आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~ छठा अध्याय
11-15 आसन विधि, परमात्मा का ध्यान, योगी के चार प्रकार
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ৷৷6.12৷৷
तत्रै-वहाँ; एकाग्रम्- एक बिन्दु पर केन्द्रित; मनः-मन; कृत्वा-करके; यतचित्ते–मन पर नियंत्रण; इन्द्रिय-इन्द्रियाँ; क्रियः-गतिविधि; उपविश्या-स्थिर होकर बैठना; आसने-आसन पर; युञ्जयात् योगम्-योग के अभ्यास के लिए प्रयास; आत्मविशुद्धये-मन का शुद्धिकरण।
उस आसन पर स्थिर बैठकर चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए मन को एकाग्र करके अर्थात एक बिंदु पर केंद्रित कर के अन्तःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करे॥12॥
पूर्वश्लोक में बिछाये जाने वाले आसन की विधि बताने के बाद अब भगवान 12वें और 13वें श्लोक में बैठने वाले आसन की विधि बताते हैं। ‘तत्र आसने’ जिस आसन पर क्रमशः कुश , मृगछाला और वस्त्र बिछाया हुआ है , ऐसे पूर्वश्लोक में वर्णित आसन के लिये यहाँ ‘तत्र आसने’ पद आये हैं। ‘उपविश्य’ उस बिछाये हुए आसन पर सिद्धासन , पद्मासन , सुखासन आदि जिस किसी आसन से सुखपूर्वक बैठ सके उस आसन से बैठ जाना चाहिये। आसन के विषय में ऐसा आया है कि जिस किसी आसन से बैठे उसी में लगातार तीन घंटे तक बैठा रहे। उतने समय तक इधर-उधर हिले-डुले नहीं। ऐसा बैठने का अभ्यास सिद्ध होने से मन और प्राण स्वतःस्वाभाविक शान्त (चञ्चलतारहित) हो जाते हैं। कारण कि मन की चञ्चलता शरीर को स्थिर नहीं होने देती और शरीर की चञ्चलता , क्रियाप्रवणता मनको स्थिर नहीं होने देती। इसलिये ध्यान के समय शरीर का स्थिर रहना बहुत आवश्यक है। ‘यतचित्तेन्द्रियक्रियः’ आसन पर बैठने के समय चित्त और इन्द्रियों की क्रियाएँ वश में रहनी चाहिये। व्यवहार के समय भी शरीर , मन , इन्द्रियों आदि की क्रियाओं पर अपना अधिकार रहना चाहिये। कारण कि व्यवहारकाल में चित्त और इन्द्रियों की क्रियाएँ वश में नहीं होंगी तो ध्यान के समय भी वे क्रियाएँ जल्दी वश में नहीं हो सकेंगी। अतः व्यवहारकाल में भी चित्त आदि की क्रियाओं को वश में रखना आवश्यक है। तात्पर्य है कि अपना जीवन ठीक तरह से संयत होना चाहिये। आगे 16वें , 17वें श्लोकों में भी संयत जीवन रखने के लिये कहा गया है। ‘एकाग्रं मनः कृत्वा’ मन को एकाग्र करे अर्थात् मन में संसार के चिन्तन को बिलकुल मिटा दे। इसके लिये ऐसा विचार करे कि अब मैं ध्यान करने के लिये आसन पर बैठा हूँ। यदि इस समय मैं संसार का चिन्तन करूँगा तो अभी संसार का काम तो होगा नहीं और संसार का चिन्तन होने से परमात्मा का चिन्तन , ध्यान भी नहीं होगा। इस तरह दोनों ओर से मैं रीता रह जाऊँगा और ध्यान का समय बीत जायगा। इसलिये इस समय मेरे को संसार का चिन्तन नहीं करना है बल्कि मन को केवल परमात्मा में ही लगाना है। ऐसा दृढ़ निश्चय करके बैठ जाय। ऐसा दृढ़ निश्चय करने पर भी संसार की कोई बात याद आ जाय तो यही समझे कि यह चिन्तन मेरा किया हुआ नहीं है किंतु अपने आप आया हुआ है। जो चिन्तन अपने आप आता है उसको हम पकड़ें नहीं अर्थात् न तो उसका अनुमोदन करें और न उसका विरोध ही करें। ऐसा करने पर वह चिन्तन अपने आप निर्जीव होकर नष्ट हो जायगा अर्थात् जैसे आया वैसे चला जायगा क्योंकि जो उत्पन्न होता है वह नष्ट होता ही है यह नियम है। जैसे संसार में बहुत से अच्छे-मन्दे कार्य होते रहते हैं पर उनके साथ हम अपना सम्बन्ध नहीं जोड़ते तो उनका हमारे पर कोई असर नहीं होता अर्थात् हमें उनका पाप-पुण्य नहीं लगता। ऐसे ही अपने आप आने वाले चिन्तन के साथ हम सम्बन्ध नहीं जोड़ेंगे तो उस चिन्तन का हमारे पर कोई असर नहीं होगा उसके साथ हमारा मन नहीं चिपकेगा। जब मन नहीं चिपकेगा तो वह स्वतः एकाग्र शान्त हो जायगा। ‘युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये’ अन्तःकरण की शुद्धि के लिये ही ध्यानयोग का अभ्यास करे। सांसारिक पदार्थ , भोग , मान , बड़ाई , आराम , यश , प्रतिष्ठा , सुख – सुविधा आदि का उद्देश्य रखना अर्थात् इनकी कामना रखना ही अन्तःकरण की अशुद्धि है और सांसारिक पदार्थ आदि की प्राप्ति का उद्देश्य , कामना न रखकर केवल परमात्मप्राप्ति का उद्देश्य रखना ही अन्तःकरण की शुद्धि है। ऋद्धि-सिद्धि आदि की प्राप्ति के लिये और दूसरों को दिखाने के लिये भी योग का अभ्यास किया जा सकता है पर उनसे अन्तःकरण की शुद्धि हो जाय ऐसी बात नहीं है। योग एक शक्ति है जिसको सांसारिक भोगों की प्राप्ति में लगा दें तो भोग , ऋद्धियाँ और सिद्धियाँ प्राप्त हो जायँगी और परमात्मा की प्राप्ति में लगा दें तो परमात्मप्राप्ति में सहायक बन जायगी – स्वामी रामसुखदास जी )