आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~ छठा अध्याय
16-32 विस्तार से ध्यान योग का विषय
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ৷৷6.31৷৷
सर्व-भूत-सभी जीवों में स्थित; यः-जो; माम्-मुझको; भजति–आराधना करता है; एकत्वम्-एकीकृत; अस्थितः-विकसित; सर्वथा-सभी प्रकार से; वर्तमान:-करता हुआ; अपि-भी; सः-सह; योगी-योगी; मयि–मुझमें; वर्तते-निवास करता है।
जो योगी मुझमें एकनिष्ठ हो जाता है और परमात्मा के रूप में सभी प्राणियों में मुझे देखकर श्रद्धापूर्वक मेरी भक्ति करता है, वह सभी प्रकार के कर्म करता हुआ भी केवल मुझमें स्थित हो जाता है अर्थात जो पुरुष एकीभाव में स्थित होकर सम्पूर्ण भूतों में आत्मरूप से स्थित मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव को भजता है, वह योगी सब प्रकार से बरतता हुआ भी मुझमें ही बरतता है अर्थात वह सभी प्रकार के कर्म करता हुआ भी केवल मुझमें स्थित हो जाता है৷৷6.31৷৷
(‘एकत्वमास्थितः’ पूर्वश्लोक में भगवान ने बताया था कि जो मेरे को सब में और सब को मेरे में देखता है उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता। अदृश्य क्यों नहीं होता ? कारण कि सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित मेरे साथ उसकी अभिन्नता हो गयी है अर्थात् मेरे साथ उसका अत्यधिक प्रेम हो गया है। अद्वैत सिद्धान्त में तो स्वरूप से एकता होती है पर यहाँ वैसी एकता नहीं है। यहाँ द्वैत होते हुए भी अभिन्नता है अर्थात् भगवान् और भक्त दिखने में तो दो हैं पर वास्तव में एक ही हैं (टिप्पणी प0 365)। जैसे पति और पत्नी दो शरीर होते हुए भी अपने को अभिन्न मानते हैं , दो मित्र अपने को एक ही मानते हैं क्योंकि अत्यन्त स्नेह होने के कारण वहाँ द्वैतपना नहीं रहता। ऐसे ही जो भक्तियोग का साधक भगवान को प्राप्त हो जाता है , भगवान में अत्यन्त स्नेह होने के कारण उसकी भगवान से अभिन्नता हो जाती है। इसी अभिन्नता को यहाँ ‘एकत्वमास्थितः’ पद से बताया गया है। ‘सर्वभूतस्थितं यो मां भजति’ सब देश , काल , वस्तु , व्यक्ति , घटना ,परिस्थिति आदि में भगवान् ही परिपूर्ण हैं अर्थात् सम्पूर्ण चराचर जगत् भगवत्स्वरूप ही है – ‘वासुदेवः सर्वम्’ (7। 19) यही उसका भजन है। ‘सर्वभूतस्थितम्’ पद से ऐसा असर पड़ता है कि भगवान् केवल प्राणियों में ही स्थित हैं परन्तु वास्तव में ऐसी बात नहीं है। भगवान् केवल प्राणियों में ही स्थित नहीं हैं बल्कि संसार के कण-कण में परिपूर्ण रूप से स्थित हैं। जैसे सोने के आभूषण सोनेसे ही बनते हैं , सोने में ही स्थित रहते हैं और सोने में ही उनका पर्यवसान होता है अर्थात् सब समय एक सोना ही सोना है परन्तु लोगों की दृष्टि में आभूषणों की सत्ता अलग प्रतीत होने के कारण उनको समझाने के लिये कहा जाता है कि आभूषणों में सोना ही है। ऐसे ही सृष्टिके पहले सृष्टि के समय और सृष्टि के बाद एक परमात्मा ही परमात्मा है परन्तु लोगों की दृष्टि में प्राणियों और पदार्थों की सत्ता अलग प्रतीत होने के कारण उनको समझाने के लिये कहा जाता है कि सब प्राणियों में एक परमात्मा ही है दूसरा कोई नहीं है। इसी वास्तविकता को यहाँ ‘सर्वभूतस्थितं माम्’ पदों से कहा गया है। ‘सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते’ वह शास्त्र और वर्णआश्रम की मर्यादा के अनुसार खाते-पीते , सोते-जागते , उठते-बैठते आदि सभी क्रियाएँ करते हुए मेरे में ही बरतता है , मेरे में ही रहता है। कारण कि जब उसकी दृष्टि में मेरे सिवाय दूसरी कोई सत्ता ही नहीं रही तो फिर वह जो कुछ बर्ताव करेगा उसको कहाँ करेगा ? वह तो मेरे में ही सब कुछ करेगा। 13वें अध्याय में ज्ञानयोग के प्रकरण में भगवान ने यह बताया कि सब कुछ बर्ताव करते हुए भी उसका फिर जन्म नहीं होता – ‘सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ‘ (13। 23) और यहाँ भगवान ने बताया है कि सब कुछ बर्ताव करते हुए भी वह मेरे में ही रहता है। इसका तात्पर्य यह है कि वहाँ संसार से सम्बन्ध-विच्छेद होनेकी बात है और यहाँ भगवान के साथ अभिन्न होने की बात है। संसार से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर ज्ञानयोगी मुक्त हो जाता है और भगवान के साथ अभिन्नता होने पर भक्त प्रेम के एक विलक्षण रस का आस्वादन करता है , जो अनन्त और प्रतिक्षण वर्धमान है। यहाँ भगवान ने कहा है कि वह योगी मेरे में बर्ताव करता है अर्थात् मेरे में ही रहता है। इस पर शङ्का होती है कि क्या अन्य प्राणी भगवान में नहीं रहते । इसका समाधान यह है कि वास्तव में सम्पूर्ण प्राणी भगवान में ही बरतते हैं , भगवान में ही रहते हैं परन्तु उनके अन्तःकरण में संसार की सत्ता और महत्ता रहने से वे भगवान में अपनी स्थिति जानते नहीं , मानते नहीं। अतः भगवान में बरतते हुए भी भगवान में रहते हुए भी उनका बर्ताव संसार में ही हो रहा है अर्थात् उन्होंने जगत में अहंता-ममता करके जगत को धारण कर रखा है – ‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता 7। 5)। वे जगत को भगवान का स्वरूप न समझकर अर्थात् जगत् समझकर बर्ताव करते हैं। वे कहते भी हैं कि हम तो संसारी आदमी हैं , हम तो संसार में रहने वाले हैं परन्तु भगवान का भक्त इस बात को जानता है कि यह सब संसार वासुदेवरूप है। अतः वह भक्त हरदम भगवान में ही रहता है और भगवान में ही बर्ताव करता है। भगवान ने पहले 29वें श्लोक में स्वरूप के ध्यानयोगी का अनुभव बताया। बीच में 30वें , 31वें श्लोकों में सिद्ध भक्तियोगी की स्थिति और लक्षण बताये। अब फिर निर्गुण-निराकार का ध्यान करने वाले सांख्ययोगी का अनुभव बताने के लिये आगे का श्लोक कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )