Bhagavad Gita Chapter 6

 

 

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आत्मसंयमयोग / ध्यान योग ~  छठा अध्याय

 

05-10 आत्म-उद्धार की प्रेरणा और भगवत्प्राप्त पुरुष के लक्षण एवं एकांत साधना का महत्व

 

 

shrimad bhagavad geeta chapter 6

उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्‌ ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ৷৷6.5৷৷

 

उद्धरेत्-उत्थान; आत्मना-मन द्वारा; आत्मानम्-जीव; न-नहीं; आत्मानम्-जीव; अवसादयेत्-पतन होना; आत्मा-मन; एव–निश्चय ही; हि-वास्तव में; आत्मनः-जीव का; बन्धुः-मित्र; आत्मा-मन; एव-निश्चय ही; रिपुः-शत्रु; आत्मनः-जीव का।

 

मन की शक्ति द्वारा अपना आत्म उत्थान करो और स्वयं का पतन न होने दो क्योंकि यह मन ही निश्चित रूप से जीवात्मा का मित्र भी है और शत्रु भी ৷৷6.5৷৷

( मन ही मनुष्य के बन्धन और मोक्ष का भी कारण है | इन्द्रियविषयों में लीन मन बन्धन का कारण है और विषयों से विरक्त मन मोक्ष का कारण है। अतः जो मन निरन्तर परमात्मा में लगा रहता है, वही परम मुक्ति का कारण है) 

 

उद्धरेदात्मनात्मानम्’ अपने आप से अपना उद्धार करे इसका तात्पर्य है कि शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , प्राण आदि से अपने आप को ऊँचा उठाये। अपने स्वरूप से जो एकदेशीय मैंपन दिखता है उससे भी अपने को ऊँचा उठाये। कारण कि शरीर , इन्द्रियाँ आदि और मैंपन ये सभी प्रकृति के कार्य हैं अपना स्वरूप नहीं है। जो अपना स्वरूप नहीं है उससे अपने को ऊँचा उठाये। अपना स्वरूप परमात्मा के साथ एक है और शरीर , इन्द्रियाँ आदि तथा मैं पन प्रकृति के साथ एक है। अगर यह अपना उद्धार करने में अपने को ऊँचा उठाने में शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि की सहायता मानेगा , इनका सहारा लेगा तो फिर जडता का त्याग कैसे होगा क्योंकि जड वस्तुओं से सम्बन्ध मानना , उनकी आवश्यकता समझना , उनका सहारा लेना ही खास बन्धन है। जो अपने हैं , अपने में हैं , अभी हैं और यहाँ हैं , ऐसे परमात्मा की प्राप्ति के लिये शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि की आवश्यकता नहीं है। कारण कि असत के द्वारा सत् की प्राप्ति नहीं होती बल्कि असत के त्याग से सत् की प्राप्ति होती है। दूसरा भाव अभी पूर्वश्लोक में आया है कि प्राकृत पदार्थ , क्रिया और संकल्प में आसक्त न हो , उनमें फँसे नहीं बल्कि उनसे अपने आपको ऊपर उठाये। यह सबका प्रत्यक्ष अनुभव है कि पदार्थ , क्रिया और संकल्प का आरम्भ तथा अन्त होता है , उनका संयोग तथा वियोग होता है पर अपने (स्वयं के) अभाव का और परिवर्तन का अनुभव किसी को नहीं होता। स्वयं सदा एकरूप रहता है। अतः उत्पन्न और नष्ट होने वाले पदार्थ आदि में न फँसना , उनके अधीन न होना , उनसे निर्लिप्त रहना ही अपना उद्धार करना है। मनुष्यमात्र में एक ऐसी विचारशक्ति है जिसको काम में लाने से वह अपना उद्धार कर सकता है। ज्ञानयोग का साधक उस विचारशक्ति से जडचेतन का अलगाव करके चेतन (अपने स्वरूप) में स्थित हो जाता है और जड (शरीर संसार) से सम्बन्ध-विच्छेद कर लेता है। भक्तियोग का साधक उसी विचारशक्ति से मैं भगवान का हूँ और भगवान् मेरे हैं इस प्रकार भगवान से आत्मीयता करके अपना उद्धार कर लेता है। कर्मयोग का साधक उसी विचारशक्ति से मिले हुए शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि पदार्थों को संसार का ही मानते हुए संसार की सेवा में लगाकर उन पदार्थों में सम्बन्ध-विच्छेद कर लेता है और अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। इस दृष्टि से मनुष्य अपनी विचारशक्ति को काम में लेकर किसी भी योगमार्ग से अपना कल्याण कर सकता है। उद्धारसम्बन्धी विशेष बात – विचार करना चाहिये कि मैं शरीर नहीं हूँ क्योंकि शरीर बदलता रहता है और मैं वही रहता हूँ। यह शरीर मेरा भी नहीं है क्योंकि शरीर पर मेरा वश नहीं चलता अर्थात् शरीर को मैं जैसे रखना चाहूँ वह वैसा नहीं रह सकता , जितने दिन रखना चाहूँ उतने दिन नहीं रह सकता और जैसा सबल बनाना चाहूँ वैसा बन नहीं सकता। यह शरीर मेरे लिये भी नहीं है क्योंकि यदि यह मेरे लिये होता तो इसके मिलने पर मेरी कोई इच्छा बाकी नहीं रहती। दूसरी बात यह परिवर्तनशील है और मैं अपरिवर्तनशील हूँ। परिवर्तनशील अपरिवर्तनशील के काम कैसे आ सकता है ? नहीं आ सकता। तीसरी बात यदि यह मेरे लिये होता तो सदा मेरे पास रहता परन्तु यह मेरे पास नहीं रहता। इस प्रकार शरीर मैं नहीं , मेरा नहीं और मेरे लिये नहीं । इस वास्तविकता पर मनुष्य दृढ़ रहे तो अपने आप से अपना उद्धार हो जायगा। अब शङ्का होती है कि ईश्वर , सन्त-महात्मा , गुरु , शास्त्र इन से भी तो मनुष्यों का उद्धार होता है फिर अपने आप से अपना उद्धार करे ऐसा क्यों कहा ? इसका समाधान है कि ईश्वर, सन्त-महात्मा आदि हमारा उद्धार तभी करेंगे जब उनमें हमारी श्रद्धा होगी। वह श्रद्धा हमें खुद ही करनी पड़ेगी। खुद श्रद्धा किये बिना क्या वे अपने में श्रद्धा करा लेंगे ? नहीं करा सकते। अगर ईश्वर , सन्त आदि हमारे श्रद्धा किये बिना ही अपने में हमारी श्रद्धा कराकर हमारा उद्धार करते तो हमारा उद्धार कभी का हो गया होता। कारण कि आज दिन तक भगवान के अनेक अवतार हो चुके हैं , कई तरह के सन्त-महात्मा जीवन्मुक्त भगवत्प्रेमी हो चुके हैं परन्तु अभी तक हमारा उद्धार नहीं हुआ है। इससे भी सिद्ध होता है कि हमने स्वयं उनमें श्रद्धा नहीं की , हम स्वयं उनके सम्मुख नहीं हुए , हमने स्वयं उनकी बात नहीं मानी इसलिये हमारा उद्धार नहीं हुआ परन्तु जिन्होंने उन पर श्रद्धा की , जो उनके सम्मुख हो गये , जिन्होंने उनकी बात मानी उनका उद्धार हो गया। अतः साधक को शास्त्र , भगवान् , गुरु आदि में श्रद्धा-विश्वास करके तथा उनकी आज्ञा के अनुसार चलकर अपना उद्धार कर लेना चाहिये। भगवान् , सन्त-महात्मा आदि के रहते हुए हमारा उद्धार नहीं हुआ है तो इसमें उद्धार की सामग्री की कमी नहीं रही है अथवा हम अपना उद्धार करने में असमर्थ नहीं हुए हैं। हम अपना उद्धार करने के लिये तैयार नहीं हुए इसी से वे सब मिलकर भी हमारा उद्धार करने में समर्थ नहीं हुए। अगर हम अपना उद्धार करने के लिये तैयार हो जायँ , सम्मुख हो जायँ तो मनुष्य-जन्म जैसी सामग्री और कलियुग जैसा मौका प्राप्त करके हम कई बार अपना उद्धार कर सकते हैं पर यह तब होगा जब हम स्वयं अपना उद्धार करना चाहेंगे। दूसरी बात स्वयं ने ही अपना पतन किया है अर्थात् इसने ही संसार के सम्बन्ध को पकड़ा है संसार ने इसको नहीं पकड़ा है। जैसे बाल्यावस्था को इसने छोड़ा नहीं बल्कि वह स्वाभाविक ही छूट गयी। फिर इसने जवानी के सम्बन्ध को पकड़ लिया कि मैं जवान हूँ पर इसका जवानी के साथ भी सम्बन्ध नहीं रहेगा। तात्पर्य यह हुआ कि अगर यह नया सम्बन्ध नहीं जोड़े तो पुराना सम्बन्ध स्वाभाविक ही छूट जायगा जो कि स्वतः छूट ही रहा है। पुराना सम्बन्ध तो रहता नहीं और नया सम्बन्ध यह जोड़ लेता है इससे सिद्ध होता है कि सम्बन्ध जो़ड़ने और छोड़ने में यह स्वतन्त्र और समर्थ है। अगर यह नया सम्बन्ध न जोड़े तो अपना उद्धार आप ही कर सकता है। शरीर – संसार के साथ जो संयोग (सम्बन्ध) है उसका प्रतिक्षण स्वतः वियोग हो रहा है। उस स्वतः होते हुए वियोग को संयोग अवस्था में ही स्वीकार कर ले तो यह अपने आप से अपना उद्धार कर सकता है। ‘नात्मानमवसादयेत्’ यह अपने आप को पतन की तरफ न ले जाय इसका तात्पर्य है कि परिवर्तनशील प्राकृत पदार्थों के साथ अपना सम्बन्ध न जोड़े अर्थात् उनको महत्त्व देकर उनका दास न बने अपने को उनके अधीन न माने अपने लिये उनकी आवश्यकता न समझे। जैसे किसी को धन मिला , पद मिला , अधिकार मिला तो उनके मिलने से यह अपने को बड़ा श्रेष्ठ और स्वतन्त्र मानता है पर विचार करक देखें कि यह स्वयं बड़ा हुआ कि धन , पद , अधिकार बड़े हुए । स्वयं चेतन और एकरूप रहते हुए भी इन प्राकृत चीजों के पराधीन हो जाता है और अपना पतन कर लेता है। बड़े आश्चर्य की बात है कि इस पतन में भी यह अपना उत्थान मानता है और उनके अधीन होकर भी अपने को स्वाधीन मानता है । ‘आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुः’ यह स्वयं ही अपना बन्धु है। अपने सिवाय और कोई बन्धु है ही नहीं। अतः स्वयं को किसी की जरूरत नहीं है इसको अपने उद्धार के लिये किसी योग्यता की जरूरत नहीं है शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि की जरूरत नहीं है और किसी वस्तु , व्यक्ति , परिस्थिति आदि की भी जरूरत नहीं है। तात्पर्य है कि प्राकृत पदार्थ इसके साधक (सहायक) अथवा बाधक नहीं है। यह स्वयं ही अपना उद्धार कर सकता है , इसलिये यह स्वयं ही अपना बन्धु (मित्र) है। हमारे जो सहायक हैं , रक्षक हैं , उद्धारक हैं उनमें भी जब हम श्रद्धा-भक्ति करेंगे , उनकी बात मानेंगे तभी वे हमारे बन्धु होंगे , सहायक आदि होंगे। अतः मूल में हम ही हमारे बन्धु हैं क्योंकि हमारे माने बिना , हमारे श्रद्धाविश्वास किये बिना वे हमारा उद्धार नहीं कर सकते , यह नियम है। ‘आत्मैव रिपुरात्मनः’ यह स्वयं ही अपना शत्रु है अर्थात् जो अपने द्वारा अपने आप का उद्धार नहीं करता वह अपने आपका शत्रु है। अपने सिवाय इसका कोई दूसरा शत्रु नहीं है। प्रकृति के कार्य , शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि भी इसका अपकार करने में समर्थ नहीं हैं। ये शरीर , इन्द्रियाँ आदि जैसे इसका अपकार नहीं कर सकते ऐसे ही इसका उपकार भी नहीं कर सकते। जब स्वयं उन शरीरादि को अपना मान लेता है तो यह स्वयं ही अपना शत्रु बन जाता है। तात्पर्य है कि उन प्राकृत पदार्थों से अपनेपन की स्वीकृति ही अपने साथ अपनी शत्रुता है। श्लोक के उत्तरार्ध में दो बार ‘एव’ पद देने का तात्पर्य है कि अपना मित्र और शत्रु आप अर्थात स्वयं ही है दूसरा कोई मित्र और शत्रु हो ही नहीं सकता और होना सम्भव भी नहीं है। प्रकृति के कार्य के साथ किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध न मानने से यह स्वयं ही अपना मित्र है और प्रकृति के कार्य के साथ किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध मानने से यह स्वयं ही अपना शत्रु है। पूर्वश्लोक में भगवान् ने बताया कि यह स्वयं ही अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु है। अतः स्वयं अपना मित्र और शत्रु कैसे है ? इसका उत्तर आगे के श्लोक में देते हैं अर्थात् पूर्वश्लोक के उत्तरार्ध की व्याख्या आगे के श्लोक में करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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