आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~ छठा अध्याय
16-32 विस्तार से ध्यान योग का विषय
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ৷৷6.22৷৷
यम्-जिसे; लब्ध्वा–प्राप्त कर; च – और; अपरम्-अन्य कोई; लाभम् – लाभ; मन्यते–मानता है; न–कभी नहीं; अधिकम्-अधिक; ततः-उससे; यस्मिन्-जिसमें; स्थित:-स्थित होकर; न – कभी नहीं; दुःखेन-दुखों से; गुरूणा-बड़ी; अपि-से; विचाल्यते-विचलित होना;
ऐसी अवस्था प्राप्त कर कोई और कुछ श्रेष्ठ पाने की इच्छा नहीं करता। ऐसी सिद्धि प्राप्त कर कोई मनुष्य बड़ी से बड़ी आपदाओं में विचलित नहीं होता अर्थात परमात्मा की प्राप्ति रूप जिस लाभ को प्राप्त होकर उसे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और और ऐसी अवस्था प्राप्त कर और कुछ श्रेष्ठ पाने की इच्छा नहीं करता। ऐसी परमात्मा प्राप्ति रूप जिस सिद्ध अवस्था में स्थित योगी बड़े भारी दुःख से भी विचलित नहीं होता। जिस लाभ की प्राप्ति होनेपर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ उसके माननेमें भी नहीं आता और जिसमें स्थित होनेपर वह बड़े भारी दुःखसे भी विचलित नहीं किया जा सकता।৷৷6.22৷৷
(‘यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः’ मनुष्य को जो सुख प्राप्त है उससे अधिक सुख दीखता है तो वह उसके लोभ में आकर विचलित हो जाता है। जैसे किसी को एक घंटे के सौ रुपये मिलते हैं , अगर उतने ही समय में दूसरी जगह हजार रुपये मिलते हों तो वह सौ रुपयों की स्थिति से विचलित हो जायगा और हजार रूपयों की स्थिति में चला जायगा। निद्रा , आलस्य और प्रमाद का तामस सुख प्राप्त होने पर भी जब विषयजन्य सुख ज्यादा अच्छा लगता है , उसमें अधिक सुख मालूम देता है तब मनुष्य तामस सुख को छोड़कर विषयजन्य सुख की तरफ लपककर चला जाता है। ऐसे ही जब वह विषयजन्य सुख से ऊँचा उठता है , तब वह सात्त्विक सुख के लिये विचलित हो जाता है और जब सात्त्विक सुख से भी ऊँचा उठता है , तब वह आत्यन्तिक सुख के लिये विचलित हो जाता है परन्तु जब आत्यन्तिक सुख प्राप्त हो जाता है तो फिर वह उससे विचलित नहीं होता क्योंकि आत्यन्तिक सुख से बढ़कर दूसरा कोई सुख , कोई लाभ है ही नहीं। आत्यन्तिक सुख में सुख की हद हो जाती है। ध्यानयोगी को जब ऐसा सुख मिल जाता है तो फिर वह इस सुख से विचलित हो ही कैसे सकता है ? ‘यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते’ विचलित होने का दूसरा कारण है कि लाभ तो अधिक होता हो पर साथ में महान् दुःख हो तो मनुष्य उस लाभ से विचलित हो जाता है। जैसे हजार रुपये मिलते हों पर साथ में प्राणों का भी खतरा हो तो मनुष्य हजार रुपयों से विचलित हो जाता है। ऐसे ही मनुष्य जिस किसी स्थिति में स्थित होता है , वहाँ कोई भयंकर आफत आ जाती है तो मनुष्य उस स्थिति को छोड़ देता है परन्तु यहाँ भगवान् कहते हैं कि आत्यन्तिक सुख में स्थित होने पर योगी बड़े से बड़े दुःख से भी विचलित नहीं किया जा सकता। जैसे किसी कारण से उसके शरीर को फाँसी दे दी जाय , शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिये जायँ , आपस में भिड़ते दो पहाड़ों के बीच में शरीर दबकर पिस जाय , जीते जी शरीर की चमड़ी उतारी जाय , शरीर में तरह-तरह के छेद किये जायँ , उबलते हुए तेल में शरीर को डाला जाय । इस तरह के गुरुतर , महान , भयंकर दुःखों के एक साथ आने पर भी वह विचलित नहीं होता। वह विचलित क्यों नहीं किया जा सकता ? कारण कि जितने भी दुःख आते हैं वे सभी प्रकृति के राज्य में अर्थात् शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि में ही आते हैं जब कि आत्यन्तिक सुख स्वरूपबोध प्रकृति से अतीत तत्त्व है परन्तु जब पुरुष प्रकृतिस्थ हो जाता है अर्थात् शरीर के साथ तादात्म्य कर लेता है तब वह प्रकृतिजन्य अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में अपने को सुखी-दुःखी मानने लग जाता है (गीता 13। 21)। जब वह प्रकृति से सम्बन्ध-विच्छेद करके अपने स्वरूपभूत सुख का अनुभव कर लेता है उसमें स्थित हो जाता है तो फिर यह प्राकृतिक दुःख वहाँ तक पहुँच ही नहीं सकता उसका स्पर्श ही नहीं कर सकता। इसलिये शरीर में कितनी ही आफत आने पर भी वह अपनी स्थिति से विचलित नहीं किया जा सकता। जिस सुख की प्राप्ति होने पर उससे अधिक लाभ की सम्भावना नहीं रहती और जिसमें स्थित होने पर बड़ा भारी दुःख भी विचलित नहीं करता , ऐसे सुख की प्राप्ति के लिये आगे के श्लोक में प्रेरणा करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )