Bhagavad Gita Chapter 6

 

 

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आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~  छठा अध्याय

 

37-47  योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा

 

 

bhagavad gita in hindi chapter 6पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः ।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ৷৷6.44৷৷

 

पूर्व-पिछला; अभ्यासेन–अभ्यास से; तेन-उसके द्वारा; एव–निश्चय ही; हियते-आकर्षित होता है; हि-निश्चय ही; अवश:-असहाय; अपि-यद्यपि; स:-वह व्यक्ति; जिज्ञासुः-उत्सुक;अपि-भी; योगस्य–योग के संबंध में; शब्दब्रह्म-वेदों के सकाम कर्मकाण्ड से संबंधित भाग; अतिवर्तते-ऊपर उठ जाते हैं।

 

वह श्रीमानों अर्थात धनवानों और कुलीन व्यक्तियों के घर में जन्म लेने वाला योगभ्रष्ट पराधीन हुआ योगी भी उस पूर्व जन्म के अभ्यास से ही निःसंदेह भगवान की ओर आकर्षित किया जाता है तथा समबुद्धि रूप योग का जिज्ञासु भी वेद में कहे हुए सकाम कर्मों के फल को उल्लंघन कर जाता है । वास्तव में वे अपने पूर्व जन्मों के आत्मसंयम के बल पर अपनी इच्छा के विरूद्ध स्वतः भगवान की ओर आकर्षित होते हैं। ऐसे जिज्ञासु साधक स्वाभाविक रूप से शास्त्रों के कर्मकाण्डों से ऊपर उठ जाते हैं ৷৷ 6.44৷৷

 

(‘पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः’ योगियों के कुल में जन्म लेने वाले योगभ्रष्ट को जैसी साधन की सुविधा मिलती है , जैसा वायुमण्डल मिलता है , जैसा सङ्ग मिलता है , जैसी शिक्षा मिलती है वैसी साधन की सुविधा , वायुमण्डल, सङ्ग , शिक्षा आदि श्रीमानोंके घर में जन्म लेने वालों को नहीं मिलती परन्तु स्वर्गादि लोकों में जाने से पहले मनुष्यजन्म में जितना योग का साधन किया है , सांसारिक भोगों का त्याग किया है , उसके अन्तःकरण में जितने अच्छे संस्कार पड़े हैं , उस मनुष्यजन्म में किये हुए अभ्यास के कारण ही भोगों में आसक्त होता हुआ भी वह परमात्मा की तरफ जबर्दस्ती खिंच जाता है। ‘अवशोऽपि’ कहने का तात्पर्य है कि वह श्रीमानों के घर में जन्म लेने से पहले बहुत वर्षों तक स्वर्गादि लोकों में रहा है। वहाँ उसके लिये भोगों की बहुलता रही है और यहाँ (साधारण घरों की अपेक्षा) श्रीमानों के घर में भी भोगों की बहुलता है। उसके मन में जो भोगों की आसक्ति है , वह भी अभी सर्वथा मिटी नहीं है । इसलिये वह भोगों के परवश हो जाता है। परवश होने पर भी अर्थात् इन्द्रियाँ , मन आदि का भोगों की तरफ आकर्षण होते रहने पर भी पूर्व के अभ्यास आदि के कारण वह जबर्दस्ती परमात्मा की तरफ खिंच जाता है। कारण यह है कि भोग-वासना कितनी ही प्रबल क्यों न हो पर वह है असत् ही। उसका जीव के सत्स्वरूप के साथ कोई सम्बन्ध ही नहीं है। जितना ध्यानयोग आदि साधन किया है , साधन के जितने संस्कार हैं , वे कितने ही साधारण क्यों न हों पर वे हैं सत् ही। वे सभी जीव के सत्स्वरूप के अनुकूल हैं। इसलिये वे संस्कार भोगों के परवश हुए योगभ्रष्ट को भीतर से खींचकर परमात्मा की तरफ लगा ही देते हैं। ‘जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते’ इस प्रकरण में अर्जुन का प्रश्न था कि साधन में लगा हुआ शिथिल प्रयत्नवाला साधक अन्त समय में योग से विचलित हो जाता है तो वह योग की संसिद्धि को प्राप्त न होकर किस गति को जाता है ? अर्थात् उसका कहीं पतन तो नहीं हो जाता। इसके उत्तर में भगवान ने इस लोक में और परलोक में योगभ्रष्ट का पतन न होने की बात इस श्लोक के पूर्वार्ध तक कही। अब इस श्लोक के उत्तरार्ध में योग में लगे हुए योगी की वास्तविक महिमा कहने के लिये योग के जिज्ञासु की महिमा कहते हैं। जब योग का जिज्ञासु भी वेदों में कहे हुए सकाम कर्म और उनके फलों का अतिक्रमण कर जाता है अर्थात् उनसे ऊपर उठ जाता है , फिर योगभ्रष्ट के लिये तो कहना ही क्या है अर्थात् उसके पतन की कोई शङ्का ही नहीं है। वह योग में प्रवृत्त हो चुका है । अतः उसका तो अवश्य उद्धार होगा ही। यहाँ ‘जिज्ञासुरपि योगस्य’ पदों का अर्थ होता है कि जो अभी योगभ्रष्ट भी नहीं हुआ है और योग में प्रवृत्त भी नहीं हुआ है परन्तु जो योग (समता) को महत्त्व देता है और उसको प्राप्त करना चाहता है , ऐसा योग का जिज्ञासु भी शब्दब्रह्म का (टिप्पणी प0 381) अर्थात् वेदों के सकाम कर्म के भाग का अतिक्रमण कर जाता है।योग का जिज्ञासु वह है जो भोग और संग्रह को साधारण लोगों की तरह महत्त्व नहीं देता बल्कि उनकी अपेक्षा करके योग को अधिक महत्त्व देता है। उसकी भोग और संग्रह की रुचि मिटी नहीं है पर सिद्धान्त से योग को ही महत्त्व देता है। इसलिये वह योगारूढ़ तो नहीं हुआ है पर योग का जिज्ञासु है योग को प्राप्त करना चाहता है। इस जिज्ञासा मात्र का यह माहात्म्य है कि वह वेदों में कहे सकाम कर्मों से और उनके फल से ऊँचा उठ जाता है। इससे सिद्ध हुआ कि जो यहाँ के भोगों की और संग्रह की रुचि सर्वथा मिटा न सके और तत्परता से योग में भी न लग सके , उसकी भी इतनी महत्ता है तो फिर योगभ्रष्ट के विषय में तो कहना ही क्या है ? ऐसी ही बात भगवान ने दूसरे अध्याय के 40वें श्लोक में कही है कि योग (समता) का आरम्भ भी नष्ट नहीं होता और उसका थोड़ा सा भी अनुष्ठान महान् भय से रक्षा कर लेता है अर्थात् कल्याण कर देता है। फिर जो योग में प्रवृत्त हो चुका है उसका पतन कैसे हो सकता है ? उसका तो कल्याण होगा ही इसमें सन्देह नहीं है। विशेष बात (1) योगभ्रष्ट बहुत विशेषता वाले मनुष्य का नाम है। कैसी विशेषता कि मनुष्यों में हजारों और हजारों में कोई एक सिद्धि के लिये यत्न करता है (गीता 7। 3) तथा सिद्धि के लिये यत्न करने वाला ही योगभ्रष्ट होता है। योग में लगने वाले की बड़ी महिमा है। इस योग का जिज्ञासु भी शब्दब्रह्म  का अतिक्रमण कर जाता है अर्थात् ऊँचे से ऊँचे ब्रह्मलोक आदि लोकों से भी उसकी अरुचि हो जाती है। कारण कि ब्रह्मलोक आदि सभी लोक पुनरावर्ती है और वह अपुनरावर्ती चाहता है। जब योग की जिज्ञासामात्र होने की इतनी महिमा है तो फिर योगभ्रष्ट की कितनी महिमा होनी चाहिये कारण कि उसके उद्देश्य में योग (समता) आ गया है तभी तो वह योगभ्रष्ट हुआ है। इस योगभ्रष्ट में महिमा योग की है न कि भ्रष्ट होने की। जैसे कोई आचार्य की परीक्षा में फेल हो गया हो , वह क्या शास्त्री और मध्यमा की परीक्षा में पास होने वाले से नीचा होगा ? नहीं होगा। ऐसे ही जो योगभ्रष्ट हो गया है वह सकामभाव से बड़े-बड़े यज्ञ , दान , तप आदि करने वालों से नीचा नहीं होता बल्कि बहुत श्रेष्ठ होता है। कारण कि उसका उद्देश्य समता हो गया है। बड़े-बड़े यज्ञ , दान , तपस्या आदि करने वालों को लोग बड़ा मानते हैं पर वास्तव में बड़ा वही है जिसका उद्देश्य समता का है। समता का उद्देश्य वाला शब्दब्रह्म का भी अतिक्रमण कर जाता है। इस योगभ्रष्ट के प्रसङ्ग से साधकों को उत्साह दिलाने  वाली एक बड़ी विचित्र बात मिलती है कि अगर साधक ‘हमें तो परमात्माकी प्राप्ति ही करनी है’ , ऐसा दृढ़ता से विचार कर लें तो वे शब्दब्रह्म का अतिक्रमण कर जायँगे । (2) यदि साधक आरम्भ में समता को प्राप्त न भी कर सके तो भी उसको अपनी रुचि या उद्देश्य समताप्राप्ति का ही रखना चाहिये जैसा कि गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं ‘मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी।।’ (मानस 1। 8। 4) तात्पर्य यह है कि साधक चाहे जैसा हो पर उसकी रुचि या उद्देश्य सदैव ऊँचा रहना चाहिये। साधककी रुचि या उद्देश्यपूर्ति की लगन जितनी तेज , तीव्र होगी उतनी ही जल्दी उसके उद्देश्य की सिद्धि होगी। भगवान का स्वभाव है कि वे यह नहीं देखते कि साधक करता क्या है बल्कि यह देखते हैं कि साधक चाहता क्या है ? ‘ रीझत राम जानि जन जी की।। रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की।।’ (मानस 1। 29। 2 3) एक प्रज्ञाचक्षु सन्त रोज मन्दिर में (भगवद्विग्रह का दर्शन करने ) जाया करते थे। एक दिन जब वे मन्दिर गये तब किसी ने पूछ लिया कि आप यहाँ किसलिये आते हैं ? सन्त ने उत्तर दिया कि दर्शन करने के लिये आता हूँ। उसने कहा कि आपको तो दिखायी ही नहीं देता । सन्त बोले मुझे दिखायी नहीं देता तो क्या भगवान को भी दिखायी नहीं देता । मैं उन्हें नहीं देखता पर वे तो मुझे देखते हैं । बस इसी से मेरा काम बन जायगा । इसी तरह हम समता को प्राप्त भले ही न कर सकें , फिर भी हमारी रुचि या उद्देश्य समता का ही रहना चाहिये , जिसको भगवान् देखते ही हैं । अतः हमारा काम जरूर बन जायगा। श्रीमानों के घर में जन्म लेने के बाद जब वह योगभ्रष्ट परमात्मा की तरफ खिंचता है तब उसकी क्या दशा होती है ? यह आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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