आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~ छठा अध्याय
05-10 आत्म-उद्धार की प्रेरणा और भगवत्प्राप्त पुरुष के लक्षण एवं एकांत साधना का महत्व
जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ৷৷6.7৷৷
जित आत्मन:-जिसने मन पर विजय प्राप्त कर ली हो; प्रशान्तस्य–शान्ति; परम आत्मा-परमात्मा; समाहितः-दृढ़ संकल्प से; शीत-सर्दी; उष्ण-गर्मी में; सुख-सुख, दुःखेषु – और दुख में; तथा -भी; मान-सम्मान; अपमानयोः-और अपमान।
वे योगी जिन्होंने मन पर विजय पा ली है अर्थात जिसके अन्तःकरण की वृत्तियाँ भलीभाँति शांत हैं , वे शीत-ताप, सुख-दुख और मान-अपमान के द्वंद्वों से ऊपर उठ जाते हैं। अर्थात जिसने मन को जीत लिया है और अपने आप पर विजय प्राप्त कर ली , उसने पहले ही परमात्मा को प्राप्त कर लिया है, क्योंकि उसने शान्ति प्राप्त कर ली है। ऐसे मनुष्य के लिए सुख-दुख, सर्दी-गर्मी एवं मान-अपमान एक से हैं या ऐसा मनुष्य सुख-दुख, सर्दी-गर्मी एवं मान-अपमान में एक समान ही रहता है ৷৷6.7৷৷
( ऐसे योगी शान्त रहते हैं और भगवान की भक्ति के प्रति उनकी श्रद्धा अटल होती है अर्थात ऐसे स्वाधीन आत्मावाले ( जिसका मन उसके अधीन है ) पुरुष के ज्ञान में सच्चिदानन्दघन परमात्मा स्थित होते हैं तथा उसके ज्ञान में परमात्मा के सिवा अन्य कुछ है ही नहीं।)
(छठे श्लोक में ‘अनात्मनः’ पद और यहाँ ‘जितात्मनः’ पद आया है। इसका तात्पर्य है कि जो अनात्मा होता है वह शरीर आदि प्राकृत पदार्थों के साथ मैं और मेरापन करके अपने साथ शत्रुता का बर्ताव करता है और जो जितात्मा होता है वह शरीर आदि प्राकृत पदार्थों से अपना सम्बन्ध न मानकर अपने साथ मित्रता का बर्ताव करता है। इस तरह अनात्मा मनुष्य अपना पतन करता है और जितात्मा मनुष्य अपना उद्धार करता है। ‘जितात्मनः’ जो शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि किसी भी प्राकृत पदार्थ की अपने लिये सहायता नहीं मानता और उन प्राकृत पदार्थों के साथ किञ्चिन्मात्र भी अपनेपन का सम्बन्ध नहीं जोड़ता उसका नाम जितात्मा है। जितात्मा मनुष्य अपना तो हित करता ही है , उसके द्वारा दुनिया का भी बड़ा भारी हित होता है। ‘शीतोष्णसुखदुःखेषु प्रशान्तस्य’ यहाँ शीत और उष्ण इन दोनों पदों पर गहरा विचार करें तो ये सरदी और गरमी के वाचक सिद्ध नहीं होते क्योंकि सरदी और गरमी ये दोनों केवल त्वगिन्द्रिय के विषय हैं। अगर जितात्मा पुरुष केवल एक त्वगिन्द्रिय के विषय में ही शान्त रहेगा तो श्रवण , नेत्र , रसना और घ्राण इन इन्द्रियों के विषय बाकी रह जायँगे अर्थात् इनमें उसका प्रशान्त रहना बाकी रह जायगा तो उसमें पूर्णता नहीं आयेगी। अतः यहाँ शीत और उष्ण , पद , अनुकूलता और प्रतिकूलता के वाचक हैं। शीत अर्थात् अनुकूलता की प्राप्ति होने पर भीतर में एक तरह की शीतलता मालूम देती है और उष्ण अर्थात् प्रतिकूलता की प्राप्ति होने पर भीतर में एक तरह का सन्ताप मालूम देता है। तात्पर्य है कि भीतर में न शीतलता हो और न सन्ताप हो बल्कि एक समान शान्ति बनी रहे अर्थात् इन्द्रियों के अनुकूल-प्रतिकूल विषय , वस्तु , व्यक्ति , घटना , परिस्थिति आदि की प्राप्ति होने पर भीतर की शान्ति भङ्ग न हो। कारण कि भीतर में जो स्वतःसिद्ध शान्ति है वह अनुकूलता में राजी होने से और प्रतिकूलता में नाराज होने से भङ्ग हो जाती है। अतः शीत-उष्ण में प्रशान्त रहने का अर्थ हुआ कि बाहर से होने वाले संयोग-वियोग का भीतर असर न पड़े। अब यह विचार करना चाहिये कि सुख और दुःख पद से क्या अर्थ लें। सुख और दुःख दो-दो तरह के होते हैं (1) साधारण लौकिक दृष्टि से जिसके पास धन , सम्पत्ति , वैभव, स्त्री , पुत्र आदि अनुकूल सामग्री की बहुलता हो उसको लोग सुखी कहते हैं। जिसके पास धन , सम्पत्ति , वैभव , स्त्री , पुत्र आदि अनुकूल सामग्री का अभाव हो उसको लोग दुःखी कहते हैं। (2) जिसके पास बाहर की सुखदायी सामग्री नहीं है वह भोजन कहाँ करेगा इसका पता नहीं है , पास में पहनने के लिये पूरे कपड़े नहीं हैं , रहने के लिये स्थान नहीं है , साथ में कोई सेवा करने वाला नहीं है । ऐसी अवस्था होने पर भी जिसके मन में दुःख-सन्ताप नहीं होता और जो किसी वस्तु , व्यक्ति , परिस्थिति आदि की आवश्यकता का अनुभव भी नहीं करता बल्कि हर हालत में बड़ा प्रसन्न रहता है वह सुखी कहलाता है परन्तु जिसके पास बाहर की सुखदायी सामग्री पूरी है , भोजन के लिये बढ़िया सेबढ़िया पदार्थ हैं , पहनने के लिये बढ़िया से बढ़िया कपड़े हैं , रहने के लिये बहुत बढ़िया मकान है , सेवा के लिये कई नौकर हैं , ऐसी अवस्था होने पर भी भीतर में रात-दिन चिन्ता रहती है कि मेरी यह सामग्री कहीं नष्ट न हो जाय , यह सामग्री कायम कैसे रहे ? बढ़े कैसे ? आदि। इस तरह बाहर की सामग्री रहने पर भी जो भीतर से दुःखी रहता है वह दुःखी कहलाता है। उपर्युक्त दो प्रकार से सुख-दुःख कहने का तात्पर्य है बाहर की सामग्री को लेकर सुखी-दुःखी होना और भीतर की प्रसन्नता-खिन्नता को लेकर सुखी-दुःखी होना। गीता में जहाँ सुख-दुःख में सम होने की बात आयी है , वहाँ बाहर की सामग्री में सम रहने के लिये कहा गया है जैसे ‘समदुःखसुखः (12। 13 14। 24) शीतोष्णसुखदुःखेषु समः’ (12। 18) आदि। जहाँ सुख-दुःख से रहित होने की बात आयी है वहाँ भीतर की प्रसन्नता और खिन्नता से रहित होने के लिये कहा गया है – जैसे ‘द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैः’ (15। 5) आदि। जहाँ सुख-दुःख में सम होनेकी बात है वहाँ सुख-दुःख की सत्ता तो है पर उसका असर नहीं पड़ता और जहाँ सुख-दुःख से रहित होने की बात है वहाँ सुख-दुःख की सत्ता ही नहीं है। इस तरह चाहे बाहर की सुखदायी-दुःखदायी सामग्री प्राप्त होने पर भीतर से सम होना कहें चाहे भीतर से सुख-दुःख से रहित होना कहें , दोनों का तात्पर्य एक ही है क्योंकि सम भी भीतर से है और रहित भी भीतर से है। यहाँ शीत-उष्ण और सुख-दुःख में प्रशान्त (सम) रहने की बात कही गयी है। अनुकूलता से सुख होता है – ‘अनुकूलवेदनीयं सुखम्’ और प्रतिकूलता से दुःख होता है – ‘प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम्’। इसलिये अगर शीत-उष्ण का अर्थ अनुकूलता-प्रतिकूलता लिया जाय तो सुख-दुःख कहना व्यर्थ हो जायगा और सुख-दुःख कहने से शीत-उष्ण कहना व्यर्थ हो जायगा क्योंकि सुख-दुःख पद शीत-उष्ण (अनुकूलता-प्रतिकूलता) के ही वाचक हैं। फिर यहाँ शीत-उष्ण और सुख-दुःख पदों की सार्थकता कैसे सिद्ध होगी ? इसके लिये शीत-उष्ण पद से प्रारब्ध के अनुसार आने वाली अनुकूलता-प्रतिकूलता को लिया जाय और सुख-दुःख पद से वर्तमान में किये जाने वाले क्रियमाण कर्मों की पूर्ति-अपूर्ति तथा उनके तात्कालिक फल की सिद्धि-असिद्धि को लिया जाय तो इन पदों की सार्थकता सिद्ध हो जाती है। तात्पर्य यह निकला कि चाहे प्रारब्ध की अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति हो , चाहे क्रियमाण की तात्कालिक सिद्धि-असिद्धि हो – इन दोनोंमें ही प्रशान्त (निर्विकार) रहे। इस प्रकरण के अनुसार भी उपर्युक्त अर्थ ठीक दिखता है। कारण कि इसी अध्याय के चौथे श्लोक में आये ‘नेन्द्रियार्थेषु’ (अनुषज्जते) पद को यहाँ शीत-उष्ण पद से कहा गया है और ‘न कर्मसु अनुषज्जते’ पदों को यहाँ सुख-दुःख पद से कहा गया है अर्थात् वहाँ प्रारब्ध के अनुसार आयी हुई अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में और क्रियमाण कर्मों की पूर्ति-अपूर्ति तथा तात्कालिक फल की सिद्धि-असिद्धि में आसक्तिरहित होने की बात आयी है और यहाँ उन दोनों में प्रशान्त होने की बात आयी है। तथा ‘मानापमानयोः’ ऐसे ही जो मान-अपमान में भी प्रशान्त है। अब यहाँ कोई शङ्का करे कि मान-अपमान भी तो प्रारब्ध का फल है अतः यह शीत-उष्ण (अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति) के ही अन्तर्गत आ गया। फिर इसको अलग से क्यों लिया गया ? मान-अपमान को अलग से इसलिये लिया गया है कि शीत-उष्ण तो दैवेच्छा ( देव इच्छा / अनिच्छा) कृत प्रारब्ध का फल है पर मान-अपमान परेच्छाकृत ( पर इच्छा कृत / दूसरों की इच्छा ) प्रारब्ध का फल है। यह परेच्छाकृत प्रारब्ध मान-बड़ाई में भी होता है और निन्दा-स्तुति आदि में भी होता है। इसलिये मान-अपमान पद में निन्दा-स्तुति लेना चाहें तो ले सकते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि कर्मयोगी दूसरों के द्वारा किये गये मान-अपमान में भी प्रशान्त रहता है अर्थात् उसकी शान्ति में किञ्चिन्मात्र भी फरक नहीं पड़ता। मान-अपमान में प्रशान्त रहने का उपाय – साधक का कोई मान-आदर करे तो साधक यह न माने कि यह मेरे कर्मों का मेरे गुणों का , मेरी अच्छाई का फल है बल्कि यही माने कि यह तो मान-आदर करने वाले की सज्जनता है , उदारता है। उसकी सज्जनता को अपना गुण मानना ईमानदारी नहीं है। अगर कोई अपमान कर दे तो ऐसा माने कि यह मेरे कर्मों का ही फल है। इसमें अपमान करने वाले का कोई दोष नहीं है बल्कि वह तो दया का पात्र है क्योंकि उस बेचारेने मेरे पापोंका फल भुगताने में निमित्त बनकर मेरे को शुद्ध कर दिया है। इस तरह मानने से साधक मान-अपमान में प्रशान्त निर्विकार हो जायगा। अगर वह मान को अपना गुण और अपमान को दूसरों का दोष मानेगा तो वह मान-अपमान में प्रशान्त नहीं हो सकेगा। परमात्मा समाहितः शीत-उष्ण , सुख-दुःख और मान-अपमान इन छहों में प्रशान्त निर्विकार रहने से सिद्ध होता है कि उसको परमात्मा प्राप्त हैं। कारण कि भीतर से विलक्षण आनन्द मिले बिना बाहर की अनुकूलता-प्रतिकूलता , सिद्धि-असिद्धि और मान-अपमान में वह प्रशान्त नहीं रह सकता। वह प्रशान्त रहता है तो उसको एकरस रहने वाला विलक्षण आनन्द मिल गया है। इसलिये गीता ने जगह-जगह कहा है कि जिन पुरुषों का मन साम्यावस्था में स्थित है उन पुरुषों ने इस जीवित अवस्था में ही संसार को जीत लिया है (5। 19) जिस लाभ की प्राप्ति होने पर उससे अधिक लाभ का होना मान ही नहीं सकता और जिसमें स्थित होने पर बड़े भारी दुःख से भी विचलित नहीं हो सकता (6। 22) आदि आदि – स्वामी रामसुखदास जी )