Bhagavad Gita Chapter 6

 

 

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आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~  छठा अध्याय

 

33-36 मन के निग्रह का विषय

 

Bhagavad Gita Chapter 6असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ৷৷6.36৷৷

 

असंयत-आत्मना-निरंकुश मनवाला; योग:-योग; दुष्प्रापः-प्राप्त करना कठिन; इति–इस प्रकार; मे-मेरा; मति:-मत; वश्य-आत्मना-संयमित मन वाला; तु-लेकिन; यतता-प्रयत्न करने वाला; शक्यः-संभव; अवाप्तुम्–प्राप्त करना; उपायतः-उपयुक्त साधनों द्वारा।

 

जिनका मन निरंकुश है अर्थात जिनका मन उनके वश में नहीं है उनके लिए योग करना कठिन है लेकिन जिन्होंने मन को नियंत्रित करना सीख लिया है और जो समुचित ढंग से निष्ठापूर्वक प्रयास करते हैं, ऐसे वश में किये हुए मन वाले प्रयत्नशील पुरुष उपयुक्त साधनों  द्वारा योग में पूर्णता प्राप्त कर सकते हैं। यह मेरा मत है ৷৷6.36৷৷

 

(‘असंयतात्मना योगो दुष्प्रापः ‘ मेरे मत में तो जिसका मन वश में नहीं है , उसके द्वारा योग सिद्ध होना कठिन है। कारण कि योग की सिद्धि में मन का वश में न होना जितना बाधक है , उतनी मन की चञ्चलता बाधक नहीं है। जैसे पतिव्रता स्त्री मन को वश में तो रखती है पर उसे एकाग्र नहीं करती। अतः ध्यानयोगी को अपना मन वश में करना चाहिये। मन वश में होने पर वह मन को जहाँ लगाना चाहे वहाँ लगा सकता है , जितनी देर लगाना चाहे उतनी देर लगा सकता है और जहाँ से हटाना चाहे वहीँ से हटा सकता है। प्रायः साधकों की यह प्रवृत्ति होती है कि वे साधन तो श्रद्धापूर्वक करते हैं पर उनके प्रयत्न में शिथिलता रहती है , जिससे साधक में संयम नहीं रहता अर्थात् मन, इन्द्रियाँ , अन्तःकरण का पूर्णतया संयम नहीं होता। इसलिये योग की प्राप्ति में कठिनता होती है अर्थात् परमात्मा सदासर्वत्र विद्यमान रहते हुए भी जल्दी प्राप्त नहीं होते। भगवान की तरफ चलने वाले वैष्णव संस्कार वाले साधकों की मांस आदि में जैसी अरुचि होती है , वैसी अरुचि साधक की विषयभोगों में नहीं होती अर्थात् विषयभोग उतने निषिद्ध और पतन करने वाले नहीं दिखते। कारण कि विषयभोगों का ज्यादा अभ्यास होने से उनमें मांस आदि की तरह ग्लानि नहीं होती। मांस आदि सर्वथा निषिद्ध वस्तु खाने से पतन तो होता ही है पर उससे भी ज्यादा पतन होता है रागपूर्वक विषयभोगों को भोगनेसे। कारण कि मांस आदि में तो यह निषिद्ध वस्तु है ऐसी भावना रहती है पर भोगों को भोगने से यह निषिद्ध है ऐसी भावना नहीं रहती। इसलिये भोगों के जो संस्कार भीतर बैठ जाते हैं , वे बड़े भयंकर होते हैं। तात्पर्य है कि मांस आदि खाने से जो पाप लगता है , वह दण्ड भोगकर नष्ट हो जायगा। वह पाप आगे नये पापों में नहीं लगायेगा परन्तु रागपूर्वक विषयभोगों का सेवन करने से जो संस्कार पड़ते हैं वे जन्मजन्मान्तरतक विषयभोगों में और उनकी रुचि के परिणामस्वरूप पापों में लगाते रहेंगे।  तात्पर्य है कि साधक के अन्तःकरण में विषयभोगों की रुचि रहने के कारण ही वह संयतात्मा नहीं हो पाता, मन-इन्द्रियों को अपने वश में नहीं कर पाता। इसलिये उसको योग की प्राप्ति में अर्थात् ध्यानयोग की सिद्धि  में कठिनता होती है। ‘वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः’ परन्तु जो तत्परतापूर्वक साधन में लगा हुआ है अर्थात् जो ध्यानयोग की सिद्धि के लिये ध्यानयोग के उपयोगी आहार-विहार , सोना-जागना आदि उपायों का अर्थात् नियमों का नियतरूप से और दृढ़तापूर्वक पालन करता है और जिसका मन सर्वथा वश में है , ऐसे वश्यात्मा साधक के द्वारा योग प्राप्त किया जा सकता है अर्थात् उसको ध्यानयोग की सिद्धि मिल सकती है , ऐसा मेरा मत है – इति मे मतिः। वश्यात्मा होने का उपाय है , सबसे पहले अपने आपको यह समझे कि मैं भोगी नहीं हूँ। मैं जिज्ञासु हूँ तो केवल तत्त्व को जानना ही मेरा काम है , मैं भगवान का हूँ तो केवल भगवान के अर्पित होना ही मेरा काम है , मैं सेवक हूँ तो केवल सेवा करना ही मेरा काम है। किसी से कुछ भी चाहना मेरा काम नहीं है । इस तरह अपनी अहंता का परिवर्तन कर