आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~ छठा अध्याय
37-47 योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ৷৷6.46৷৷
तपस्विभ्यः-तपस्वियों की अपेक्षा; अधिक:-श्रेष्ठ; योगी-योगी; ज्ञानिभ्यः-ज्ञानियों से; अपि-भी; मत:-माना जाता है; अधिक-श्रेष्ठ; कर्मिभ्यः-कर्मकाण्डों से श्रेष्ठ; च-भी; अधिक:-श्रेष्ठ, योगी-योगी; तस्मात्-अतः; योगी-योगी; भव-हो जाना; अर्जुन-अर्जुन।
योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञानियों से भी श्रेष्ठ माना गया है और सकाम कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है। इससे हे अर्जुन! तू योगी हो॥46॥
(‘तपस्विभ्योऽधिको’ योगी ऋद्धि-सिद्धि आदि को पाने के लिये जो भूख-प्यास , सरदी-गरमी आदि का कष्ट सहते हैं , वे तपस्वी हैं। इन सकाम तपस्वियों से पारमार्थिक रुचि वाला , ध्येयवाला योगी श्रेष्ठ है। ‘ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः’ शास्त्रों को जानने वाले , पढ़े-लिखे विद्वानों को यहाँ ज्ञानी समझना चाहिये। जो शास्त्रों का विवेचन करते हैं । ज्ञानयोग क्या है ? कर्मयोग क्या है ? भक्तियोग क्या है ? लययोग क्या है ? आदि-आदि बहुत सी बातें जानते हैं और कहते भी हैं परन्तु जिनका उद्देश्य सांसारिक भोग और ऐश्वर्य है । ऐसे सकाम शब्दज्ञानियों से भी योगी श्रेष्ठ माना गया है। ‘कर्मिभ्यश्चाधिको ‘ योगी इस लोक में राज्य मिल जाय ,धन-सम्पत्ति , सुख-आराम , भोग आदि मिल जाय और मरने के बाद परलोक में ऊँचे-ऊँचे लोकों की प्राप्ति हो जाय और उन लोकों का सुख मिल जाय , ऐसा उद्देश्य रखकर जो कर्म करते हैं अर्थात् सकामभाव से यज्ञ , दान , तीर्थ आदि शास्त्रीय कर्मों को करते हैं , उन कर्मियों से योगी श्रेष्ठ है। जो संसार से विमुख होकर परमात्मा के सम्मुख हो गया है , वही वास्तव में योगी है। ऐसा योगी बड़े-बड़े तपस्वियों , शास्त्रज्ञ पण्डितों और कर्मकाण्डियों से भी ऊँचा है , श्रेष्ठ है। कारण कि तपस्वियों आदि का उद्देश्य संसार है तथा सकामभाव है और योगी का उद्देश्य परमात्मा है तथा निष्कामभाव है। तपस्वी , ज्ञानी और कर्मी इन तीनों की क्रियाएँ अलग-अलग हैं अर्थात् तपस्वियों में सहिष्णुता की ज्ञानियों में शास्त्रीय ज्ञान की अर्थात् बुद्धि के ज्ञान की और कर्मियों में शास्त्रीय क्रिया की प्रधानता है। इन तीनों में सकामभाव होने से ये तीनों योगी नहीं हैं बल्कि भोगी हैं। अगर ये तीनों निष्कामभाव वाले योगी होते तो भगवान् इनके साथ योगी की तुलना नहीं करते । इन तीनों से योगी को श्रेष्ठ नहीं बताते। ‘तस्माद्योगी भवार्जुन’ अभी तक भगवान ने जिसकी महिमा गायी है , उसके लिये अर्जुन को आज्ञा देते हैं कि हे अर्जुन ! तू योगी हो जा रागद्वेष से रहित हो जा अर्थात् सब काम करते हुए भी जल में कमल के पत्ते की तरह निर्लिप्त रह। यही बात भगवान ने आगे 8वें अध्याय में भी ही है ‘योगयुक्तो भवार्जुन ‘(8। 27)। 5वें अध्याय के आरम्भ में अर्जुन ने प्रार्थना की थी कि आप मेरे लिये एक निश्चित बात कहिये। इस पर भगवान ने सांख्ययोग , कर्मयोग , ध्यानयोग की बातें बतायीं पर इस श्लोक से पहले कहीं भी अर्जुन को यह आज्ञा नहीं दी कि तुम ऐसे बन जाओ , इस मार्ग में लग जाओ। अब यहाँ भगवान् अर्जुन की प्रार्थना के उत्तर में आज्ञा देते हैं कि तुम योगी हो जाओ क्योंकि यही तुम्हारे लिये एक निश्चित श्रेय है। पूर्वश्लोक में भगवान ने योगी की प्रशंसा कर के अर्जुन को योगी होने की आज्ञा दी परन्तु कर्मयोगी , ज्ञानयोगी , ध्यानयोगी ,भक्तियोगी आदि में से कौन सा योगी होना चाहिये ? इसके लिये अर्जुन को स्पष्टरूप से आज्ञा नहीं दी। इसलिये अब भगवान् आगे के श्लोक में अर्जुन भक्तियोगी बने इस उद्देश्य से भक्तियोगी की विशेष महिमा कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )
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