता है और जितनी बुराई है वह सब की सब अच्छाई के अभिमान पर ही अवलम्बित है। पूर्ण अच्छाई होने पर अच्छाई का अभिमान नहीं होता और बुराई भी उत्पन्न नहीं होती। अतः बुराई का त्याग करने पर अच्छाई बिना उद्योग किये और बिना चाहे स्वतः आ जाती है। जब अच्छाई हमारे में आ जाती है तब हम अच्छे हो जाते हैं। जब हम अच्छे हो जाते हैं तब हमारे द्वारा स्वाभाविक ही अच्छाई होने लगती है। जब अच्छाई होने लग जाती है तब सृष्टि के द्वारा स्वाभाविक ही हमारा जीवननिर्वाह होने लगता है अर्थात् जीवननिर्वाह के लिये हमें परिश्रम नहीं करना पड़ता और दूसरों का आश्रय भी नहीं लेना पड़ता। ऐसी अवस्था में हम संसार के आश्रय से सर्वथा मुक्त हो जाते हैं। संसार के आश्रय से सर्वथा मुक्त होते ही हमें स्वतःसिद्ध समता प्राप्त हो जाती है और हम कृतकृत्य हो जाते हैं , जीवन्मुक्त हो जाते हैं। सम्बन्ध  जो समता (समबुद्धि) कर्मयोग से प्राप्त होती है वही समता ध्यानयोग से भी प्राप्त होती है। इसलिये भगवान् ध्यानयोग का प्रकरण आरम्भ कहते हुए पहले ध्यानयोग के लिये प्रेरणा करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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