आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~ छठा अध्याय
16-32 विस्तार से ध्यान योग का विषय
तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ৷৷6.23৷৷
तम्-उसको; विद्यात्-तुम जानो; दु:ख-संयोग-वियोगम्-वियोग से दुख की अनुभूति; योग-संज्ञितम्-योग के रूप में ज्ञान; निश्चयेन-दृढ़तापूर्वक; योक्तव्यो–अभ्यास करना चाहिए; योग-योग; अनिर्विण्णचेतसा-अविचलित मन के साथ।
दुःख या दुःखरूप संसार के संयोग से वियोग की अवस्था को योग के रूप में जाना जाता है। इस योग का दृढ़तापूर्वक दृढसंकल्प के साथ धैर्य और उत्साहयुक्त चित्त से निराशा से मुक्त होकर पालन करना चाहिए अर्थात जो दुःखरूप संसार के संयोग से रहित है तथा जिसका नाम योग है, उसको जानना चाहिए। वह योग न उकताए हुए अर्थात धैर्य और उत्साहयुक्त चित्त से निश्चयपूर्वक करना कर्तव्य है৷৷6.23৷৷
(‘तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्’ जिसके साथ हमारा सम्बन्ध है नहीं , हुआ नहीं , होगा नहीं और होना सम्भव ही नहीं । ऐसे दुःखरूप संसार-शरीर के साथ सम्बन्ध मान लिया यही दुःख-संयोग है। यह दुःखसंयोग योग नहीं है। अगर यह योग होता अर्थात् संसार के साथ हमारा नित्यसम्बन्ध होता तो इस दुःखसंयोग का कभी वियोग (सम्बन्ध-विच्छेद ) नहीं होता परन्तु बोध होने पर इसका वियोग हो जाता है। इससे सिद्ध होता है कि दुःखसंयोग केवल हमारा माना हुआ है , हमारा बनाया हुआ है , स्वाभाविक नहीं है। इससे कितनी ही दृढ़ता से संयोग मान लें और कितने ही लम्बे काल तक संयोग मान लें तो भी इसका कभी संयोग नहीं हो सकता। अतः हम इस माने हुए आगन्तुक दुःखसंयोग का वियोग कर सकते हैं। इस दुःखसंयोग (शरीर-संसार) का वियोग करते ही स्वाभाविक योग की प्राप्ति हो जाती है अर्थात् स्वरूप के साथ हमारा जो नित्ययोग है उसकी हमें अनुभूति हो जाती है। स्वरूप के साथ नित्ययोग को ही यहाँ योग समझना चाहिये। यहाँ दुःखरूप संसार के सर्वथा वियोग को योग कहा गया है। इससे यह असर पड़ता है कि अपने स्वरूप के साथ पहले हमारा वियोग था अब योग हो गया परन्तु ऐसी बात नहीं है। स्वरूप के साथ हमारा नित्ययोग है। दुःखरूप संसार के संयोग का तो आरम्भ और अन्त होता है तथा संयोगकाल में भी संयोग का आरम्भ और अन्त होता रहता है परन्तु इस नित्ययोग का कभी आरम्भ और अन्त नहीं होता। कारण कि यह योग , मन , बुद्धि आदि प्राकृत पदार्थों से नहीं होता बल्कि इनके सम्बन्ध-विच्छेद से होता है। यह नित्ययोग स्वतःसिद्ध है। इसमें सबकी स्वाभाविक स्थिति है परन्तु अनित्य संसार से सम्बन्ध मानते रहने के कारण इस नित्ययोग की विस्मृति हो गयी है। संसार से सम्बन्ध-विच्छेद होते ही नित्ययोग की स्मृति हो जाती है। इसी को अर्जुन ने 18वें अध्याय के 73वें श्लोक में ‘नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा’ कहा है। अतः यह योग नया नहीं हुआ है बल्कि जो नित्ययोग है उसी की अनुभूति हुई है। भगवन ने यहाँ ‘योगसंज्ञतिम्’ पद देकर दुःख के संयोग के वियोग का नाम योग बताया है और दूसरे अध्याय में ‘समत्वं योग उच्यते’ कहकर समता को ही योग बताया है। यहाँ साध्यरूप समता का वर्णन है और वहाँ (2। 48 में) साधनरूप समता का वर्णन है। ये दोनों बातें तत्त्वतः एक ही हैं क्योंकि साधनरूप समता ही अन्त में साध्यरूप समता में परिणत हो जाती है। पतञ्जलि महाराज ने चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहा है ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’ (योगदर्शन 1। 2) और चित्तवृत्तियों का निरोध होने पर द्रष्टा की स्वरूप में स्थिति बतायी है – ‘तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्’ (1। 3) परन्तु यहाँ भगवान ने ‘तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्’ पदों से द्रष्टा की स्वरूप में स्थिति को ही योग कहा है जो स्वतःसिद्ध है। यहाँ ‘तम्’ कहने का क्या तात्पर्य है 18वें श्लोक में योगी के लक्षण बताकर 19वें श्लोक में दीपक के दृष्टान्त से उसके अन्तःकरण की स्थिति का वर्णन किया गया। उस ध्यानयोगी का चित्त जिस अवस्था में उपराम हो जाता है , उसका संकेत 20वें श्लोक के पूर्वार्ध में यत्र पद से किया और जब उस योगी की स्थिति परमात्मा में हो जाती है , उसका संकेत श्लोक के उत्तरार्ध में ‘यत्र’ पद से किया। 21वें श्लोक के पूर्वार्ध में ‘यत् ‘ पद से उस योगी के आत्यन्तिक सुख की महिमा कही और उत्तरार्ध में ‘यत्र’ पद से उसकी अवस्था का संकेत किया। 22वें श्लोक के पूर्वार्ध में ‘यम्’ पद से उस योगी के लाभ का वर्णन किया और उत्तरार्ध में उसी लाभ को ‘यस्मिन्’ पद से कहा। इस तरह 20वें श्लोक से 22वें श्लोक तक छः बार यत् (टिप्पणी प0 356) शब्द का प्रयोग करके योगी की जो विलक्षण स्थिति बतायी गयी है , उसी का यहाँ ‘तम् पदे’ संकेत करके उसकी महिमा कही गयी है। ‘स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा’ जिसमें दुःखों के संयोग का ही अभाव है ऐसे योग (साध्यरूप समता) का उद्देश्य रखकर साधक को न उकताये हुए चित्त से निश्चयपूर्वक ध्यानयोग का अभ्यास करना चाहिये , जिसका इसी अध्याय के 18वें से 20वें श्लोक तक वर्णन हुआ है। योग का अनुभव करनेके लिये सबसे पहले साधकको अपनी बुद्धि एक निश्चयवाली बनानी चाहिये अर्थात् मेरे को तो योग की ही प्राप्ति करनी है ऐसा एक निश्चय करना चाहिये। ऐसा निश्चय करने पर संसार का कितना ही प्रलोभन आ जाय , कितना ही भयंकर कष्ट आ जाय तो भी उस निश्चय को नहीं छोड़ना चाहिये। ‘अनिर्विण्णचेतसा’ का तात्पर्य है कि समय बहुत लग गया । पुरुषार्थ बहुत किया पर सिद्धि नहीं हुई इसकी सिद्धि कब होगी कैसे होगी , इस तरह कभी उकताये नहीं। साधक का भाव ऐसा रहे कि चाहे कितने ही वर्ष लग जाएं , कितने ही जन्म लग जाएं , कितने ही भयंकर से भयंकर दुःख आ जायँ तो भी मेरे को तत्त्व को प्राप्त करना ही है। साधक के मन में स्वतः स्वाभाविक ऐसा विचार आना चाहिये कि मेरे अनेक जन्म हुए पर वे सब के सब निरर्थक चले गये उनसे कुछ भी लाभ नहीं हुआ। अनेक बार नरकों के कष्ट भोगे पर उनको भोगने से भी कुछ नहीं मिला अर्थात् केवल पूर्व के पाप नष्ट हुए पर परमात्मा नहीं मिले। अब यदि इस जन्म का सारा का सारा समय , आयु और पुरुषार्थ परमात्मा की प्राप्ति में लग जाय तो कितनी बढ़िया बात है । पूर्वश्लोक के पूर्वार्ध में भगवान ने जिस योग (साध्यरूप समता) का वर्णन किया था उसी योग की प्राप्ति के लिये अब आगे के श्लोक से निर्गुण – निराकार के ध्यान का प्रकरण आरम्भ करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )