आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~ छठा अध्याय
16-32 विस्तार से ध्यान योग का विषय
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ৷৷6.26৷৷
यतः-यत:-जब भी और जहाँ भी; निश्चरति-भटकने लगे; मन:-मन; चञ्चलम्-बेचैन; अस्थिरम्-अस्थिर; ततः-तत:-वहाँ से; नियम्य-हटाकर; एतत्-इस; आत्मनि-भगवान पर; एव-निश्चय ही; वशम्-नियंत्रण; नयेत्-ले आए।
जब और जहाँ भी मन बेचैन और अस्थिर होकर भटकने लगे अर्थात यह स्थिर न रहने वाला और चंचल मन जिस-जिस शब्दादि विषय के निमित्त से संसार में विचरने लगे तब तब उसे उस – उस विषय से खींच कर अर्थात वापस लाकर वश में कर के स्थिर करते हुए बार – बार भगवान की ओर केन्द्रित करना चाहिए ৷৷6.26৷৷
(‘यतो यतो निश्चरति ৷৷. आत्मन्येव वशं नयेत्’ साधक ने जो ध्येय बनाया है , उसमें यह मन टिकता नहीं , ठहरता नहीं। अतः इसको अस्थिर कहा गया है। यह मन तरह-तरह के सांसारिक भोगों का , पदार्थों का चिन्तन करता है। अतः इसको चञ्चल कहा गया है। तात्पर्य है कि यह मन न तो परमात्मा में स्थिर होता है और न संसार को ही छोड़ता है। इसलिये साधक को चाहिये कि यह मन जहाँ-जहाँ जाय , जिस-जिस कारण से जाय , जैसे-जैसे जाय और जब-जब जाय , इसको वहाँ-वहाँ से , उस-उस कारण से , वैसे-वैसे और तब-तब हटा कर परमात्मा में लगाये। इस अस्थिर और चञ्चल मन का नियमन करने में सावधानी रखे , ढिलाई न करे। मन को परमात्मा में लगाने का तात्पर्य है कि जब यह पता लगे कि मन पदार्थों का चिन्तन कर रहा है , तभी ऐसा विचार करे कि चिन्तन की वृत्ति और उसके विषय का आधार और प्रकाशक परमात्मा ही हैं। यही परमात्मा में मन लगाना है। परमात्मा में मन लगाने की युक्तियाँ (1) मन जिस किसी इन्द्रिय के विषय में , जिस किसी व्यक्ति , वस्तु , घटना , परिस्थिति आदि में चला जाय अर्थात् उसका चिन्तन करने लग जाय , उसी समय , उस विषय आदि से मन को हटाकर अपने ध्येय परमात्मा में लगाये। फिर चला जाय तो फिर लाकर परमात्मा में लगाये। इस प्रकार मन को बार-बार अपने ध्येय में लगाता रहे। (2) जहाँ-जहाँ मन जाय वहाँ-वहाँ ही परमात्मा को देखे। जैसे गङ्गाजी याद आ जायँ तो गङ्गाजी के रूप में परमात्मा ही हैं , गाय याद आ जाय तो गायरूप से परमात्मा ही हैं , इस तरह मन को परमात्मामें लगाये। दूसरी दृष्टि से गङ्गाजी आदि में सत्तारूप से परमात्मा ही परमात्मा हैं क्योंकि इनसे पहले भी परमात्मा ही थे , इनके मिटने पर भी परमात्मा ही रहेंगे और इनके रहते हुए भी परमात्मा ही हैं इस तरह मन को परमात्मा में लगाये। (3) साधक जब परमात्मा में मन लगाने का अभ्यास करता है तब संसार की बातें याद आती हैं। इससे साधक घबरा जाता है कि जब मैं संसार का काम करता हूँ तब इतनी बातें याद नहीं आतीं , इतना चिन्तन नहीं होता , परन्तु जब परमात्मा में मन लगाने का अभ्यास करता हूँ , तब मन में तरह-तरह की बातें याद आने लगती हैं पर ऐसा समझकर साधक को घबराना नहीं चाहिये क्योंकि जब साधक का उद्देश्य परमात्मा का बन गया तो अब संसार के चिन्तन के रूप में भीतर से कूड़ा-कचरा निकल रहा है , भीतर से सफाई हो रही है। तात्पर्य है कि सांसारिक कार्य करते समय , भीतर जमा हुए पुराने संस्कारों को बाहर निकलने का मौका नहीं मिलता। इसलिये सांसारिक कार्य छोड़कर एकान्त में बैठने से उनको बाहर निकलने का मौका मिलता है और वे बाहर निकलने लगते हैं। (4) साधक को भगवान का चिन्तन करने में कठिनता इसलिये पड़ती है कि वह अपने को संसार का मानकर भगवान का चिन्तन करता है। अतः संसार का चिन्तन स्वतः होता है और भगवान का चिन्तन करना पड़ता है फिर भी चिन्तन होता नहीं। इसलिये साधक को चाहिये कि वह भगवान का होकर भगवान का चिन्तन करे। तात्पर्य है कि मैं तो केवल भगवान का हूँ और केवल भगवान ही मेरे हैं ,मैं शरीर-संसार का नहीं हूँ और शरीरसंसार मेरे नहीं हैं , इस तरह भगवान के साथ सम्बन्ध होने से भगवान का चिन्तन स्वाभाविक ही होने लगेगा , चिन्तन करना नहीं पड़ेगा। (5) ध्यान करते समय साधक को यह ख्याल रखना चाहिये कि मन में कोई कार्य जमा न रहे अर्थात् अमुक कार्य करना है , अमुक स्थान पर जाना है , अमुक व्यक्ति से मिलना है , अमुक व्यक्ति मिलने के लिये आने वाला है तो उसके साथ बातचीत भी करनी है आदि कार्य जमा न रखे। इन कार्यों के संकल्प ध्यान को लगने नहीं देते। अतः ध्यान में शान्तचित्त होकर बैठना चाहिये।(6) ध्यान करते समय कभी संकल्प-विकल्प आ जायँ तो अड़ंग-बड़ंग स्वाहा ऐसा कह कर उन को दूर कर दे अर्थात् स्वाहा कहकर संकल्प-विकल्प (अड़ंग-बड़ंग) की आहुति दे दे। (7) सामने देखते हुए पलकों को कुछ देर बार-बार शीघ्रता से झपकाये और फिर नेत्र बंद कर ले। पलकें झपकाने से जैसे बाहर का दृश्य कटता है ऐसे ही भीतर के संकल्प-विकल्प भी कट जाते हैं।(8) पहले नासिका से श्वास को दो तीन बार जोर से बाहर निकाले और फिर अन्त में जोर से (फुंकार के साथ) पूरे श्वास को बाहर निकाल कर बाहर ही रोक दे। जितनी देर श्वास रोक सके उतनी देर रोक कर फिर धीरे-धीरे श्वास लेते हुए स्वाभाविक श्वास लेने की स्थितिमें आ जाय। इससे सभी संकल्प-विकल्प मिट जाते हैं। 24वें , 25वें श्लोकों में जिस ध्यानयोगी की उपरति का वर्णन किया गया आगे के दो श्लोकों में उसकी अवस्था का वर्णन करते हुए उसके साधन का फल बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )