Bhagavad Gita Chapter 6

 

 

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आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~  छठा अध्याय

 

16-32 विस्तार से ध्यान योग का विषय

 

 

Bhagvad Gita Aatm sanyam yog chapter 6युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ৷৷6.17৷৷

 

युक्त- सामान्य; आहार- भोजन ग्रहण करना; विहारस्य– मनोरंजन; युक्तचेष्टस्यकर्मसु – कार्यों में संतुलन; युक्त- संयमित; स्वप्न-अवबोधस्य– सुप्त और जागरण अवस्था; योगः- योगः भवति– होता है; दु:खहा- कष्टों का विनाश करने वाला।

 

जो आहार और आमोद-प्रमोद को संयमित रखते हैं, कर्म को संतुलित रखते हैं और निद्रा पर नियंत्रण रखते हैं अर्थात यथायोग्य सोने तथा जागने वाले हैं , वे योग का अभ्यास कर अपने दुखों को कम कर सकते हैं  अर्थात उनका ही योग सिद्ध होता है ৷৷6.17৷৷

 

 ‘युक्ताहारविहारस्य’ भोजन , सत्य और न्यायपूर्वक कमाये हुए धन का हो सात्त्विक हो , अपवित्र न हो। भोजन , स्वादबुद्धि और पुष्टिबुद्धि से न किया जाय बल्कि साधनबुद्धि से किया जाय। भोजन , धर्मशास्त्र और आयुर्वेद की दृष्टि से किया जाय तथा उतना ही किया जाय जितना सुगमता से पच सके। भोजन शरीर के अनुकूल हो तथा वह हलका और थोड़ी मात्रा में (खुराक से थोड़ा कम) हो , ऐसा भोजन करने वाला ही युक्त (यथोचित) आहार करने वाला है। विहार भी यथायोग्य हो अर्थात् ज्यादा घूमना-फिरना न हो बल्कि स्वास्थ्य के लिये जैसा हितकर हो वैसा ही घूमना-फिरना हो। व्यायाम , योगासन आदि भी न तो अधिक मात्रा में किये जायँ और न उनका अभाव ही हो। ये सभी यथायोग्य हों। ऐसा करने वालों को यहाँ युक्तविहार करने वाला बताया गया है। ‘युक्तचेष्टस्य कर्मसु’ अपने वर्णआश्रम के अनुकूल जैसा देश , काल , परिस्थिति आदि प्राप्त हो जाय उसके अनुसार शरीरनिर्वाह के लिये कर्म किये जायँ और अपनी शक्ति के अनुसार कुटुम्बियों की एवं समाज की हितबुद्धि से सेवा की जाय तथा परिस्थिति के अनुसार जो शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म सामने आ जाय उसको बड़ी प्रसन्नतापूर्वक किया जाय , इस प्रकार जिसकी कर्मों में यथोचित चेष्टा है , उसका नाम यहाँ युक्तचेष्ट है। ‘युक्तस्वप्नावबोधस्य’ सोना इतनी मात्रा में हो जिससे जगने के समय निद्रा-आलस्य न सताये। दिन में जागता रहे और रात्रि के समय भी आरम्भ में तथा रात के अन्तिम भाग में जागता रहे। रात के मध्यभाग में सोये। इसमें भी रात में ज्यादा देर तक जागने से सबेरे जल्दी नींद नहीं खुलेगी। अतः जल्दी सोये और जल्दी जागे। तात्पर्य है कि जिस सोने और जागने से स्वास्थ्य में बाधा न पड़े , योग में विघ्न न आये , ऐसे यथोचित सोना और जागना चाहिये। यहाँ ‘युक्तस्वप्नस्य’ कहकर निद्रावस्था को ही यथोचित कह देते तो योग की सिद्धि में बाधा नहीं लगती थी और पूर्वश्लोक में कहे हुए अधिक सोना और बिलकुल न सोना। इनका निषेध यहाँ यथोचित सोना कहने से ही हो जाता तो फिर यहाँ अवबोध शब्द देने में क्या तात्पर्य है ? यहाँ अवबोध शब्द देने का तात्पर्य है जिसके लिये मानवजन्म मिला है , उस काम में लग जाना भगवान में  लग जाना अर्थात् सांसारिक सम्बन्ध से ऊँचा उठकर साधना में यथायोग्य समय लगाना। इसी का नाम जागना है। यहाँ ध्यानयोगी के आहार , विहार , चेष्टा , सोना और जगना इन पाँचों को युक्त (यथायोग्य) कहने का तात्पर्य है कि वर्ण , आश्रम , देश , काल , परिस्थिति , जीविका आदि को लेकर सबके नियम एक समान नहीं चल सकते । अतः जिसके लिये जैसा उचित हो वैसा करने से दुःखों का नाश करने वाला योग सिद्ध हो जाता है। ‘योगो भवति दुःखहा’ इस प्रकार यथोचित आहार , विहार आदि करने वाले ध्यानयोगी का दुःखों का अत्यन्त अभाव करने वाला योग सिद्ध हो जाता है। योग और भोग में विलक्षण अन्तर है। योग में तो भोग का अत्यन्त अभाव है पर भोग में योग का अत्यन्त अभाव नहीं है। कारण कि भोग में जो सुख होता है वह सुखानुभूति भी असत के संयोग का वियोग होने से होती है परन्तु मनुष्यकी उस वियोगपर दृष्टि न रहकर असत्के संयोगपर ही दृष्टि रहती है। अतः मनुष्य भोगके सुखको संयोगजन्य ही मान लेता है और ऐसा मानने से ही भोग की आसक्ति पैदा होती है। इसलिये उसको दुःखों का नाश करने वाले योग का अनुभव नहीं होता। दुःखों का नाश करने वाला योग वही होता है जिसमें भोग  का अत्यन्त अभाव होता है।विशेष बात – यद्यपि यह श्लोक ध्यानयोगी के लिये कहा गया है तथापि इस श्लोक को सभी साधक अपने काम में ले सकते हैं और इसके अनुसार अपना जीवन बनाकर अपना उद्धार कर सकते हैं। इस श्लोक में मुख्यरूप से चार बातें बतायी गयी हैं युक्त आहार-विहार युक्त कर्म युक्त सोना और युक्त जागना। इन चार बातों को साधक काम में कैसे लाये ? इस पर विचार करना है। हमारे पास चौबीस घंटे हैं और हमारे सामने चार काम हैं। चौबीस घंटों को चार का भाग देने से प्रत्येक काम के लिये छःछः घंटे मिल जाते हैं जैसे (1) आहार-विहार अर्थात् भोजन करना और घूमना-फिरना, इन शारीरिक आवश्यक कार्यों के लिये छः घंटे। (2) कर्म अर्थात् खेती , व्यापार , नौकरी आदि जीविकासम्बन्धी कार्यों के लिये छः घंटे। (3) सोने के लिये छः घंटे और (4) जागने अर्थात् भगवत्प्राप्ति के लिये जप , ध्यान , साधन-भजन , कथा-कीर्तन आदि के लिये छः घंटे। इन चार बातों के भी दो-दो बातों के दो विभाग हैं । एक विभाग उपार्जन अर्थात् कमाने का है और दूसरा विभाग व्यय अर्थात् खर्चे का है। युक्त कर्म और युक्त जगना ये दो बातें उपार्जन की हैं। युक्त आहार-विहार और युक्त सोना ये दो बातें व्यय की हैं। उपार्जन और व्यय इन दो विभागों के लिये हमारे पास दो प्रकार की पूँजी है (1) सांसारिक धन-धान्य और (2) आयु । पहली पूँजी धनधान्य पर विचार किया जाय तो उपार्जन अधिक करना तो चल जायगा पर उपार्जन की अपेक्षा अधिक खर्चा करने से काम नहीं चलेगा। इसलिये आहार-विहार में छः घंटे न लगाकर चार घंटे से ही काम चला ले और खेती-व्यापार आदि में आठ घंटे लगा दे। तात्पर्य है कि आहार-विहार का समय कम करके जीविकासम्बन्धी कार्यों में अधिक समय लगा दे। दूसरी पूँजी आयु पर विचार किया जाय तो सोने में आयु व्यर्थ खर्च होती है। अतः सोने में छः घंटे न लगाकर चार घंटे से ही काम चला ले और भजन-ध्यान आदि में आठ घंटे लगा दे। तात्पर्य है कि जितना कम सोने से काम चल जाय उतना चला ले और नींद का बचा हुआ समय भगवान के भजन-ध्यान आदि में लगा दे। इस उपार्जुन (साधन-भजन) की मात्रा तो दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही रहनी चाहिये क्योंकि हम यहाँ सांसारिक धन-वैभव आदि कमाने के लिये नहीं आये हैं बल्कि परमात्मा की प्राप्ति करने के लिये ही आये हैं। इसलिये दूसरे समय में से जितना समय निकाल सकें उतना समय निकालकर अधिक से अधिक भजन-ध्यान करना चाहिये। दूसरी बात जीविकासम्बन्धी कर्म करते समय भी भगवान को याद रखे और सोते समय भी भगवान को याद रखे। सोते समय यह समझे कि अब तक चलते-फिरते बैठकर भजन किया है , अब लेटकर भजन करना है। लेटकर भजन करते-करते नींद आ जाय तो आ जाय पर नींद के लिये नींद नहीं लेनी है। इस प्रकार लेटकर भगवत्स्मरण करने का समय पूरा हो गया तो फिर उठकर भजन-ध्यान , सत्सङ्ग-स्वाध्याय करे और भगवत्स्मरण करते हुए ही काम-धंधे में लग जाय तो सब का सब काम-धंधा भजन हो जायगा। पीछे के दो श्लोकों में ध्यानयोगी के लिये अन्वय-व्यतिरेक रीति से खास नियम बता दिये। अब ऐसे नियमों का पालन करते हुए स्वरूप का ध्यान करने वाले साधक की क्या स्थिति होती है ? यह आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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