आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~ छठा अध्याय
01-04 कर्मयोग का विषय और योगारूढ़ के लक्षण, काम-संकल्प-त्याग का महत्व
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते ৷৷6.4৷৷
यदा-जब; हि-निश्चय ही; न-नहीं; इन्द्रिय अर्थेषु- इन्द्रिय विषयों के लिए; न- कभी नहीं; कर्मसु-कर्म करना; अनुषज्जते-आसक्ति होना; सर्व-सङ्कल्प-सभी प्रकार के कर्म फलों की कामना करना; संन्यासी-वैरागी; योग आरूढ:-योग विज्ञान में उन्नत; तदा-उस समय; उच्यते-कहा जाता है।
जब कोई मनुष्य न तो इन्द्रिय विषयों और भोगों में और न ही कर्मों में आसक्त होता है और सभी प्रकार के कर्म फलों की सभी इच्छाओं का त्याग कर देता है ऐसे वैरागी तथा सन्यासी मनुष्य को योग मार्ग में आरूढ़ योगी कहा जाता है ৷৷6.4৷৷
(‘ यदा हि नेन्द्रियार्थेषु ‘ (अनुषज्जते) साधक इन्द्रियों के अर्थों में अर्थात् प्रारब्ध के अनुसार प्राप्त होने वाले शब्द , स्पर्श , रूप , रस और गन्ध इन पाँचों विषयों में अनुकूल पदार्थ , परिस्थिति , घटना , व्यक्ति आदि में और शरीर के आराम , मान , बड़ाई आदि में आसक्ति न करे । इनका भोगबुद्धि से भोग न करे , इनमें राजी न हो बल्कि यह अनुभव करे कि ये सब विषय , पदार्थ आदि आये हैं और प्रतिक्षण चले जा रहे हैं। ये आने-जाने वाले और अनित्य हैं फिर इनमें क्या राजी हों ऐसा अनुभव करके इनसे निर्लेप रहे। इन्द्रियों के भोगों में आसक्त न होने का साधन है इच्छापूर्ति का सुख न लेना। जैसे कोई मनचाही बात हो जाय , मनचाही वस्तु , व्यक्ति , परिस्थिति , घटना आदि मिल जाय और जिसको नहीं चाहता वह न हो तो मनुष्य उसमें राजी (प्रसन्न) हो जाता है तथा उससे सुख लेता है। सुख लेने पर इन्द्रियों के भोगों में आसक्ति बढ़ती है। अतः साधक को चाहिये कि अनुकूल वस्तु , पदार्थ , व्यक्ति आदि के मिलने की इच्छा न करे और बिना इच्छा के अनुकूल वस्तु आदि मिल भी जाय तो उसमें राजी न हो। ऐसे होने से इन्द्रियों के भोगों में आसक्ति नहीं होगी। दूसरी बात मनुष्य के पास अनुकूल चीजें न होने से यह उन चीजों के अभाव का अनुभव करता है और उनके मिलने पर यह उनके अधीन हो जाता है। जिस समय इसको अभाव का अनुभव होता था उस समय भी परतन्त्रता थी और अब उन चीजों के मिलने पर भी कहीं इनका वियोग न हो जाय इस तरह की परतन्त्रता होती है। अतः वस्तु के न मिलने और मिलने में फरक इतना ही रहा कि वस्तु के न मिलने से तो वस्तु की परतन्त्रता का अनुभव होता था पर वस्तु के मिलने पर परतन्त्रता का अनुभव नहीं होता बल्कि उसमें मनुष्य को स्वतन्त्रता दिखती है , यह उसको धोखा होता है। जैसे कोई किसी के साथ विश्वासघात करता है , ऐसे ही अनुकूल परिस्थिति में राजी होने से मनुष्य अपने साथ विश्वासघात करता है। कारण कि यह मनुष्य अनुकूल परिस्थिति के अधीन हो जाता है , उसको भोगते-भोगते इसका स्वभाव बिगड़ जाता है और बार-बार सुख भोगने की कामना होने लगती है। यह सुख-भोग की कामना ही इसके जन्म-मरण का कारण बन जाती है। तात्पर्य यह हुआ कि अनुकूलता की इच्छा करना , आशा करना और अनुकूल विषय आदि में राजी होना यह सम्पूर्ण अनर्थों का मूल है। इससे कोई सा भी अनर्थ , पाप बाकी नहीं रहता। अगर इसका त्याग कर दिया जाय तो मनुष्य योगारूढ़ हो जाता है। तीसरी बात हमारे पास निर्वाहमात्र के सिवाय जितनी अनुकूल भोग्य वस्तुएँ हैं वे अपनी