आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~ छठा अध्याय
37-47 योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः ।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो यात परां गतिम् ৷৷6.45৷৷
प्रयत्नात्-कठिन प्रयास के साथ; यतमानः-प्रयत्न करते हुए; तु-और; योगी-ऐसा योगी; संशुद्ध-शुद्ध होकर; किल्बिष:-सांसारिक कामना से; अनेक-अनेकानेक; जन्म-जन्मों के बाद; संसिद्धः-पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर; ततः-तब; याति प्राप्त करता है; पराम्-सर्वोच्च; गतिम्-लक्ष्य।
पिछले कई जन्मों में संचित पुण्यकर्मों और संस्कार बल के साथ जब ये योगी आध्यात्मिक मार्ग में आगे उन्नति करने हेतु निष्ठापूर्वक प्रयत्न में लीन रहते हैं तब वे सांसारिक कामनाओं से शुद्ध हो जाते हैं और इसी जीवन में पूर्णता और पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं अर्थात प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करने वाला योगी तो पिछले अनेक जन्मों के संस्कारबल से इसी जन्म में संसिद्ध होकर सम्पूर्ण पापों से रहित हो फिर तत्काल ही परमगति को प्राप्त हो जाता है ৷৷6.45৷৷
(वैराग्यवान् योगभ्रष्ट तो तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त योगियों के कुल में जन्म लेने और वहाँ विशेषता से यत्न करने के कारण सुगमता से परमात्मा को प्राप्त हो जाता है परन्तु श्रीमानों के घर में जन्म लेने वाला योगभ्रष्ट परमात्मा को कैसे प्राप्त होता है ? इसका वर्णन इस श्लोक में करते हैं। ‘तु’ इस पद का तात्पर्य है कि योग का जिज्ञासु भी जब वेदों में कहे हुए सकाम कर्मों का अतिक्रण कर जाता है , उनसे ऊँचा उठ जाता है , तब जो योग में लगा हुआ है और तत्परता से यत्न करता है , वह वेदों से ऊँचा उठ जाय और परमगतिको प्राप्त हो जाय इसमें तो सन्देह ही क्या है ? योगी जो परमात्मतत्त्व को , समता को चाहता है और राग-द्वेष , हर्ष-शोक आदि द्वन्द्वों में नहीं फँसता , वह योगी है। ‘प्रयत्नाद्यतमनः’ प्रयत्नपूर्वक यत्न करने का तात्पर्य है कि उसके भीतर परमात्मा की तरफ चलने की जो उत्कण्ठा है , लगन है , उत्साह है , तत्परता है वह दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही रहती है। साधन में उसकी निरन्तर सजगता रहती है। श्रीमानों के घर में जन्म लेने वाला योगभ्रष्ट पूर्वाभ्यास के कारण परमात्मा की तरफ खिंचता है और वर्तमान में भोगों के सङ्ग से संसार की तरफ खिंचता है। अगर वह प्रयत्नपूर्वक शूरवीरता से भोगों का त्याग कर दे तो फिर वह परमात्मा को प्राप्त कर लेगा। कारण कि जब योग का जिज्ञासु भी शब्दब्रह्म का अतिक्रमण कर जाता है तो फिर जो तत्परता से साधन में लग जाता है उसका तो कहना ही क्या है ? जैसे निषिद्ध आचरण में लगा हुआ पुरुष एक बार चोट खाने पर फिर विशेष जोर से परमात्मा में लग जाता है , ऐसे ही योगभ्रष्ट भी श्रीमानों के घर में जन्म लेने पर विशेष जोर से परमात्मा में लग जाता है। ‘संशुद्धकिल्बिषः’ उसके अन्तःकरण के सब दोष , सब पाप नष्ट हो गये हैं अर्थात् परमात्मा की तरफ लगन होने से उसके भीतर भोग , संग्रह , मान , बड़ाई आदि की इच्छा सर्वथा मिट गयी है। जो प्रयत्नपूर्वक यत्न करता है , उसके प्रयत्न से ही यह मालूम होता है कि उसके सब पाप नष्ट हो चुके हैं। ‘अनेकजन्मसंसिद्धः ‘ (टिप्पणी प0 383.1) पहले मनुष्यजन्म में योग के लिये यत्न करने से शुद्धि हुई , फिर अन्त समय में योग से विचलित होकर स्वर्गादि लोकों में गया तथा वहाँ भोगों से अरुचि होने से शुद्धि हुई और फिर यहाँ शुद्ध श्रीमानों के घर में जन्म लेकर परमात्मप्राप्ति के लिये तत्परतापूर्वक यत्न करने से शुद्धि हुई। इस प्रकार तीन जन्मों में शुद्ध होना ही अनेक जन्म संसिद्धि होना है (टिप्पणी प0 383.2)। ‘ततो याति परां गतिम्’ इसलिये वह परमगति को प्राप्त हो जाता है। तात्पर्य है कि जिसको प्राप्त होने पर उससे बढ़कर कोई भी लाभ मानने में नहीं आता और जिसमें स्थित होने पर भयंकर से भयंकर दुःख भी विचलित नहीं कर सकता (गीता 6। 22) ऐसे आत्यन्तिक सुख को वह प्राप्त हो जाता है। मार्मिक बात – वास्तव में देखा जाय तो मनुष्यमात्र अनेक जन्मसंसिद्ध है। कारण कि इस मनुष्यशरीर के पहले अगर वह स्वर्गादि लोकों में गया है तो वहाँ शुभ कर्मों का फल भोगने से उसके स्वर्गप्रापक पुण्य समाप्त हो गये और वह पुण्यों से शुद्ध हो गया। अगर वह नरकों में गया है तो वहाँ नारकीय यातना भोगने से उसके नरक प्रापक पाप समाप्त हो गये और वह पापों से शुद्ध हो गया। अगर वह चौरासी लाख योनियों में गया है तो वहाँ उस-उस योनि के रूप में अशुभ कर्मों का , पापों का फल भोगने से उसके मनुष्येतर योनिप्रापक पाप कट गये और वह शुद्ध हो गया (टिप्पणी प0 383.3)। इस प्रकार यह जीव अनेक जन्मों में पुण्यों और पापों से शुद्ध हुआ है। यह शुद्ध होना ही इसका संसिद्ध होना है। दूसरी बात मनुष्यमात्र प्रयत्नपूर्वक यत्न करके परमगति को प्राप्त कर सकता है , अपना कल्याण कर सकता है। कारण कि भगवान ने यह अन्तिम जन्म इस मनुष्य को केवल अपना कल्याण करने के लिये ही दिया है। अगर यह मनुष्य अपना कल्याण करने का अधिकारी नहीं होता तो भगवान् इसको मनुष्यजन्म ही क्यों देते ? अब जब मनुष्यशरीर दिया है तो यह मुक्ति का पात्र है ही। अतः मनुष्यमात्र को अपने उद्धार के लिये तत्परतापूर्वक यत्न करना चाहिये। योगभ्रष्ट का इस लोक और परलोक में पतन नहीं होता । योग का जिज्ञासु भी शब्दब्रह्म का अतिक्रमण कर जाता है । यह जो भगवान ने महिमा कही है , यह महिमा भ्रष्ट होने की नहीं है बल्कि योग की है। अतः अब आगे के श्लोक में उसी योग की महिमा कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )