आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~ छठा अध्याय
16-32 विस्तार से ध्यान योग का विषय
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया ।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ৷৷6.20৷৷
यत्र-जैसे; उपरमते-आंतरिक सुख की अनुभूति; चित्तम्-मन; निरूद्धम्-हटाना; योगसेवया- योग के अभ्यास द्वारा; यत्र-जब; च-भी; एव-निश्चय ही; आत्मना-शुद्ध मन के साथ; आत्मानम्-आत्मा; आत्मनि-अपने में; तुष्यति-संतुष्ट हो जाना;
जब योग के अभ्यास के द्वारा मन भौतिक क्रियाओं से दूर हट कर स्थिर हो जाता है तब निश्चित रूप से योगी शुद्ध मन से आत्म-तत्त्व को देख सकता है और आंतरिक आनन्द में मगन हो जाता है अर्थात परमात्मा के ध्यान से शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा परमात्मा का साक्षात्कार करता हुआ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही सन्तुष्ट रहता है ৷৷6.20৷৷
( योगाभ्यास की शक्ति से वायु रहित स्थान में रखे हुए दीपक की भाँति एकाग्र किया हुआ तथा योगसाधन से वश में किया हुआ चञ्चलता रहित चित्त जिस समय उपरत होता है उस काल में योगी समाधि द्वारा अति निर्मल अन्तःकरण से परम चैतन्य ज्योतिःस्वरूप आत्मा का साक्षात्कार करता हुआ स्वयं अपने-आप से अपने-आप को देखता हुआ अपने आप में ही संतुष्ट हो जाता है। )
‘यत्रोपरमते चित्तं ৷৷. पश्यन्नात्मनि तुष्यति ‘ ध्यानयोग में पहले मन को केवल स्वरूप में ही लगाना है यह धारणा होती है। ऐसी धारणा होने के बाद स्वरूप के सिवाय दूसरी कोई वृत्ति पैदा हो भी जाय तो उसकी उपेक्षा करके उसे हटा देने और चित्त को केवल स्वरूप में ही लगाने से जब मन का प्रवाह केवल स्वरूप में ही लग जाता है तब उसको ध्यान कहते हैं। ध्यान के समय ध्याता , ध्यान और ध्येय यह त्रिपुटी रहती है अर्थात् साधक ध्यान के समय अपने को ध्याता (ध्यान करने वाला) मानता है , स्वरूप में तद्रूप होने वाली वृत्ति को ध्यान मानता है और साध्यरूप स्वरूप को ध्येय मानता है। तात्पर्य है कि जब तक इन तीनों का अलग-अलग ज्ञान रहता है , तब तक वह ध्यान कहलाता है। ध्यान में ध्येय की मुख्यता होने के कारण साधक पहले अपने में ध्यातापना भूल जाता है। फिर ध्यान की वृत्ति भी भूल जाता है। अन्त में केवल ध्येय ही जाग्रत् रहता है। इसको समाधि कहते हैं। यह संप्रज्ञात-समाधि है जो चित्त की एकाग्र अवस्था में होती है। इस समाधि के दीर्घकाल के अभ्यास से फिर असंप्रज्ञातसमाधि होती है। इन दोनों समाधियों में भेद यह है कि जब तक ध्येय , ध्येय का नाम और नाम-नामी का सम्बन्ध ये तीनों चीजें रहती हैं तब तक वह संप्रज्ञातसमाधि होती है। इसी को चित्त की एकाग्र अवस्था कहते हैं परन्तु जब नाम की स्मृति न रहकर केवल नामी (ध्येय ) रह जाता है तब वह असंप्रज्ञातसमाधि होती है। इसी को चित्त की निरुद्ध अवस्था कहते हैं। निरुद्ध अवस्था की समाधि दो तरह की होती है सबीज और निर्बीज। जिसमें संसार की सूक्ष्म वासना रहती है , वह सबीज समाधि कहलाती है। सूक्ष्म वासना के कारण सबीज समाधि में सिद्धियाँ प्रकट हो जाती हैं। ये सिद्धियाँ सांसारिक दृष्टि से तो ऐश्वर्य हैं पर पारमार्थिक दृष्टि से (चेतनतत्त्व की प्राप्ति में ) विघ्न हैं। ध्यानयोगी जब इन सिद्धियों को निस्तत्त्व समझकर इनसे उपराम हो जाता है , तब उसकी निर्बीज समाधि होती है । जिसका यहाँ (इस श्लोक में) ‘निरुद्धम्’ पदसे संकेत किया गया है। ध्यान में संसार के सम्बन्ध से विमुख होने पर एक शान्ति एक सुख मिलता है जो कि संसार का सम्बन्ध रहने पर कभी नहीं मिलता। ‘संप्रज्ञातसमाधि’ में उससे भी विलक्षण सुख का अनुभव होता है। इस संप्रज्ञातसमाधि से भी असंप्रज्ञातसमाधि में विलक्षण सुख होता है। जब साधक निर्बीज समाधि में पहुँचता है तब उसमें बहुत ही विलक्षण सुख आनन्द होता है। योग का अभ्यास करते-करते चित्त निरुद्धअवस्था – निर्बीज समाधि से भी उपराम हो जाता है अर्थात् योगी उस निर्बीज समाधि का भी सुख नहीं लेता , उसके सुख का भोक्ता नहीं बनता। उस समय वह अपने स्वरूप में अपने आप का अनुभव करता हुआ अपने आप में सन्तुष्ट होता है। ‘उपरमते’ पद का तात्पर्य है कि चित्त का संसार से तो प्रयोजन रहा नहीं और स्वरूप को पकड़ सकता नहीं। कारण कि चित्त प्रकृति का कार्य होने से जड है और स्वरूप चेतन है। जड चित्त स्वरूप को कैसे पकड़ सकता है , नहीं पकड़ सकता। इसलिये वह उपराम हो जाता है। चित्त के उपराम होने पर योगी का चित्त से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। तुष्यति कहने का तात्पर्य है कि उसके सन्तोष का दूसरा कोई किञ्चिन्मात्र भी कारण नहीं रहता। केवल अपना स्वरूप ही उसके सन्तोष का कारण रहता है। इस श्लोक का सार यह है कि अपने द्वारा , अपने में ही अपने स्वरूप की अनुभूति होती है। वह तत्त्व अपने भीतर ज्यों का त्यों है। केवल संसार से अपना सम्बन्ध मानने के कारण चित्त की वृत्तियाँ संसार में लगती हैं , जिससे उस तत्त्व की अनुभूति नहीं होती। जब ध्यानयोग के द्वारा चित्त संसार से उपराम हो जाता है तब योगी का चित्त से तथा संसार से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। संसार से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होते ही उसको अपने आप में ही अपने स्वरूप की अनुभूति हो जाती है। विशेष बात- जिस तत्त्व की प्राप्ति ध्यानयोग से होती है , उसी तत्त्व की प्राप्ति कर्मयोग से होती है परन्तु इन दोनों साधनों में थोड़ा अन्तर है। ध्यानयोग में जब साधक का चित्त समाधि के सुख से भी उपराम हो जाता है तब वह अपने आप से अपने आप में सन्तुष्ट हो जाता है। कर्मयोग में जब साधक मनोगत सम्पूर्ण कामनाओं का सर्वथा त्याग कर देता है तब वह अपने आप से अपने आप में सन्तुष्ट होता है (गीता 2। 55)।ध्यानयोग में अपने स्वरूप में मन लगने से जब मन स्वरूप में तदाकार हो जाता है , तब समाधि लगती है। उस समाधि से भी जब मन उपराम हो जाता है तब योगी का चित्त से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और वह अपने आप में सन्तुष्ट हो जाता है। कर्मयोग में मन , बुद्धि , इन्द्रियाँ , शरीर आदि पदार्थों का और सम्पूर्ण क्रियाओं का प्रवाह केवल दूसरों के हित की तरफ हो जाता है , तब मनोगत सम्पूर्ण कामनाएँ छूट जाती हैं। कामनाओं का त्याग होते ही मन से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और वह अपने आप में सन्तुष्ट हो जाता है। पूर्वश्लोक में कहा गया कि ध्यानयोगी अपने आप से अपने आप में ही सन्तोष का अनुभव करता है। अब उसके बाद क्या होता है इसको आगे के श्लोक में बताते हैं।