नही हैं। वे किसकी हैं इसका हमें पता नहीं है परन्तु जब कोई अभावग्रस्त प्राणी मिल जाय तो उस सामग्री को उसी की समझकर उसके अर्पण कर देनी चाहिये । यह आपकी ही है ऐसा उससे कहना नहीं है और उसे देकर ऐसा मानना चाहिये कि निर्वाह से अतिरिक्त जो वस्तुएँ मेरे पास पड़ी थीं उस ऋण से मैं मुक्त हो गया हूँ। तात्पर्य है कि निर्वाह से अतिरिक्त वस्तुओं को अपनी और अपने लिये न मानने से मनुष्य की भोगों में आसक्ति नहीं होती। ‘न कर्मस्वनुषज्जते’ (टिप्पणी प0 330) जैसे इन्द्रियों के अर्थों में आसक्ति नहीं होनी चाहिये ऐसे ही कर्मों में भी आसक्ति नहीं होनी चाहिये अर्थात् क्रियमाण कर्मों की पूर्ति-अपूर्ति में और उन कर्मों की तात्कालिक फल की प्राप्ति-अप्राप्ति में भी आसक्ति नहीं होनी चाहिये। कारण कि कर्म करने में भी एक राग होता है। कर्म ठीक तरह से हो जाता है तो उससे एक सुख मिलता है और कर्म ठीक तरह से नहीं होता तो मन में एक दुःख होता है। यह सुख-दुःख का होना कर्म की आसक्ति है। अतः साधक कर्म तो विधिपूर्वक और तत्परता से करे पर उसमें आसक्त न होकर सावधानीपूर्वक निर्लिप्त रहे कि ये तो आने-जाने वाले हैं और हम नित्य-निरन्तर रहने वाले हैं । अतः इनके होने न होने में , आने-जाने में हमारे में क्या फरक पड़ता है ? कर्मों में आसक्ति होने की पहचान क्या है ? अगर क्रियमाण (वर्तमान में किये जाने वाले) कर्मों की पूर्ति-अपूर्ति में और उनसे मिलने वाले तात्कालिक फल की प्राप्ति-अप्राप्ति में अर्थात् सिद्धि-असिद्धि में मनुष्य निर्विकार नहीं रहता बल्कि उसके अन्तःकरण में हर्ष-शोक आदि विकार होते हैं तो समझना चाहिये कि उसकी कर्मों में और उनके तात्कालिक फल में आसक्ति रह गयी है। इन्द्रियों के अर्थों में और कर्मों में आसक्त न होने का तात्पर्य यह हुआ कि स्वयं (स्वरूप) चिन्मय परमात्मा का अंश होने से नित्य अपरिवर्तनशील है और पदार्थ तथा क्रियाएँ प्रकृति का कार्य होने से नित्य-निरन्तर बदलते रहते हैं परन्तु जब स्वयं उन परिवर्तनशील पदार्थों और क्रियाओं में आसक्त हो जाता है तब यह उनके अधीन हो जाता है और बार-बार जन्म-मरण रूप महान् दुःखों का अनुभव करता रहता है। उन पदार्थों और क्रियाओं से अर्थात् प्रकृति से सर्वथा मुक्त होने के लिये भगवान ने दो विभाग बताये हैं कि न तो इन्द्रियों के अर्थों में अर्थात् पदार्थों में आसक्ति करे और न कर्मों में (क्रियाओं में) आसक्ति करे। ऐसा करने पर मनुष्य योगारूढ़ हो जाता है। यहाँ एक बात समझने की है कि क्रियाओं में प्रियता प्रायः फल को लेकर ही होती है और फल होता है इन्द्रियों के भोग। अतः इन्द्रियों के भोगों की आसक्ति सर्वथा मिट जाय तो क्रियाओं की आसक्ति भी मिट जाती है। फिर भी भगवान ने क्रियाओं की आसक्ति मिटाने की बात अलग क्यों कही ? इसका कारण यह है कि क्रियाओं में भी एक स्वतन्त्र आसक्ति होती है। फल की इच्छा न होने पर भी मनुष्य में एक करने का वेग होता है। यह वेग ही क्रियाओं की आसक्ति है जिसके कारण मनुष्य से बिना कुछ किये रहा नहीं जाता । वह कुछ न कुछ काम करता ही रहता है। यह आसक्ति मिटती है केवल दूसरों के लिये कर्म करने से अथवा भगवान के लिये कर्म करने से। इसलिये भगवान ने 12वें अध्याय में पहले अभ्यासयोग बताया परन्तु भीतर में करने का वेग होने से अभ्यास में मन नहीं लगता , अतः करने का वेग मिटाने के लिये 10वें श्लोक में बताया कि साधक मेरे लिये ही कर्म करे (12। 10)। तात्पर्य है कि पारमार्थिक अभ्यास आदि करने में जिसका मन नहीं लगता और भीतर में कर्म करने का वेग (आसक्ति) पड़ा है तो वह भक्तियोग का साधक केवल भगवान के लिये ही कर्म करे। इससे उसकी आसक्ति मिट जायगी। ऐसे ही कर्मयोग का साधक केवल संसार के हित के लिये ही कर्म करे तो उसका करने का वेग (आसक्ति) मिट जायगा। जैसे कर्म करने की आसक्ति होती है ऐसे ही कर्म न करने की भी आसक्ति होती है। कर्म न करने की आसक्ति भी नहीं होनी चाहिये क्योंकि कर्म न करने की आसक्ति आलस्य और प्रमाद पैदा करती है जो कि तामसी वृत्ति है और कर्म करने की आसक्ति व्यर्थ चेष्टाओं में लगाती है जो कि राजसी वृत्ति है। वह योगारूढ़ कितने दिनों में , कितने महीनों में अथवा कितने वर्षों में होगा इसके लिये भगवान् ‘यदा ‘और ‘तदा’ पद देकर बताते हैं कि जिस काल में मनुष्य इन्द्रियों के अर्थों में और क्रियाओं में सर्वथा आसक्तिरहित हो जाता है तभी वह योगारूढ़ हो जाता है। जैसे किसी ने यह निश्चय कर लिया कि मैं आज से कभी इच्छापूर्ति का सुख नहीं लूँगा। अगर वह अपने इस निश्चय (प्रतिज्ञा) पर दृढ़ रहे तो वह आज ही योगारूढ़ हो जायगा। इस बात को बताने के लिये ही भगवान ने यदा और तदा पदों के साथ हि पद दिया है। पदार्थों और क्रियाओं में आसक्ति करने और न करने में भगवान ने मनुष्यमात्र को यह स्वतन्त्रता दी है कि तुम साक्षात् मेरे अंश हो और ये पदार्थ और क्रियाएँ प्रकृतिजन्य हैं। इनमें पदार्थ भी उत्पन्न और नष्ट होने वाले हैं तथा क्रियाओं का भी आरम्भ और अन्त हो जाता है। अतः ये नित्य रहने वाले नहीं हैं और तुम नित्य रहने वाले हो। तुम नित्य होकर भी अनित्य में फँस जाते हो , अनित्य में आसक्ति प्रियता कर लेते हो। इससे तुम्हारे हाथ कुछ नहीं लगता केवल दुःख ही दुःख पाते रहते हो। अतः तुम आज से ही यह विचार कर लो कि हम लोग पदार्थों और क्रियाओं में सुख नहीं लेंगे तो तुम लोग आज ही योगारूढ़ हो जाओगे क्योंकि योग अर्थात् समता तुम्हारे घर की चीज है। समता तुम्हारा स्वरूप है और स्वरूप सत् है। सत् का कभी अभाव नहीं होता और असत का कभी भाव नहीं होता। ऐसे सत स्वरूप तुम असत् पदार्थों और क्रियाओं में आसक्ति मत करो तो तुम्हें स्वतःसिद्ध योगारूढ़ अवस्था का अनुभव हो जायगा। ‘सर्वसंकल्पसंन्यासी’ हमारे मन में जितनी स्फुरणाएँ होती हैं उन स्फुरणाओं में से जिस स्फुरणा में सुख होता है और उसको लेकर यह विचार होता है कि हमें ऐसा मिल जाय हम इतने सुखी हो जायँगे तो इस तरह स्फुरणा में लिप्तता होने से उस स्फुरणा का नाम संकल्प हो जाता है। वह संकल्प ही अनुकूलता-प्रतिकूलता के कारण सुखदायी और दुःखदायी होता है। जैसे सुखदायी-संकल्प लिप्तता (राग-द्वेष) करता है , ऐसे ही दुःखदायी संकल्प भी लिप्तता करता है। अतः दोनों ही संकल्प बन्धन में डालने वाले हैं। उनसे हानि के सिवाय कुछ लाभ नहीं है क्योंकि संकल्प न तो अपने स्वरूप का बोध होने देता है , न दूसरों की सेवा करने देता है , न भगवान में प्रेम होने देता है , न भगवान में मन लगने देता है , न अपने नजदीक के कुटुम्बियों के अनुकूल ही बनने देता है। तात्पर्य है कि अपना संकल्प रखने से न अपना हित होता है , न संसार का हित होता है , न कुटुम्बियों की कोई सेवा होती है , न भगवान की प्राप्ति होती है और