दिया जाय तो मन बहुत जल्दी वश में हो जाता है। जब मन शुद्ध हो जाता है तब वह स्वतः वश में हो जाता है। मन में उत्पत्तिविनाशशील वस्तुओं का राग रहना ही मन की अशुद्धि है। जब साधक का एक परमात्मप्राप्ति का दृढ़ उद्देश्य हो जाता है तब उत्पत्तिविनाशशील वस्तुओं का राग हट जाता है और मन शुद्ध हो जाता है। व्यवहार में साधक यह सावधानी रखे कि कभी किसी अंश में पराया हक न आ जाय क्योंकि पराया हक लेने से मन अशुद्ध हो जाता है। कहीं नौकरी , मजदूरी करे तो जितने पैसे मिलते हैं उससे अधिक काम करे। व्यापार करे तो वस्तु का तौल , नाप या गिनती औरों की अपेक्षा ज्यादा भले ही हो जाय पर कम न हो। मजदूर आदि को पैसे दे तो उसके काम के जितने पैसे बनते हों , उससे कुछ अधिक पैसे उसे दे। इस प्रकार व्यवहार करने से मन शुद्ध हो जाता है। मार्मिक बात- ध्यानयोग में अर्जुन ने मन की चञ्चलता को बाधक माना और उसको रोकना वायु को रोकने की तरह असम्भव बताया। इस पर भगवान ने मन के निग्रह के लिये अभ्यास और वैराग्य ये दो उपाय बताये। इन दोनों में भी ध्यानयोग के लिये अभ्यास मुख्य है (गीता 6। 26)। वैराग्य ज्ञानयोग के लिये विशेष उपयोगी होता है। यद्यपि वैराग्य ध्यानयोग में भी सहायक है तथापि ध्यानयोग में राग के रहते हुए भी मन को रोका जा सकता है। अगर यह कहा जाय कि राग के रहते हुए मन नहीं रुकता तो एक आपत्ति आती है। पातञ्जलयोगदर्शन के अनुसार चित्तवृत्तियों का निरोध अभ्यास से ही हो सकता है। अगर उसमें वैराग्य ही कारण हो तो सिद्धियों की प्राप्ति कैसे होगी ? (जिसका वर्णन पातञ्जलयोगदर्शन के विभूतिपाद में किया गया है।) तात्पर्य है कि अगर भीतर राग रहते हुए चित्त एकाग्र और निरुद्ध होता है तो उसमें राग के कारण से सिद्धियाँ प्रकट होती हैं। कारण कि संयम (धारणा , ध्यान और समाधि) किसी न किसी सिद्धि के लिये किया जाता है और जहाँ सिद्धि का उद्देश्य है , वहाँ राग का अभाव कैसे हो सकता है ? परन्तु जहाँ केवल परमात्मतत्त्व का उद्देश्य होता है , वहाँ ये धारणा ध्यान और समाधि भी परमात्मतत्त्व की प्राप्तिमें सहायक हो जाते हैं।एकाग्रता के बाद जब चित्त की निरुद्ध-अवस्था आती है तब समाधि होती है। समाधि कारणशरीर में होती है और समाधि से भी व्युत्थान होता है। जब तक समाधि और व्युत्थान ये दो अवस्थाएँ हैं , तब तक प्रकृति के साथ सम्बन्ध है। प्रकृति से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होने पर तो सहजावस्था होती है ,जिससे व्युत्थान होता ही नहीं। अतः चित्त की चञ्चलता को रोकने के विषय में भगवान् ज्यादा नहीं बोले क्योंकि चित्त को निरुद्ध करना भगवान का ध्येय नहीं है अर्थात् भगवान ने जिस ध्यान का वर्णन किया है , वह ध्यान साधन है ध्येय नहीं। भगवान के मत में संसार में जो राग है , यही विशेष बाधा है और इसको दूर करना ही भगवान का उद्देश्य है। ध्यान तो एक शक्ति है , एक पूँजी है जिसका लौकिक-पारलौकिक सिद्धियों आदि में सम्यक् उपयोग किया जा सकता है। स्वयं केवल परमात्मतत्त्व को चाहता है तो उसको मन को एकाग्र करने की इतनी आवश्यकता नहीं है , जितनी आवश्यकता प्रकृति के कार्य – मन से सम्बन्ध-विच्छेद करने की , मन से अपनापन हटाने की है। अतः जब समाधि से भी उपरति हो जाती है तब सर्वातीत तत्त्व की प्राप्ति होती है। तात्पर्य है कि जब तक समाधि अवस्था की प्राप्ति नहीं होती तब तक उसमें एक आकर्षण रहता है। जब वह अवस्था प्राप्त हो जाती है तब उसमें आकर्षण न रहकर सच्चे जिज्ञासु को उससे उपरति हो जाती है। उपरति होने से अर्थात् अवस्थामात्र से सम्बन्ध-विच्छेद होने से अवस्थातीत चिन्मयतत्त्व की अनुभूति स्वतः हो जाती है। यही योग की सिद्धि है। चिन्मयतत्त्व के साथ स्वयं का नित्ययोग अर्थात् नित्यसम्बन्ध है। पूर्वश्लोक में भगवान ने कहा कि जिसका अन्तःकरण पूरा वश में नहीं है अर्थात् जो शिथिल प्रयत्नवाला है , उसको योग की प्राप्ति में कठिनता होती है। इसका अर्जुन आगे के दो श्लोकों में प्रश्न करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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