Bhagavad Gita Chapter 6

 

 

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आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~  छठा अध्याय

 

01-04 कर्मयोग का विषय और योगारूढ़ के लक्षण, काम-संकल्प-त्याग का महत्व

 

 

Bhagavad Gita Chapter 6

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ৷৷6.3৷৷

 

आरूरूक्षो:- जिसने योग सीखना आरम्भ किया है ; मुने:-मुनि की; योगम्-योगः कर्म – बिना आसक्ति के कार्य करना; कारणम्-कारण; उच्यते-कहा जाता है; योगारूढस्य-योग में सिद्धि प्राप्त; तस्य-उसका; एव-निश्चय ही; शमः- सम्पूर्ण भौतिक कार्य कलापों का त्याग ; कारणम्-कारण; उच्यते-कहा जाता है।

 

योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले ( जिसने योग सीखना प्रारम्भ किया है ) अर्थात योग में पूर्णता की अभिलाषा करने वाले मननशील पुरुष के लिए योग की प्राप्ति में निष्काम भाव से कर्म करना या बिना आसक्ति के कर्म करना ही हेतु या साधन कहलाता है और योगारूढ़ हो जाने पर अर्थात वे योगी जिन्हें पहले से योग में सिद्धि प्राप्त है उस योगारूढ़ पुरुष का जो सर्वसंकल्पों ( सभी भौतिक इच्छाओं और भौतिक कार्य कलापों तथा सभी प्रकार के कर्म फलों की इच्छाओं ) का अभाव है , वही कल्याण में या साधना में परम शान्ति का साधन कहा जाता है ৷৷6.3৷৷

( परमेश्र्वर से युक्त होने की विधि योग कहलाती है ।)

 

(‘आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते’ जो योग(समता) में आरूढ़ होना चाहता है ऐसे मननशील योगी के लिये (योगारूढ़ होने में) निष्कामभाव से कर्तव्यकर्म करना कारण है। तात्पर्य है कि करने का वेग मिटाने में प्राप्त कर्तव्यकर्म करना कारण है क्योंकि कोई भी व्यक्ति जन्मा है , पला है और जीवित है तो उसका जीवन दूसरों की सहायता के बिना चल ही नहीं सकता। उसके पास शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि और अहम तक कोई ऐसी चीज नहीं है जो प्रकृति की न हो। इसलिये जब तक वह इन प्राकृत चीजों को संसार की सेवा में नहीं लगाता तब तक वह योगारूढ़ नहीं हो सकता अर्थात् समता में स्थित नहीं हो सकता क्योंकि प्राकृत वस्तुमात्र की संसार के साथ एकता है अपने साथ एकता है ही नहीं। प्राकृत पदार्थों में जो अपनापन दिखता है उसका तात्पर्य है कि उनको दूसरों की सेवा में लगाने का दायित्व हमारे पर है। अतः उन सबको दूसरों की सेवा में लगाने का भाव होने से सम्पूर्ण क्रियाओं का प्रवाह संसार की तरफ हो जायगा और वह स्वयं योगारूढ़ हो जायगा। यही बात भगवान ने दूसरी जगह अन्वयव्यतिरेक रीति से कही है कि यज्ञ के लिये अर्थात् दूसरों के हित के लिये कर्म करने वालों के सम्पूर्ण कर्म लीन हो जाते हैं अर्थात् किञ्चिन्मात्र भी बन्धनकारक नहीं होते (गीता 4। 23) और यज्ञ से अन्यत्र अर्थात् अपने लिये किये गये कर्म बन्धनकारक होते हैं (गीता 3। 9)। योगारूढ़ होने में कर्म कारण क्यों हैं क्योंकि फल की प्राप्ति-अप्राप्ति में हमारी समता है या नहीं उसका हमारे पर क्या असर पड़ता है, इसका पता तभी लगेगा जब हम कर्म करेंगे। समता की पहचान कर्म करने से ही होगी। तात्पर्य है कि कर्म करते हुए यदि हमारे में समता रही , राग-द्वेष नहीं हुए तब तो ठीक है क्योंकि वह कर्म योग में कारण हो गया परन्तु यदि हमारे में समता नहीं रही , राग-द्वेष हो गये तो हमारा जडता के साथ सम्बन्ध होने से वह कर्म योग में कारण नहीं बना। ‘योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते’ असत् के साथ सम्बन्ध रखने से ही अशान्ति पैदा होती है। इसका कारण यह है कि असत् पदार्थों (शरीरादि) के साथ स्वयं का सम्बन्ध एक क्षण भी रह नहीं सकता और रहता भी नहीं क्योंकि स्वयं सदा रहनेवाला है और शरीरादि मात्र पदार्थ प्रतिक्षण अभाव में जा रहे हैं। उन प्रतिक्षण अभाव में जाने वालों के साथ वह स्वयं अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है और उनके साथ अपना सम्बन्ध रखना चाहता है परन्तु उनके साथ सम्बन्ध रहता नहीं तो उनके चले जानेके भयसे और उनके चले जानेसे अशान्ति पैदा हो जाती है। जब यह शरीरादि असत् पदार्थों को संसार की सेवा में लगाकर उनसे अपना सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद कर लेता है तब असत् के  त्याग से उसको स्वतः एक शान्ति मिलती है। अगर साधक उस शान्ति में भी सुख लेने लग जायगा तो वह बँध जायगा। अगर उस शान्ति में राग नहीं करेगा , उससे सुख नहीं लेगा तो वह शान्ति परमात्मतत्त्व की प्राप्ति में कारण हो जाती है। योगारूढ़ कौन होता है ? इसका उत्तर आगे के श्लोक में देते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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