न अपने स्वरूप का बोध ही होता है। इससे केवल हानि ही हानि होती है। ऐसा समझकर साधक को सम्पूर्ण संकल्पों से रहित हो जाना चाहिये जो कि वास्तव में है ही। मन में होने वाली स्फुरणा यदि संकल्प का रूप धारण न करे तो वह स्फुरणा स्वतः नष्ट हो जाती है। स्फुरणा होने मात्र से मनुष्य की उतनी हानि नहीं होती और पतन भी नहीं होता परन्तु समय तो नष्ट होता ही है अतःवह स्फुरणा भी त्याज्य है। पर संकल्पों का त्याग तो साधक को जरूर ही करना चाहिये। कारण कि संकल्पों का त्याग किये बिना अर्थात् अपने मन की छोड़े बिना साधक योगारूढ़ नहीं होता और योगारूढ़ हुए बिना परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती , कृतकृत्यता नहीं होती , मनुष्य-जन्म सार्थक नहीं होता , भगवान में प्रेम नहीं होता , दुःखों का सर्वथा अन्त नहीं होता। दूसरे श्लोक में तो भगवान ने व्यतिरेकरीति से कहा है कि संकल्पों का त्याग किये बिना मनुष्य कोई सा भी योगी नहीं होता और यहाँ अन्वयरीति से कहते हैं कि संकल्पों का त्याग करने से मनुष्य योगारूढ़ हो जाता है। इसका तात्पर्य यह निकला कि साधक को किसी प्रकार का संकल्प नहीं रखना चाहिये। संकल्पों के त्याग के उपाय (1) भगवान ने हमारे लिये अपनी तरफ से अन्तिम जन्म (मनुष्य-जन्म) दिया है कि तुम इससे अपना उद्धार कर लो। अतः हमें मनुष्यजन्म के अमूल्य मुक्तिदायक समय को निरर्थक संकल्पों में बरबाद नहीं करना है , ऐसा विचार करके संकल्पों को हटा दे।(2) कर्मयोग के साधक को अपने कर्तव्य का पालन करना है। कर्तव्य का सम्बन्ध वर्तमान से है भूत-भविष्यत् काल से नहीं परन्तु संकल्प-विकल्प भूत और भविष्यत् काल के होते हैं वर्तमानके नहीं। अतः साधक को अपने कर्तव्य का त्याग करके भूत-भविष्यत् काल के संकल्प-विकल्पों में नहीं फँसना चाहिये बल्कि आसक्तिरहित होकर कर्तव्य-कर्म करने में लगे रहना चाहिये (गीता 3। 19)।(3) भक्तियोग के साधक को विचार करना चाहिये कि मन में जितने भी संकल्प आते हैं वे प्रायः भूतकाल के आते हैं जो कि अभी नहीं है अथवा भविष्यत् काल के आते हैं जो कि आगे होने वाला है अर्थात् जो अभी नहीं है। अतः जो अभी नहीं है उसके चिन्तन में समय बरबाद करना और जो भगवान् अभी हैं अपने में हैं और अपने हैं उनका चिन्तन न करना यह कितनी बड़ी गलती है ऐसा विचार करके संकल्पों को हटा दे। ‘योगारूढस्तदोच्यते’ सिद्धि-असिद्धि में सम रहने का नाम योग है (गीता2। 48)। इस योग अर्थात् समता पर आरूढ़ होना, स्थित होना ही योगारूढ़ होना है। योगारूढ़ होने पर परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। दूसरे श्लोक में भगवान ने यह कहा था कि संकल्पों का त्याग किये बिना कोई सा भी योग सिद्ध नहीं होता और यहाँ कहा है कि सकंल्पों का सर्वथा त्याग कर देने से वह योगारूढ़ हो जाता है। इससे सिद्ध होता है कि सभी तरह के योगों से योगारूढ़ अवस्था प्राप्त होती है। यद्यपि यहाँ कर्मयोग का ही प्रकरण है पर संकल्पों का सर्वथा त्याग करने से योगारूढ़ अवस्था में सब एक हो जाते हैं (गीता 5। 5) सम्बन्ध पूर्वश्लोक में भगवान ने योगारूढ़ मनुष्य के लक्षण बताते हुए यदा और तदा पद से योगारूढ़ होने में अर्थात् अपना उद्धार करने में मनुष्य को स्वतन्त्र बताया। अब आगे के श्लोक में भगवान् मनुष्यमात्र को अपना उद्धार करने की प्रेरणा करते हैं – समय रामसुखदास जी )