आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~ छठा अध्याय
16-32 विस्तार से ध्यान योग का विषय
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ৷৷6.32৷৷
आत्म-औपम्येन-अपने समान; सर्वत्र सभी जगह; समम्-समान रूप से; पश्यति-देखता है; यः-जो; अर्जुन-अर्जुनः सुखम्-आनन्द; वा-अथवा; यदि यदि; वा–अथवा; दुःखम्-दुख; सः-ऐसा; योगी-योगी; परमः-परम सिद्ध; मत:-माना जाता है।
मैं उन पूर्ण सिद्ध योगियों का सम्मान करता हूँ जो सभी जीवों में वास्तविक समानता के दर्शन करते हैं और दूसरों के सुखों और दुखों के प्रति ऐसी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं, जैसे कि वे उनके अपने हों अर्थात ऐसा सर्वश्रेष्ठ योगी सदा इस प्रकार सोचता है कि जैसे मुझे सुख प्रिय और अनुकूल है वैसे ही सभी प्राणियों को सुख प्रिय और अनुकूल हैं और जैसे दुःख मुझे अप्रिय और प्रतिकूल हैं वैसे ही वह सब प्राणियोंको अप्रिय और प्रतिकूल हैं । इस प्रकार जो सब प्राणियों में अपने समान ही सुख और दुःख को तुल्य भाव से अर्थात एक समान रूप से अनुकूल और प्रतिकूल देखता है और किसी के भी प्रतिकूल आचरण नहीं करता अर्थात अहिंसक होता है। ऐसा योगी सदैव सभी जीवो के कल्याण के लिए तत्पर रहता है। उनके दुःख में दुखी और उनके सुख में सुखी होता है । उनके दुःख को अपना दुःख और उनके सुख को अपना सुख समझता है ऐसे योगी को मैं सर्वश्रेष्ठ योगी समझता हूँ ৷৷6.32৷৷
[जो योगी अपनी भाँति ( जैसे मनुष्य अपने मस्तक, हाथ, पैर और गुदादि के साथ ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र और म्लेच्छादिकों का-सा बर्ताव करता हुआ भी उनमें आत्मभाव अर्थात अपनापन समान होने से सुख और दुःख को समान ही देखता है, वैसे ही सब भूतों में देखना ‘अपनी भाँति’ सम देखना है।) सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दुःख को भी सबमें सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है अर्थात मैं उन पूर्ण सिद्ध योगियों का सम्मान करता हूँ जो सभी जीवों में वास्तविक समानता के दर्शन करते हैं और दूसरों के सुखों और दुखों के प्रति ऐसी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं, जैसे कि वे उनके अपने हों]
(जिसको इसी अध्याय के 27वें श्लोक में ब्रह्मभूत कहा है और जिसको 28वें श्लोक में अत्यन्त सुख की प्राप्ति होने की बात कही है उस सांख्ययोगी का प्राणियों के साथ कैसा बर्ताव होता है ? इसका इस श्लोक में वर्णन किया गया है। कारण कि गीता के ब्रह्मभूत सांख्ययोगी का सम्पूर्ण प्राणियों के हित में स्वाभाविक ही रति होती है – ‘सर्वभूतहिते रताः (5। 25 12। 4)आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन’ साधारण मनुष्य जैसे अपने शरीर में अपनी स्थिति देखता है तो उसके शरीर के किसी अङ्ग में किसी तरह की पीड़ा हो , ऐसा वह नहीं चाहता बल्कि सभी अङ्गों का समानरूप से आराम चाहता है। ऐसे ही सब प्राणियों में अपनी समान स्थिति देखने वाला महापुरुष सभी प्राणियों का समानरूप से आराम चाहता है। उसके सामने कोई दुःखी प्राणी आ जाय तो अपने शरीर के किसी अङ्ग का दुःख दूर करने की तरह ही उसका दुःख दूर करने की स्वाभाविक चेष्टा होती है। तात्पर्य है कि जैसे साधारण प्राणी की अपने शरीर के आराम के लिये चेष्टा होती है , ऐसे ही ज्ञानी महापुरुष की दूसरों के शरीरों के आराम के लिये स्वाभाविक चेष्टा होती है। सर्वत्र कहने का तात्पर्य है कि उसके द्वारा वर्ण , आश्रम , देश , वेश , सम्प्रदाय आदि का भेद न रखकर सबको समान रीति से सुख पहुँचाने की स्वाभाविक चेष्टा होती है। ऐसे ही पशु-पक्षी , वृक्ष-लता आदि स्थावरजङ्गम सभी प्राणियों को भी समानरीति से सुख पहुँचाने की चेष्टा होती है और साथ ही साथ उनका दुःख दूर करने का भी स्वाभाविक उद्योग होता है।अपने शरीर के अङ्गों का दुःख दूर करने की समान चेष्टा होने पर भी अङ्गों में भेददृष्टि तो रहती ही है और रहना आवश्यक भी है। जैसे हाथ का काम पैर से नहीं किया जाता। अगर हाथ को हाथ छू जाय तो हाथ धोने की जरूरत नहीं पड़ती परन्तु पैर को हाथ छू जाय तो हाथ धोना पड़ता है। अगर मल-मूत्र के अङ्गों को हाथ से साफ किया जाय तो हाथ को मिट्टी लगाकर विशेषता से धोना निर्मल करना पड़ता है। ऐसे ही शास्त्र और वर्ण-आश्रम की मर्यादा के अनुसार सबके सुख-दुःख में समान भाव रखते हुए भी स्पर्श-अस्पर्श का ख्याल रखकर व्यवहार होना चाहिये। किसी के प्रति किञ्चिन्मात्र भी घृणा की सम्भावना ही नहीं होनी चाहिये। जैसे अपने शरीर के पवित्र-अपवित्र अङ्गों की रक्षा करने में और उनको सुख पहुँचाने में कोई कमी न रखते हुए भी शुद्धि की दृष्टि से उनमें स्पर्श-अस्पर्श का भेद रखते हैं। ऐसे ही शास्त्रमर्यादा के अनुसार संसार के सभी प्राणियों में स्पर्श-अस्पर्श का भेद मानते हुए भी ज्ञानी महापुरुष के द्वारा उनका दुःख दूर करने की और उनको सुख पहुँचाने की चेष्टा में कभी किञ्चिन्मात्र भी कमी नहीं आती। तात्पर्य है कि जैसे अपने शरीर का कोई अङ्ग अस्पृश्य होने पर भी वह अप्रिय नहीं होता , ऐसे ही शास्त्रमर्यादा के अनुसार कोई प्राणी अस्पृश्य होने पर भी उसमें प्रियता , हितैषिता की कभी कमी नहीं होती। ‘सुखं वा यदि वा दुःखम्’ अपने शरीर की उपमा से दूसरों के सुख-दुःख में समान रहने का तात्पर्य यह नहीं है कि दूसरों के शरीर के किसी अङ्ग में पीड़ा हो जाय तो वह पीड़ा अपने शरीर में भी हो जाय , अपने को भी उस पीड़ा का अनुभव हो जाय। अगर ऐसी समता ली जाय तो अपने को दुःख ही ज्यादा होगा क्योंकि संसार में दुःखी प्राणी ही ज्यादा हैं। दूसरी बात जैसे विरक्त त्यागी महात्मा लोग अपने शरीर की और अपने शरीर के अङ्गों में होने वाली पीड़ा की उपेक्षा कर देते हैं , ऐसे ही दूसरों के शरीरों की और उनके शरीरों के अङ्गों में होने वाली पीड़ा की उपेक्षा हो जाय अर्थात् जैसे उनको अपने शरीर के सुख-दुःख का भान नहीं होता , ऐसे ही दूसरों के सुख-दुःख का भी अपने को भान न हो , यह भी उपर्युक्त पदों का तात्पर्य नहीं है।उपर्युक्त पदों का तात्पर्य है कि जैसे शरीरमें आसक्त अज्ञानी पुरुषके शरीरमें पीड़ा होनेपर उस पीड़ाको दूर करनेमें और सुख पहुँचानेमें उसकी जैसी चेष्टा होती है तत्परता होती है ऐसे ही दूसरोंका दुःख दूर करनेमें और सुख पहुँचानेमें ज्ञानी महात्माओंकी स्वाभाविक चेष्टा होती है तत्परता होती है।जैसे किसीके हाथमें चोट लग गयी और वह लोकसमुदायमें जाता है तो उस पीड़ित हाथको धक्का न लग जाय इसलिये दूसरे हाथको सामने रखकर उस पीड़ित हाथकी रक्षा करता है और उसको धक्का न लगे ऐसा उद्योग करता है। परन्तु उसके मनमें कभी यह अभिमान नहीं आता कि मैं इस हाथकी पीड़ा दूर करनेवाला हूँ इसको सुख पहुँचानेवाला हूँ। वह उस हाथपर ऐसा एहसान भी नहीं करता कि देख हाथ मैंने तेरी पीड़ा दूर करनेके लिये कितनी चेष्टा की पीड़ाको शान्त करनेपर वह अपनेमें विशेषताका भी अनुभव नहीं करता। ऐसे ही ज्ञानी महापुरुषों के द्वारा दुःखी प्राणियों को सुख पहुँचाने की चेष्टा स्वाभाविक होती है। उनके मन में यह अभिमान नहीं आता कि मैं प्राणियों का दुःख दूर कर रहा हूँ दूसरों को सुख पहुँचा रहा हूँ। उनका दुःख दूर करने की चेष्टा करने पर वे अपने में कोई विशेषता भी नहीं देखते। उनका स्वभाव ही दूसरों का दुःख दूर करने का उनको सुख पहुँचाने का होता है। ज्ञानी पुरुष के शरीर में पीड़ा होती है तो वह उसको सह सकता है और उसके द्वारा उस पीड़ा की उपेक्षा भी हो सकती है परन्तु दूसरे के शरीर में पीड़ा हो तो उसको वह सह नहीं