Bhagavad Gita Chapter 6

 

 

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आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~  छठा अध्याय

 

16-32 विस्तार से ध्यान योग का विषय

 

 

Bhagvad Gita Aatm sanyam yog chapter 6सङ्‍कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ৷৷6.24৷৷

 

संकल्प-दृढ़ संकल्पः प्रभवान्–उत्पन्न; कामान्–कामना; त्यक्त्वा-त्यागकर; सर्वान् समस्त; अशेषत:-पूर्णतया; मनसा-मन से; एव-निश्चय ही; इन्द्रिय-ग्रामम्-इन्द्रियों का समूह; विनियम्य-रोक कर; समन्ततः-सभी ओर से।

 

संकल्प से उत्पन्न होने वाली सम्पूर्ण कामनाओं को निःशेष रूप से त्यागकर और मन द्वारा इन्द्रियों के समुदाय को सभी ओर से भलीभाँति रोककर॥6.24॥

 

(जो स्थिति कर्मफल का त्याग करने वाले कर्मयोगी की होती है (6। 1 9) वही स्थिति सगुण-साकार भगवान का ध्यान करने वाले की (6। 14 15) तथा अपने स्वरूप का ध्यान करने वाले ध्यानयोगी की भी होती है (6। 18 23)। अब निर्गुण-निराकार का ध्यान करने वाले की भी वही स्थिति होती है , यह बताने के लिये भगवान् आगे का प्रकरण कहते हैं। ‘संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः’ सांसारिक वस्तु , व्यक्ति , पदार्थ , देश , काल , घटना , परिस्थिति आदि को लेकर मन में जो तरह-तरह की स्फुरणाएँ होती हैं । उन स्फुरणाओं में से जिस स्फुरणा में प्रियता , सुन्दरता और आवश्यकता दिखता है , वह स्फुरणा संकल्प का रूप धारण कर लेती है। ऐसे ही जिस स्फुरणा में ये वस्तु , व्यक्ति आदि बड़े खराब हैं , ये हमारे उपयोगी नहीं हैं । ऐसा विपरीत भाव पैदा हो जाता है , वह स्फुरणा भी संकल्प बन जाती है। संकल्प से ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं चाहिये , यह कामना उत्पन्न होती है। इस प्रकार संकल्प से उत्पन्न होने वाली कामनाओं का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। यहाँ ‘कामान्’ पद बहुवचन में आया है फिर भी इसके साथ ‘सर्वान्’ पद देने का तात्पर्य है कि कोई भी और किसी भी तरह की कामना नहीं रहनी चाहिये। ‘अशेषतः’ पद का तात्पर्य है कि कामना का बीज (सूक्ष्म संस्कार) भी नहीं रहना चाहिये। कारण कि वृक्ष के एक बीज से ही मीलों तक का जंगल पैदा हो सकता है। अतः बीजरूप कामना का भी त्याग होना चाहिये। ‘मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः’ जिन इन्द्रियों से शब्द , स्पर्श , रूप , रस और गन्ध इन विषयों का अनुभव होता है , भोग होता है , उन इन्द्रियों के समूह का मन के द्वारा अच्छी तरह से नियमन कर ले अर्थात् मन से इन्द्रियों को उनके अपने-अपने विषयों से हटा ले।समन्ततः कहने का तात्पर्य है कि मन से शब्द , स्पर्श आदि विषयों का चिन्तन न हो और सांसारिक मान , बड़ाई , आराम आदि की तरफ किञ्चिन्मात्र भी खिंचाव न हो। तात्पर्य है कि ध्यानयोगी को इन्द्रियों और अन्तःकरण के द्वारा प्राकृत पदार्थों से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद का निश्चय कर लेना चाहिये। पूर्वश्लोक में भगवान ने सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग एवं इन्द्रियों का निग्रह करने के निश्चय की बात कही। अब कामनाओं का त्याग और इन्द्रियों का निग्रह कैसे करें ? इसका उपाय आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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