Bhagavad Gita Chapter 6

 

 

  Previous         Menu         Next 

 

आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~  छठा अध्याय

 

11-15 आसन विधि, परमात्मा का ध्यान, योगी के चार प्रकार

 

 

shrimad bhagavad geeta chapter 6 chapter 6समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्‌ ৷৷6.13৷৷

 

समम्– सीधा; काय– शरीर; शिरः– सिर; ग्रीवम्– तथा गर्दन को; धारयन्– रखते हुए; अचलम्– अचल; स्थिरः– शान्त; सम्प्रेक्ष्य– देखकर; नासिका– नाक के; अग्रम्– अग्रभाग को; स्वम्– अपनी; दिशः– सभी दिशाओं में; च– भी; अनवलोकयन्– न देखते हुए; 

 

योगाभ्यास करने वाले को चाहिए कि शरीर , सिर और गर्दन को सीधा एवं अचल रख के स्थिर होकर, अन्य दिशाओं की ओर न देख कर अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाये ॥6.13॥

 

समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलम्’ यद्यपि काय नाम शरीरमात्र का है तथापि यहाँ (आसन पर बैठने के बाद) कमर से लेकर गले तक के भाग को काय नाम से कहा गया है। शिर नाम ऊपर के भाग का अर्थात् मस्तिष्क का है और ग्रीवा नाम मस्तिष्क और काया के बीच के भाग का है। ध्यान के समय ये काया , शिर और ग्रीवा सम और सीधे रहें अर्थात् रीढ़ की जो हड्डी है उसकी सब गाँठें सीधे भाग में रहें और उसी सीधे भाग में मस्तक तथा ग्रीवा रहे। तात्पर्य है कि काया , शिर और ग्रीवा ये तीनों एक सूत में अचल रहें। कारण कि इन तीनों के आगे झुकने से नींद आती है और पीछे झुकने से जडता आती है और दायें-बायें झुकने से चञ्चलता आती है। इसलिये न आगे झुके , न पीछे झुके और न दायें-बायें ही झुके। दण्ड की तरह सीधा-सरल बैठा रहे। सिद्धासन , पद्मासन आदि जितने भी आसन हैं आरोग्य की दृष्टि से वे सभी ध्यानयोग में सहायक हैं परन्तु यहाँ भगवान ने सम्पूर्ण आसनों की सार चीज बतायी है – काया , शिर और ग्रीवा को सीधे समता में रखना। इसलिये भगवान ने बैठने के सिद्धासन , पद्मासन आदि किसी भी आसन का नाम नहीं लिया है , किसी भी आसन का आग्रह नहीं रखा है। तात्पर्य है कि चाहे किसी भी आसन से बैठे पर काया , शिर और ग्रीवा एक सूत में ही रहने चाहिये क्योंकि इनके एक सूत में रहने से मन बहुत जल्दी शान्त और स्थिर हो जाता है। आसन पर बैठे हुए कभी नींद सताने लगे तो उठकर थोड़ी देर इधर-उधर घूम ले। फिर स्थिरता से बैठ जाय और यह भावना बना ले कि अब मेरे को उठना नहीं है , इधर-उधर झुकना नहीं है। केवल स्थिर और सीधे बैठकर ध्यान करना है। ‘दिशश्चानवलोकयन्’ दस दिशाओं में कहीं भी देखे नहीं । इधर-उधर देखने के लिये जब ग्रीवा हिलेगी तब ध्यान नहीं होगा , विक्षेप होगा। अतः ग्रीवा को स्थिर रखे। ‘संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वम्’ अपनी नासिका के अग्रभाग को देखता रहे अर्थात् अपने नेत्रों को अर्धनिमीलित ( अधमुँदे ) रखे। कारण कि नेत्र मूँद लेने से नींद आने की सम्भावना रहती है और नेत्र खुले रखने से सामने दृश्य दिखेगा , उसके संस्कार पड़ेंगे तो ध्यान में विक्षेप होने की सम्भावना रहती है। अतः नासिका के अग्रभाग को देखने का तात्पर्य अर्धनिमीलित नेत्र रखने में ही है। ‘स्थिरः’ आसन पर बैठने के बाद शरीर , इन्द्रियाँ , मन आदि की कोई भी और किसी भी प्रकार की क्रिया न हो , केवल पत्थर की मूर्ति की तरह बैठा रहे। इस प्रकार एक आसन से कम से कम तीन घण्टे स्थिर बैठे रहने का अभ्यास हो जायगा तो उस आसन पर उसकी विजय हो जायगी अर्थात् वह जितासन हो जायगा। बिछाने और बैठने के आसन की विधि बताकर अब आगे के दो श्लोकों में फलसहित सगुण-साकार के ध्यान का प्रकार बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

        Next

 

 

By spiritual talks

Welcome to the spiritual platform to find your true self, to recognize your soul purpose, to discover your life path, to acquire your inner wisdom, to obtain your mental tranquility.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!