सकता। कारण कि जैसे दोनों हाथों में अपनी व्यापकता समान है , ऐसे ही सब शरीरों में अपनी स्थिति समान है परन्तु जिस अन्तःकरण में बोध हुआ है उसमें पीड़ा सहने की शक्ति है और दूसरों के अन्तःकरण में पीड़ा सहने की वैसी सामर्थ्य नहीं है। अतः उनके द्वारा दूसरों के शरीरों की पीड़ा दूर करने में विशेष तत्परता होती है। जैसे इन्द्र ने बिना किसी अपराध के दधीचि ऋषि का सिर काट दिया। पीछे अश्विनीकुमारों ने उनको पुनः जिला दिया परन्तु जब इन्द्र का काम पड़ा तब दधीचि ने अपना शरीर छोड़कर उनको (वज्र बनाने के लिये) अपनी हड्डियाँ दे दीं । यहाँ शङ्का हो सकती है कि अपने शरीर के दुःख की तो उपेक्षा होती है और दूसरों के दुःख की उपेक्षा नहीं होती , यह तो विषमता हो गयी , यह समता कहाँ रही ? इसका समाधान है कि वास्तव में यह विषमता समता की जनक है समता को प्राप्त करानेवाली है। यह विषमता समता से भी ऊँचे दर्जे की चीज है। साधक साधन-अवस्था में ऐसी विषमता करता है तो सिद्धअवस्था में भी उसकी ऐसी ही स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है परन्तु उसके अन्तःकरण में किञ्चिन्मात्र भी विषमता नहीं आती। ‘स योगी परमो मतः’ उसकी दृष्टि में सिवाय परमात्मा के कुछ नहीं रहा। वह नित्ययोग (परमात्मा के नित्यसम्बन्ध ) और नित्यसमता में स्थित रहता है। कारण कि शरीरसंसार से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होने से उसका परमात्मा से कभी वियोग होता ही नहीं और वह सभी अवस्थाओं तथा परिस्थितियों में एकरूप ही रहता है। अतः वह मुझे परमयोगी मान्य है। विशेष बात (1) यहाँ जैसे ध्यानयोगी के लिये ‘आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति’ कहा गया है , ऐसे ही कर्मयोगी के लिये ‘सर्वभूतात्मभूतात्मा’ (5। 7) और ज्ञानयोगी के लिये ‘सर्वभूतहिते रताः’ (5। 25 12। 4) कहा गया है परन्तु भक्तियोग में तो भक्त सम्पूर्ण शरीरों में अपने इष्टदेव को देखता है (6। 30) और अपने कर्मों के द्वारा उनका पूजन करता है ‘स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य’ (18। 46) तात्पर्य यह है कि कर्मयोगी और ज्ञानयोगी साधकों को चाहिये कि वे सबमें अपने आपको देखें तथा भक्तियोगी साधकों को चाहिये कि वे सबमें ईश्वर को अपने इष्टदेव को देखें।(2) सबको अपना भाई समझो यह भ्रातृभाव बड़ा उत्तम है परन्तु स्वार्थभाव को लेकर जब भाई-भाई लड़ते हैं तब भ्रातृ-भाव नहीं रहता बल्कि वैरभाव पैदा हो जाता है। जैसे कौरवों और पाण्डवों में लड़ाई हो गयी परन्तु ‘आत्मौपम्येन सर्वत्र’ अर्थात् शरीरभाव में कभी वैर नहीं हो सकता। जैसे अपने दाँतों से अपनी जीभ अथवा होठ कट जाय तो दाँतों को कोई नहीं तोड़ता अर्थात दाँतों के साथ कोई वैर नहीं करता। ऐसे ही अपने शरीर की उपमा से जो सबमें सुख-दुःख को समान देखता है , उसमें कभी वैरभाव नहीं होता। इस शरीरभाव से भी ऊँचा है भगवद्भाव। इस भाव में अपने इष्टदेव का भाव होता है। तात्पर्य है कि भगवद्भाव , भ्रातृभाव और शरीरभाव से भी ऊँचा है। अतः भगवान ने गीता में जगह-जगह अपने भक्तों की बहुत महिमा गायी है , जैसे वह परम श्रेष्ठ है – ‘स मे युक्ततमो मतः; (6। 47) वे योगी मेरे मत में अत्यन्त उत्कृष्ट हैं – ‘ते मे युक्ततमा मताः’ (12। 2) वे भक्त मेरे को अत्यन्त प्यारे हैं – ‘भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः’ (12। 20) आदि आदि। जिस समता की प्राप्ति सांख्ययोग और कर्मयोग के द्वारा होती है उसी समता की प्राप्ति ध्यानयोग के द्वारा भी होती है , इसको भगवान ने दसवें श्लोक से 32वें श्लोक तक बताया। अब अर्जुन ध्यानयोग से प्राप्त समता को लेकर आगे के दो श्लोकों में अपनी मान्यता प्रकट करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )