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आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~ छठा अध्याय
05-10 आत्म-उद्धार की प्रेरणा और भगवत्प्राप्त पुरुष के लक्षण एवं एकांत साधना का महत्व
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः ।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकांचनः ৷৷6.8৷৷
ज्ञान- अर्जित ज्ञान; विज्ञान-आंतरिक ज्ञान या अनुभूत ज्ञान ; तृप्त आत्मा -पूर्णतया संतुष्ट मनुष्य; कूटस्थ:- आध्यात्मिक रूप से स्थित ; विजित इन्द्रियः-इन्द्रियों को वश में करने वाला; युक्तः- भगवान से निरन्तर साक्षात्कार करने वाला; इति–इस प्रकार; उच्यते- कहा जाता है; योगी- योगी; सम- समदर्शी; लोष्ट्र- कंकड़; अश्म- पत्थर; काञ्चनः- स्वर्ण;
वह व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त तथा योगी कहलाता है जो अपने अर्जित ज्ञान तथा अनुभूति से पूर्णतया सन्तुष्ट रहता है । ऐसा व्यक्ति अध्यात्म को प्राप्त तथा जितेन्द्रिय कहलाता है । वह सभी परिस्थितियों में अविचलित रहता है। वह सभी वस्तुओं को – चाहे वे कंकड़ हो , पत्थर हो या सोना हो – एक समान देखता है ৷৷6.8৷৷
( जिसका अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है, जिसकी स्थिति विकाररहित है अर्थात जो आध्यात्मिक रूप से स्थित है , जिसकी इन्द्रियाँ भलीभाँति जीती हुई हैं और जिसके लिए कंकड़ , पत्थर और सुवर्ण समान हैं, वह योगी भगवत्प्राप्त अर्थात भगवान् से निरंतर साक्षात्कार करने वाला है॥)
(‘ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा ‘ यहाँ कर्मयोग का प्रकरण है अतः यहाँ कर्म करने की जानकारी का नाम ज्ञान है और कर्मों की सिद्धि-असिद्धि में सम रहने का नाम विज्ञान है। स्थूलशरीर से होने वाली क्रिया सूक्ष्मशरीर से होने वाला चिन्तन और कारणशरीर से होने वाली समाधि इन तीनों को अपने लिये करना ज्ञान नहीं है। कारण कि क्रिया , चिन्तन , समाधि आदि मात्र कर्मों का आरम्भ और समाप्ति होती है तथा उन कर्मों से मिलने वाले फल का भी आदि और अन्त होता है परन्तु स्वयं परमात्मा का अंश होने से नित्य रहता है। अतः अनित्य कर्म और फल से इस नित्य रहने वाले को क्या तृप्ति मिलेगी जड के द्वारा चेतन को क्या तृप्ति मिलेगी , ऐसा ठीक अनुभव हो जाय कि कर्मों के द्वारा मेरे को कुछ भी नहीं मिल सकता तो यह कर्मों को करने का ज्ञान है। ऐसा ज्ञान होने पर वह कर्मों की पूर्ति-अपूर्ति में और पदार्थों की प्राप्ति-अप्राप्ति में सम रहेगा यह विज्ञान है। इस ज्ञान और विज्ञान से वह स्वयं तृप्त हो जाता है। फिर उसके लिये करना , जानना और पाना कुछ भी बाकी नहीं रहता। ‘कूटस्थः’ (टिप्पणी प0 338) कूट (अहरन) एक लौहपिण्ड होता है जिस पर लोहा , सोना , चाँदी आदि अनेक रूपों में गढ़े जाते हैं पर वह एकरूप ही रहता है। ऐसे ही सिद्ध महापुरुष के सामने तरह-तरह की परिस्थितियाँ आती हैं पर वह कूट की तरह ज्यों का त्यों निर्विकार रहता है। ‘विजितेन्द्रियः’ कर्मयोग के साधक को इन्द्रियों पर विशेष ध्यान देना पड़ता है क्योंकि कर्म करने में प्रवृत्ति होने के कारण उसके कहीं न कहीं राग-द्वेष होने की पूरी सम्भावना रहती है। इसलिये गीता ने कहा है ‘सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्’ (12। 11) अर्थात् कर्मफल के त्याग में जितेन्द्रियता मुख्य है। इस तरह साधन अवस्था में इन्द्रियों पर विशेष खयाल रखने वाला साधक सिद्ध अवस्था में स्वतः विजितेन्द्रिय होता है। ‘समलोष्टाश्मकाञ्चनः’ लोष्ट नाम मिट्टी के ढेले का अश्म नाम पत्थर का और काञ्चन नाम स्वर्ण का है इन सबमें सिद्ध कर्मयोगी सम रहता है। सम रहनेका अर्थ यह नहीं है कि उसको मिट्टीके ढेले पत्थर और स्वर्णका ज्ञान नहीं होता। उसको यह ढेला है यह पत्थर है यह स्वर्ण है ऐसा ज्ञान अच्छी तरहसे होता है और उसका व्यवहार भी उनके अनुरूप जैसा होना चाहिये वैसा ही होता है अर्थात् वह स्वर्णको तिजोरीमें सुरक्षित रखता है और ढेले तथा पत्थरको बाहर ही पड़े रहने देता है। ऐसा होनेपर भी स्वर्ण चला जाय धन चला जाय तो उसके मनपर कोई असर नहीं पड़ता और स्वर्ण मिल जाय तो भी उसके मनपर कोई असर नहीं पड़ता अर्थात् उनके आने-जाने से , बनने-बिगड़ने से , उसको हर्ष-शोक नहीं होते यही उसका सम रहना है। उसके लिये जैसे पत्थर है वैसे ही सोना है जैसे सोना है वैसे ही ढेला है और जैसे ढेला है वैसे ही सोना है। अतः इनमें से कोई चला गया तो क्या कोई बिगड़ गया तो क्या इन बातों को लेकर उसके अन्तःकरण में कोई विकार पैदा नहीं होता। इन स्वर्ण आदि प्राकृत पदार्थों का मूल्य तो प्रकृति के साथ सम्बन्ध रखते हुए ही प्रतीत होता है और तभी तक उनके बढ़िया-घटियापने का अन्तःकरण में असर होता है। पर वास्तविक बोध हो जाने पर जब प्रकृति से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है तब उसके अन्तःकरण में इन प्राकृत (भौतिक) पदार्थों का कुछ भी मूल्य नहीं रहता अर्थात् बढ़िया-घटिया सब पदार्थों में उसका समभाव हो जाता है। सार यह निकला कि उसकी दृष्टि पदार्थों के उत्पन्न और नष्ट होने वाले स्वभाव पर रहती है अर्थात् उसकी दृष्टि में इन प्राकृत पदार्थों के उत्पन्न और नष्ट होने में कोई फरक नहीं है। सोना उत्पन्न और नष्ट होता है , पत्थर उत्पन्न और नष्ट होता है तथा ढेला भी उत्पन्न और नष्ट होता है। उनकी इस अनित्यता पर दृष्टि रहने से उसको सोना , पत्थर और ढेले में तत्त्व से कोई फरक नहीं दिखता । इन तीनों के नाम इसलिये हैं कि इनके साथ व्यवहार तो यथायोग्य ही होना चाहिये और यथायोग्य करना ही उचित है तथा वह यथायोग्य व्यवहार करता भी है पर उसकी दृष्टि उनके विनाशीपने पर ही रहती है। उनमें जो परमात्मतत्त्व एक समान परिपूर्ण है , उस परमात्मतत्त्व की स्वतःसिद्ध समता उसमें रहती है। ‘युक्त इत्युच्यते योगी ‘ ऐसा ज्ञान-विज्ञान से तृप्त निर्विकार , जितेन्द्रिय और समबुद्धिवाला सिद्ध , कर्मयोगी युक्त अर्थात् योगारूढ़ समता में स्थित कहा जाता है – स्वामी रामसुखदास जी )